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Full text of "The Maitri Or Maitrayaniya Upanishad"

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९२०]. 1. 7. 294-374 (0५07९40 7) ; [8 एला इलालश्माकर 
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संयोग (1. {0 संप्रयोग. 

सखरीषो ननक्रुः शया ति- ¢^. 

मरत (^. 

दूयत इति (^. 

अरेमोति (^. 

मेचेयः 1. 

सभिनिष्पद्यतत (^. 

मेतेग +. 

अयते क्रतं ४. 

अनिन ¢. (ध. (0पा1.) 


विविज्ञामीति ¢^. 

अनिष्टो (^. 

ईरिति (^. साला 18 8 एटा एट्प्वा1&. 

प्रेछवत्‌ ¢. 

कृतभक्‌ ^. 

अवाङ्चोद्धा (@. (5० 100 10 . 41, ।. >) 

¢, 7. ३११ & € € ग §. 1 (€ परसिथिमती ति 52५, 
कतम रष इमि तान. दोवाचेति (५. 7. 45, 1. 3). 


1-3 ©. ८. ४११ परिभिमत्तोति ष्टा अनुफटेरमभिभृयमानः 8710 ०1॥ 


मदसद्यानि-रेावाचेति. 


# ग1118 118#॥ (को प्णो18 ५6 सत्क 6६त्‌1&8 र (1, काध्। २ क 0) ए. . 
(11086 4 3. 816 इाण्ल) 111 ५1९ 11110४८ ५८४. 


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88 


108,2; 


4 च < ह >= ~~ 


है) = य 


च> १० € 2५ +^ 


2 


| 


1, £ 
13 


1747-2005 (२९777405. 


416 इपिति ए. 10815 अय यत्‌ चिगुणं चतुरशीतिलसयो- 
निपरिभतगशं . 

नानात्वस्वरूप (^. 

चक्रमिव चक्रिणेति ?. 

वस्नेति ¢. 

सतस्तृष्णा ¢. (^ (0) .) 

व्यावुत्तत्वं ¢. 

सायुज्यं ¢. #. 

महाधनान्धकार इव 1 

सखश्रमिव (^. 

इव स्थिताः ^. 

यस्तु (~. 0" यः. 

चोपाठभते व्रद्य सत्‌ (. 

सायुज्यं ८, 

त्वं मनस्त्वं ^. त्वं मनुस्त्वं ए, (धा. लला, 104. §पत्‌. अ. 

. 108.) 

खं (. 14.--. 01018 त्वं विशं 81 लया 81668 फ) 
प्लवे (€, 

सस 07 सासौत्‌ ‰. 

रुतद्वे रजसा रूपं 7. (2. $ध्पातार० 8819, [. 12). 

खभ्रादिवृभ्यद्ववदबद्धिपृविकेव 1.--11€ [षाट्‌ (टप 
(तणा) ^, 3.) शरणात्‌ [्णशङग ४6 (नमत८न९त्‌ #० 
खम्रादिवखद्भववदबद्धिपूरषिकेव. 

च (. 0 स, 8४11 2180 1) ]). 74, 1. 1. 

1. दगण्पभर इन्दियध्यक्षं तेषु सवतन्लः. 4. 3. 216 8150 
गप्र] 1€1€. 16 प्र प्ल्म्वाण& 18 ए0ष्णङ 
इन्द्रिणभ्यसस्तषु. 

तह यद्भद्य तज्ज्यातिः 4. {1116 {€^ ऽल्ला18 10 ए्पुप्रा1€ 
8 पिला (011८610, -- यत्सव्यं तदह यद्धद्म तज्ज्यो- 
तियेज्ज्योतिः स सादितः. 


९. ©. 


80 
88 
100 
111 
114 


110 
124 
120 


02.72; 


17 


हॐ +" ९ 


10 


, 


१८ 


1 


| 


१०५४5 2८4व77(04. 21 


शिन्यं यतः #. 

संषोधयिता ४. 

रष वाव ४. 

सन्नम्येवंवित्‌ 14. 

1\/1. 1188 {€ 16817 ण 1016 * ; एप 1६ 18 ८०] 
71 

योनिं ५. 

दृश्यन्त्‌ ॥ / 6 

प. वणप ति्ेग्वावाजवोदगे. 111९ प पठता 15 
ए"00801$ ति्यग्वावाङ बोद्ध. 

सायोज्यत्वं 4. एप्† 111 (०. सायोज्यं . 

ससार्चक्र # 7८} 15 {€ एल्व्वृ्राट ज चर गाव. 

निव्ययुक्तस्य 

विचे्ेत ४. (एष 70६ 771 (ला. ) 

ष्वाप्सरसः 4. 

प्र्ानभिगेके । अथय ते वा रतस्य 0. पटार. 

शरद्धेमन्तः शिशिरं स शिरः - 1. 

अद्ययमण्ुते 2. 4. 

सयं गतः 2. #. 

शेषास्त ग्रन्यविस्तराः ?. शेषन्ये ग्रन्थविस्तरः 1. 


2, 13 शुचिं 1. (ल. ॥४८९एल, [7त्‌. §पत्‌. 33. 11) 
1, 0 


लीयन्ते ४. 

1. 18 ॥1710पडाठप $. 1-6 स्तुवन्ति. 
भये तेत्वं ४. (एप 111 (जा). मद्य). 
परियान्ति 4. 


2, 18 स्कन्धात्स्कन्धं "1. स्कन्धास्कन्ध ^. 7. 


-उपभोगाद्वेतीभावो 1#¶. <. 1016 ५. 


10, &1९€8 110 (नणनृाला वा 17€ लयात्‌ ग 11€ (गा. ला, 1; च 
{116 लात्‌ णना. 2, 8, 6 7 125 इति मेचरीशाखोपनिषहयीपिकायां &८. ; 
६11त्‌ ६ 1116 लात्‌ ग ५], 4, 6, 7 इति मेच्युपनिषहीपिकायां ९८५. 


> (+ £. 


श्र. 


1 
1451 ]. 


11.41. 


{२० -परावतैनेन परमपरूषाये- (५. (८1181. ]. 240. 11010: 


वाठटखखिल्या. 
अत्रवन्‌. 

ईट्‌गोन . 

पतव. 

तट्‌ भिव्यक्तिं (50 7#¶.) 
देवौ यं . 
उतम्भयति. 
सशछ्चानि. 
उञ्जटत्वचवाचिना. 
पत रखकस्य (३० 1#¶.) 
नानात्वमपि, 
संवृद्यपेतं. 

धाम. 

उपासन. 

स्यात्‌ तत्परेण. 
कथयमित्यं. 

नतः 
सापादतलमस्तक . 


79८0९ ॥ . 
[२८०१ चिन्त्य यतः (1.) 


99 


99 


भ्राणोपाधिः. 
सवेभूतेभ्यः. 


7)^/2 मन्व प्ति. 


1881}, 


188 


१2 


छ. 


अरि | 
@ ॥~ 


ह >= ७5 ^~ 


~+ 2? 


1 1]. 


हॐ £ ^~ € 


~~ 
(9 6 


10 
160 


9 


0111) 


९८६१५ चैतन्यं. 


स्पृशतीन्दरियायेन्‌ 

जायने. 

तियेग्वावाङ्‌ बोद्ध (8८ ४81. ९८६. 
इत्येवं. 

सन्यास. 


` चद्याकारे. 


पश्यत्रेवे. 

निराशः. 

यत्निप्कामत्वं (11.) 

पुंसः. 

तस्येतलिङ्ख . 

प्रसानमित्येके । सयते वा (70) 
रतद्यदादित्यस्य . 

अटाः. 

विशोकोऽपि चिकित्सः. 
स्वग्येस्येष. 

सन्येनेव-- यथान्धाः. 
स्कन्धात्स्कन्ध. 

स कारणस्य. 

तरय नं (8९८ {. 291, 1101९.) 


^प११ (खान्दोर च० ६ । खर ४). 


=> > 
भ्युप नषत्‌ 


ओरामतीथक्तदीपिकासदहिता । 


च्यास्यातिकसमाजस्यानु च्या तद्ययेन च। 
ड, वि, कोरलनान्नेयं साद्ेमेन विष्टित्चिता 


कलिकाता नगयों 


, 


व्याष्टिष्ट मिसन्‌ यन्ते मुद्ता। 


पका ब्दाः १७ ८५ 


ड 9 | 6 ॥ 4 4 


1 [4 7 ^. 


1200 1४, 1¡1९ 4, .21" वाल्ञिखिद््या *८८.7 वाल्ल च्या. 
18८6 19, ,, 1; 9) अन्रैवन्‌ 1८04 अनत्रवन्‌, 

1206 40; +; 5; 40 नानाल्मु ति ”९५॥८ नानालमुपे ति. 
1220 48, ; 4.07" संृद्धापेतं 7८०५ सधद्रुपतं. 

ष्९ 24, ;+; ॐ व (ङान्दा० मण्द्‌। खण०्ट). 


मेव्युपनिषत्‌। 
दौोपिकासहिता । 


र. 
& नर्यो नमः। 
प्रणम्य रामं प्रणताभयप्रदं 
गरस्तया छष्णमखः! स्तद्‌ात्मनः । 
मेचायणानां अ्रतिमलिमर्यतः 
प्रसाध्य विष्णा; परमे पदेऽपये।॥९॥ 
ब्रह्मयज्ञो वा एष दत्यादा मैचायणानामपनिषत्‌ तसाः 
एवकाण्डेन सम्बन्धः । काण्डचतुषटयात्मकं पूवैस्मिन्‌ गन्धेऽने- 
कानि कमा्छद्निदाचादोनि विहितानि तानि दाच्ावच- 
फलाथतया तानि यद्यपि तथापि न परमपरूषार्थपयव- 
सितानि, यतः साध्यफलानि तानि, साध्यद्चानित्यं यत्छतक 
तदनित्यमिति नियमात्‌ । ञ्रतिञ्चाच भवति तद्ययेद्‌ कमजितोा 
लाकः चौयत एवमेवाम्‌च पण्छजिता लाकः ्षोयते' (कान्द 
श्रन्ट) दूति) यदिद वा श्रष्यनेवंविनद्रदत्पण्यं कमं करोति 
, तद्धास्यान्ततः चौयत एवः (हृदा ०्श्र०्र। त्रा०४) इतिच । 
तयाथ्चा वा एतदच्तरं गाग्थेविदिलाङ्छिं्ञाकं जुति यजते 
तपस्तप्यते बहनि वषंखदसाश्यन्तवदेवास्य तद्भवति" (हृदा 
अणू त्रा०्र) दति च। तस्मात्‌ खभावतो नित्यनिरतिश्य- 
परूषाथोायिनः पुखाऽभिलपितसाधनेपायप्रदभ्ेनाय प्रवतंमाने 


8 


र मेन्यपनिषत | 


वेदोऽनादिभवपरन्यरानुश्तानेकविषयवासनावासितान्तःकर- 
णं वासनापरवश्रतया प्रबतंमानं विषयासक्तमानसं प्रति सद 
सा विषयप्रवणतापर्‌ाबतनेनाऽऽपर मपर्षाथरूपाविद्यानिटत्ति 
 परमानन्दाविभावसाघनप्रत्यगात्मतत्वन्रद्धाप्रवणतामापाद्य परं 
नरद्मात्मतन्लं बेघयितुमशक्गुवनादरो कमीण्ठेव परूषाथ॑साघनत- 
यापदिशति, पनस्तचेव निष्ठां सम्पाद्य तन्निष्ठस्य नित्यनेमि- 
त्तिककमानष्टानम्रभावतः शनैः श्द्ध्यमानान्तःकरणस्व यनरौ- 
अरापंणवृद्धौव निष्कामकमोानुष्टानादतितरां ्टद्ान्तःकरणएस्य 
नित्याजित्यवम्बुविवेकवत दहामच्रा्यभागरागश्टन्यस्य श्रमद- 
मादिमाधनवता मोात्तमाचाकाङ्कि्णिऽधिकारमम्प्तिमालच्छ 
प्रत्यगात्मत्वं ब्रद्माध्यारोापापवादन्यायेनावगमयय स्वयञ्च ते- 
मैवावगमेन सद तस्िन्नेवात्मतच्वे ब्रह्मणि विलोयमानो ब्रह्या- 
त्ममाचादयं सत्यज्ञानानन्तानन्देकरसमवतिष्ठत दति पएवा- 
परभावेन कर्मज्नानकाण्डयोादतुदेतुमद्धावः सम्बन्धः सिद्धः, 
तदनेन व्याख्येयोात्तरकाण्डस्य विषयप्रयाजनाधिकारिणा द- 
भिताः। विषयस्य चात्मतत्वस्य वेदान्तरमानासिद्धतया व्या- 
स्येयगरन्यग्रतिपाद्यताऽयात्‌ सिद्धेति सिद्धानुबन्धचतुषट्यमिमं 
ग्रन्थं पदणा यथामति व्याख्यास्यामः) पव चयनादिकमा- 
स्नातं तचाश्िष्टामातिरिक्रानां सवषां यज्ञक्रतूनां साधारणं 
सावता सवैण्छेव कमोण्टपलक्तणत्वेन ग्टहोतानि, तथा च सवेषां 
कमणां परमात्मन्ञानजन््पकारकवेन परमपरुषा्देतुलं 
दशितं श्रुतिः प्रवदते ॥ 


दीधिक्रासङहिषा। ङ्‌ 


ब्रह्मयज्ना वा रष यत्पूर्वषां चयम । तस्माद्यज- 
मानधित्वेतानम्नीनात्मानमभिध्यायेत्‌ । स पृः खख 


1 





= (००००००० 





"ब्रह्मयज्ञ ° चयन दति। यदिद पूवषां कर्मप्रकर- 
णाक्रानां कर्मणां चयनं चयनाददि सव कमं एष ब्रह्मणः 
परमात्मनो यज्ञो यजनं पूजनं वे प्रसिद्धं, “यज्ञे वै विष्णरय॑न्ञ- 
नेव यज्ञं सन्तनातिः इति श्रत्यन्तरात्‌। च्रच चयनग्रदणमस्यां 
शाखायां प्रथमकाण्डे चयनस्यान्नानात्‌ । पुवे् विदितानि स- 
वाणि कमाणि परमेश्वरापंणवृद्या फलासक्ति एरित्यज्यानषेया- 
नीति तात्पया्थः। तथा च भगवानाद (मो०च्र०५।क्ञा०९०) 

ब्रह्मण्याधाय कमाणि सङ्गं त्यक्ता करोति यः। 

लिप्यते नस पापेन पद्मपचमिवाम्रसा ॥ दति 
यस्माद्र द्यपूजनार्थ॑मेव सवं क्म “तस्मात्‌ ° ध्यायेत्‌" दरति। य- 
जमानः कमण्डधिकृत एतान्‌ पतरौक्तानभ्नोंखितल्रा ्रभ्निचयनान्तं 
मवं कमं ययाधिकारं भिवत्यै तत््रभावलमान्तःकरणएष्रणद्धिः 
मन्नात्मानं प्रत्यच्चं वच्छमाणलचणमभि च्रभितः सवात्यन्रद्य- 
भावेन ध्यायेत्‌ निरन्तरं चिन्तयेदित्यथैः। अचक्ताप्रत्ययनिद- 
शाऽनष्टानात्मष्यानयेर्नैरन्तयैपरो न भवति किन्त पूवकालल- 
माचपरः, तथा चास्मिन्‌ जन्मनि जन््रान्तरे वाटत्तकमानष्टान- 
रतग्ररुद्यतिशयफलं विविदिषां प्राप्य कमन्य व्यृत्याय प्रत्यक्र्व- 
ब्रह्मविचारपरोा भवेदित्यभिप्रायः। एवं सति किं स्ादित्येतदाद 


८“स पुणः ° यन्नः" दति। स यज्ञः प्रागनुष्टितः खलु नितं वै 
) 


2 
. , मंन्यपनिषत्‌ | 


वा अह्ञाऽविकलः सम्ययते यन्नः। कः साऽभिध्येया- 
ऽयं यः प्राणाख्यः । तस्योापाखस्यानं ॥ १॥ 

हदद्रथो वे नाम राजा विराज्ये पुतं निधापयि- 
प्रसिद्धं श्रद्धा खाच्ठात्‌ निरुपचरितं पुणः पूणंफलः मन्यद्यते। 
यद्वा स यज्ञो यजमानः यज्ञो वै यजमानः" दरति तेः, पृणा- 
ऽध्यात्यपरिच्छदाभिमानदान्याऽनवच्छिनिः परमात्मा सम्पद्यते, 
श्रद्धा खलु वै दत्यक्ता्थे। ्रात्मानमभिष्यायेदिव्युक्तं ष्येयमा- 
त्मानं प्रखप्रतिवचनाण्यां सङ्घुपता निदिं कः स ° प्रा 
णाख्यः"* दति) सश्रात्माभिष्येयः पूवेाक्तः कः किंखरूपः कि- 
म्प॒माणकथखेति प्रसभागायंः। यः प्राणाख्यः प्राणेन प्राणनेन 
प्राणनादरिवयापारणाख्यायते म्रख्यायतेऽस्तीति निखौोयते इति 
प्राणाख्योऽयंसय्येय्रात््येति प्रतिवचनभागार्यः। तथाच श्रतिः 
का दयेवान्यात्‌ कः प्राण्याद्यटष च्राकाश्र च्रानन्दोा न स्यान्‌ 
(तेन्ति०्ड०) दइति। ष्यः प्राणेन प्राणितिसतश्रात्मा सवा- 
न्तर: (द द दा०श्र०५।न्रा०४) दत्याद्याच। या देदहादिसद्ातसा- 
च्यात्मा सऽभिध्येय इत्ययः । उक्ताथेसङ्गदप्रपञ्चनं प्रतिजा- 
नीते “'तस्वापाख्यानंःः इति| तस्य प्राणाख्यस्यात्मन उप समोपे 
ख्यानं तत्छभावस्य स्पष्टकथयनमारभ्यत दति वाक्यशेषः ॥९॥ 

हृदद्रया वा दृत्याद्याख्यायिका सुखाववाधाया तपेवै- 
गाग्ययारात्मन्नानाङ्गलस्यापनायोा च हृदद्रयेा ° निजंगामःः 
दति। विविधं राज्यमस्मिन्निति विराञ्यं तस्मिन विरच्य 


दीपिकासह्हिता१ ५ 


त्वेदमशश्रतं मन्यमानः शरीरं बेर ्यसुपेतेाऽर ण्यं 
निजगाम। स तत्र परमं तप आख्थायादित्यमुदौ- 
छषमाख अद्धबाहस्िषएटठति। अन्ते सहखादस्यान्ति- 
कमाजगामा भ्रिरिवाधूमकस्तेजसा निद हन्निवात्मवि- 


+ _.... ~ ----~-----~~--------------~-~----~-------~--~-------------- ~~ न> = = -- ~ --~------~ -- अ 


सावेभोामे श्राधिपत्ये इत्यर्यः! निधापयिला मन्तिभिर्निंधानं 
म्यापनं कारयिवेत्यथः। राज्यस्येख्ने पच्मभिषिच्येति यावत्‌, 
स्वयं जवति सति पुत्रस्य राज्यदाने निमित्तमाह, इदमिति, 
ददं शरोरमभाश्चतमनित्यं मन्यमान दृति सम्बन्धः। वैराग्ये 
रएगनिन्तिं उपेतः *टेदिकामुञ्रिकभेागरागविनिमक्त दत्य; 
रण्यं गराम्यजनवजिंतं विविक्तमभयं देशं प्रति निजंगाम प्र 
स्थित इत्ययः। "स तच ° तिष्ठति इति तचारण्धेस राजा 
हदद्रयनामा परमं दुष्करं कायशेाषलचणं तप श्राख्ायोद्धं- 
बाङ्रूद्धींकतवाङ्दय श्रादित्यं सवितारमुदीक्माणः सवि- 
तयारोपितदुष्टिः सन्‌ तिष्टति ्रतिष्टदित्य्थः। तपसि स्थिर- 
चिन्तानामभीषटसिद्धिरवग्यम्भा विनीत्यभिपरेत्याद “च्रन्ते सदस्- 
स्यान्तिकं ° शाकायन्यः''दति। सदस्रस्य संवत्सराणामिति शेषः। 
एवं तपसि स्थितस्य रान्ञः संवत्सराणां सदसस्थान्ते भगवा- 
च्छाकायन्याऽन्तिकमाजगामेति सम्बन्ध; । सदसा खखेति पाटे 
सदरसलद्वसात््रककालस्यान्त दति यान्यं) शाकायनस्टापल्यं 
शाकायन्यस्तन्नामा क्थिदु षिः, तसयाभीषटवरदानसामण्यद्यात- 
नाय विश्रेषणएणनि, श्रघूमकोाऽभ्चिरिवेति, उपशान्तविकेप इत्यर्थः । 


७ 
द्‌ , मब्यपनिषत्‌ | 


ज्ञगवाञ्छाकायन्यः। उन्तिष्ठात्तिष्ठ वरं टदणोधेति 
राजानमव्रवीत्‌। स तस्मे नमस्कुत्वोवाच। भग- 
वन्नाहमात्मवित्‌ त्वं तत्ववित्‌ शर्मा वयंसत्वंनेा 
बरहोति । रतहत्त पुर स्ताटुःशक्यमेतत्प्रञ्रनैच्लाकान्यान्‌ 


तेजसा खप्रभया ब्रह्यवचरेनेति यावत निरददन्निवान्यानभि- 
भवन्निवेत्यनेनान्ञानस्ंगशयादिप्रतिबन्धरहितं तत्वज्ञानमस्या- 
स्तीति द्यातितं | कुत एवम्पभावाऽयमित्यता विशिनश्चात्म- 
विदिति। श्रात्मतत्चवित्वे लिङक्गमाद, भगवानिति। 

"उत्पत्तिं प्रलयद्चौव श्तानामागन्तिं गतिं। 

वेत्ति विद्यामविद्याञ्च स वाच्या भगवानिति॥ 
(विष्णपु ° श्रं ° ६।अ०५) दति ूल्युक्तो भ गवच्छब्द्‌ाथः। सवेज्ञ 
दत्यर्यः। श्रागत्य किं छृतवानिति तदा ““उल्तिष्ठ ° श्रव्रवोत्‌' 
दरति। स्यष्टार्थः। तता राजकछृतमाह “स तस्मै ° उवाचः 
दति । तसै शाकायन्यायस राजा नमा नममं नमस्कारं कला 
तं दण्डवत््रणम्योवाचोक्रवान्‌। किमुवाचेति तद्‌ाडइ “भगवन्‌ 
° घ्रुदोति” दति । दत्युवा चेति सम्बन्धः । दे भगवन्‌ पुजावन्‌ 
रद मात्मविन्न ्रात्मतच्चविन्न भवामीत्ययः । वं तत्चविद्‌ात्मत- 
स्वस्य वेत्ता, इति श्ब्देाऽचाध्याहायः। दति वयं श्रटु्रुम विस- 
गान्तपाढः कान्दसः। श्रतः स त्वमात्मत्वं नाऽस्य त्रूडि 
प्रतिपादयेत्यथः। एवं ष्रष्टवते शाकायन्यः किमादेत्येतदाद 
"एतत ° शाकायन्यःः इलि । यत लया प्रष्टमात्मतत्वमेतदस्तु 


दो पिक्षासह्िता) 8 


कामान्‌ दणीषेति शकायम्यः । 1शरक्त स्य चरण- 


५) 


भगवन्रसििचर्मलायुमन्नमां सशक्शणितसषेष्माु- 


व 11 
स म भ क --~-=~ 





परस्तादतौतें काले न्तं सिद्धं निर्णँतं पूवेतनेकषिभिरिति 
याज्ये इदानीं वेतत््रञ्रं दुःश्क्यं, लिङ्गव्यत्ययेन एष प्ररो 
दुःशका दुःशक दत्यरेः। यद्वा एत त्तमेतस्धात्म तत्तस्य ठत्तं 
यायाक्यं एतप्मरस्नं प्र्नवचनच्च परस्तात्‌ प्रथमं चित्तेका्या- 
दितियोन्ये, दुःशकांद;श्क वत्र ओआतुश्च, दुलंभमेतदित्यर्थः। 
तया च ्रतिरूतो, “श्रवणायापि बह्भिया न लभ्यः प्ररठन्ता- 
ऽपि बदवेा यन्न विद्यः श्राया वक्ता कगलाऽस्व लबा त्राखयौ 
ज्ञाता कुशलानुशिष्टः "(कठापर) दइति। श्राख्यवत्पश्चति कञ्चि- 
देनमाख्यवददति तथैव चान्यः। आ्राख्॒यवच्चैनमन्यः प्टणाति 
शचत्वाघेनं वेद्‌ न चेव कञ्चित्‌" (गी°श्र०र।क्ञा०२<) इति । ₹ रै 
च्वाक इच्चाङ्ुकुलाह्व श्रन्यान्‌ कामान्‌ खगभागानष्परःप्र्- 
तीनेडिकान्‌ वा घनतेरुणोप्रम्तोन्‌ दृणोष्व प्राथेयेया दति शा- 
“शिरसा 
° जगद्‌ दति इमां बुद्धिस्थां वच्छमाणणं गाथां ययाख्ि- 
ताथा कथां जमगाद्‌क्रवान्‌ राजा, सुगममन्यत्‌ ॥ २॥ 


कायन्यः उवाचेत्यनुषङ्ग; । तता राजा त्तान्तमाद 


यदुक्तमन्यान्‌ कामान्‌ टणोव्वेति तच भागायतनस्य ख- 
भावालेचनायां न कामः कामाय कल्पतद्तिद्यातयन्‌ स्थुल- 
शरीरं तावत्‌ बोभस्सितं वणंयति “भगवन ° भागैः" इ्ति। 


ख मेव्युपनिषत्‌ । 


दूषिकाविण्मू्पित्तकफसङ्काति दुगन्धे निःसारेऽस्मि- 
ज्छरोरे किं कामापभागेः। कामक्राधलाभमोाह- 
भयविषादेष्येष्टवियोगानिष्टसम्प्रयेगक्षत्पिपासाजरा- 
खत्युरागशका देर भिदचतेऽसि्छरोरे किं कामोाप- 
मोगेः॥ ₹३॥ 


--------*' -~-----~ ~------~ ----- ---- ~ ---~~----~---~-~---~ --~-~--~-~------------- ““- ----- ~-~--- ---~-~~-~---- 


शद्रा ग्रिहाणिका नासादारकमलः, दूषिका नेचमलः, कफो 
इत्कण्ठराधी पिच्छिला मल दति भेदः अस्धारिसङ्गाते 
घनं दु :सहगन्धे कद लोस्तमपवन्निः खारेऽन्तःमारवजितेऽस्िन्‌ 
यले शरीरो वतंमानखेति गेषः, किं कामेपभनैः कायं। 
श्राचातं नौयमानस्य वध्यस्येव भाजनाच्चछादनालद्धारादि न 
तेषमपेव्यतोत्यभिप्रायः। न केवलमिदं शरोर खता बी- 
भल्खितल्लात्‌ कामानर्मपि लतिवलवद्रिनिवरैरभिग्यमान- 
ल्ादपोत्याद काम ° मेगः" दति) कामेऽप्राप्राभिलाषः। 
क्राधः प्रसिद्धः लोभः प्राक्नेव्वपि विषयेष्वलम्बद्धिराद्दित्यं। 
मे हाऽनथऽयेबद्धिः। भयं परिचासः। विषादः शाकः ईय्या 
परप्रदेषः। इृष्टवियोगः खानुकूलपचा द्नुबन्धवैकच्यं । अनि- 
सम्प्रयोगः खप्रतिक्रूलानुबन्धसङ्लनं । एताभ्यां दुःखंलच्छ- 
ते। एवमेतेऽन्तःकरण्धमोाः । सुत्पिपासे प्राणधर्मौ । जरादयो 
देदधमे श्रागन्तृकाः। शाकः शाकनिमित्ता देदावसादः 
कार्यमिति यावत्‌ । जआ्रादिशब्द्‌ाहृद्धिविपरिणामेा रृदयेते। 
च्रन्यदुक्तायं।॥२॥ 


दीपिकासह्हिता। ह 


स्वं चेदं छ्यिष्णु पश्यामो यथेमे दंशमशकादय- 
स्तणवनस्यतयेद्धुतप्रध्वंसिनः । अथ किमेलेवौ परेऽन्ये 
मदाधनुर्धराखक्रवर्तिनः कचित्‌ : सुदयन्भूरि य॒मेन्द्र- 
दय॒न्नकुवैलयाश्चयावनाशचवध्युश्राश्वपतिः शश्चिन्द् दरि 


--------- ~~~ ------ ------ ~न ~~~ ~न ----- --------~--~ = ~ ~ =-= 


एवंविधोऽपि सदनात यदि चिरस्थायो यिरःस्यात तदा 
कथञ्चिदपि विषकोरखवदरभिलय्येत नंवमस्तोव्याडइ “शवं चेदं ° 
प्रध्यंसिनः› दति, सवं चेदं यथा वर्सितं सद्धातद्पं चयभोखं 
मश्धरं पश्यामो निधारयाम इति प्रतिन्ञा, तच देत॒रुद्रत- 
प्रघ्वसिल्रादिति योान्यकादाचित्कलादित्यर्थः) ययेमे इत्या- 
दि प्रध्यसिन इत्यन्तं निदश्नमिति विभागः। तया चायं 
प्रयागः, विमतः सद्राताऽशाश्वतः उत्यननप्रध्यंसिलाद्य एवं स 
एवं यथेमे दृश्यमाना दश्मश्कादया यथा वा दणवनस्पतय 
उद्भूतप्रघ्वंसिनाऽग्राश्चतास्तथा चायं तस्मात्‌ तयेति। वनस्मतयोा- 
द्ूतेति सन्धिग्कान्दसः। वाकारो वात्न लप्ताद्रष्टव्यः। उक्त- 
दृष्टान्ते्वप्ररषटक्मजलमुपाधिमाश्् तखाप्रयोजकतां द शयन्‌ 
प्ररुष्टक मजेष्वप्यशाश्ततामाविष्करोति “श्रय [कमतः ° के- 
चित्‌” दति। ्रन्यच्वत्यसिनरथेऽयशनब्दः, एतेरुदा हतैः नद्र- 
जन्त्स्थावरः किं। वाण्ब्दाऽनाद्रे। परो उत्छष्टा अरन्ये उक्र 
भ्यो महाधन्‌धरा मदाश्ूराश्चक्रवतिनः सारव॑भैमाख् कचित्‌ 
श्रस्माक्ञाकादमुं लोकं प्रयाता दत्युत्तरेणानचयः। तानेव 
चक्रवतिनः कां्िद्गण्यति “सुद्युष्न्रियुन्र ° सेनादयः' 


५ 





१० मेन्यपनिषत । 


न्दरऽम्बरीष+ननक्तुसयातियेयात्यनरण्येक्षसेनाद यः 
अथय †मरत्तभरतप्रशटतयोा राजानः। मिषते बन्धु- 
वर्गस्य महतीं भियं त्यक्तास्माल्लकादमु लाकं प्र 
याता इति। अथ किमेतेवा परेऽन्ये गन्धवीसुरयश्ष- 
राकछ्सभूतगण्पिशचोर गग्रहादीनां निरोधं पश्यामः; 











दइति। अचाश्चपतिः शशविन्दुरित्यादिपद विच्छेदपाटण्च्छान्द- 
सः प्रमादिका वा, एते खयसामवंशजा राजान उक्ताः| 
एतेष्वपि विश्िषटतरानन्यानुद्‌ादरति “श्रय मरुत्त ° राजा- 
नः" दृति । 1मरुत्ता नाम सेवर्तकेन योगिना याजितो 
राजा, यस्य यागे समागता ददधादयः सायधा एव स्तम्भिताः, 
पनख चमसाष्वय॑वे नियक्ताः सः। भरता दो व्यन्तिचना श 
मेधानां चिश्ती कृतासः। प्रम्डतिरित्याद्पद्‌पयायेण प्रिय- 
जताद्येष द्यन्ते) ते किं तद्‌ “मिषता बन्धवगंस्य ° प्रया- 
ता दतिः दति। बन्धुव॑स्य भोग्यजातस्य मिषतः पश्यता 
जोवत एव मताऽच्षषछस्यति यावत्‌। मडतोमपरिमितां, यं 
विग्रतिं, त्यक्ता श्रनिच्छन्ताऽपि तां परित्यज्यास्मात्मरतिपना- 
ल्लीकाददादमुं लाकं परोक्तं प्रयाताः नष्टा बश्यवरिति नि- 
सितमित्यथः । एवं मनुखखश्रोराणामृक्छष्टानामष्यनित्यताम्‌- 
द्‌ाइत्यामन्येष्वणुत्कषनिकषतार तम्येन स्थितेष्वनित्य ता माव- 


# नघुष इति इडरे प।यपुसतके पठितं | 
†{ मर्त इति लिखितं [कन्तु मरुत्त इति शतपयत्राद्यणे मदा 
भार्तोयशएन्तिपवंणि च पद्यत । 


दी तपकास्डता | ११ 


अथ किमेतेवाऽन्यानां शषणं मदार्णवाणां श्खि- 
रिणां प्रपतनं भ्रुवस्य प्रचलनं व्रश्चनं वातरन्नुनां 
निमज्जनं एथिव्याः स्थानादपसरणं सुराणामित्येत- 
दिघेऽस्मिन्त्संसारे किं कामापभागेः। येरेवाशितस्या- 








दयन्नादौ तेषु निकष्टाननुक्रमते “त्रय किं ° पश्यामः” 
दइति। थापि च एतैः पूटाक्रैः किंवा, दताऽणन्ये पर 
वचिरस्थायितयाक्छष्टाः सन्ति, तेषां गन्धवादीनां निरोधं नाशं 
पश्याम दति योाजना। पिशाचा उन्यार्‌ापस्ारादयः। गरदा 
बालग्रदा मादकादयः। न्ये प्रसिद्धाः “शचरयकिं ° कामा- 
पमेगैःः' दलि । श्रयाष्येतिरकरौः किं वा, दताऽपि सिरतेन 
प्रतिपन्नानामन्यानामन्येषा मित्येतत्‌ सिरतां न पश्चाम इति 
याजना। यतः शाषणं महार्णवानां प्रलयकाले, श्रणाना- 
मिति पाटेऽर्णासयदन्तीत्यणा नद्यः, तासां शाषणं महाणंवा- 
नाच्च शाषणमिति याजनोयं। शिखरिणां मदामेरुप्रग्तो- 
नां गिरीणणं प्रपतनमृच्छेदः, ध्रुवस्य सवज्योतिश्चक्रावलम्बनस्य 
प्रचलनं खमण्डलात्रच्यवनं, वातरज्नुनां वातमयानां रज्जुना 
शिग्रएमार चक्रवन्धनानां व्रखनं कदनं, प्रथिव्या श्रपि सप्त- 
द्ोपवत्या निमनव्ननमदकान्तलेयः । एवं खाननाशे तच्छयानां 
सुराणां ब्रह्मादीनां तस्मात्‌ तस्मात्सानाद्‌ पसरणएमपसपणं 
स्थानभ्रष्टतया कच्ीणभागवं। दइतोत्थमेतद्विधे एतादृ कप्रकारे 


सवेया नश्चरोऽस्िन्‌ ब्रह्मा दि स्तम्बपयन्ते संसारे कि कामाप- 
०५ ‡ 


१९ मेन्यपनिषत । 


सदि हावर्तनं दृश्यता द्त्युद्तुमहहसि। अन्धोादपा- 
नस्या भेकं इ वाहमस्मिन्त्सं सारे भगवंल्वं ना गतिस्तव 
ना गतिः॥ ४॥ | 

इति मेद्यपनिषदि प्रथमः प्रपाठकः । 
मेगैरिति व्याख्यातं) भागस्यानानां मोग्यदेदद्धियविषयाणणं 
तददिश्ि्टिभक्तणां चानिव्यवं प्रसाध्य भोागानामपि त्रसाध- 
यति ््यैरवाशितस्यासकत्‌ ° दृश्यते दति। यैराशितखख 
भोजितस्य ब्रद्मलाकपयन्तेषु स्थानेषु तपिंतस्य पुंस दूह मनु- 
लो केऽसछन्मृङमङरावतेनमा ठति श्यते, तेरनित्येः कामा- 
पमे; किं ममेत्यथः। तदनेन प्रबन्धेनानात्मविपयेा वरः 
भत्याख्यातोऽनेन चात्मन्ञानयाग्यता दर्िता। एवे गरू- 
वैराग्य विवेकपर्वकमुपवण्य स्थिता गरोरनग्रहदृष्टिमालच्छ 
तत्पाद पसषपणं विद्योपदेशय्रदणाङ्गं विद्धद्भुरं भ्राथयते 
““दत्यद्ध त मदि दूति । यतेऽदं निरविलाऽस्ि अता माम्‌- 
द्धद॑मरभि इत्युक्तवानित्यर्थः। कुत उद्धरणं तदाद “श्रन्धो- 
दपानस्थेा ° गतिः" इति। अन्धाद्पानं निरूदकः कूपस्तच 
स्थिता भका मण्टृक दवास्मिन्‌ यथावति संसारे खिता 
द्‌ ख्यस्गीत्यस्माद्‌द्धतुंमदंमोत्य्यः। काऽणन्यस््रामुद्धूरिव्यतोति 
मा श्रङ्गिष्टा इत्याद “भगवंस्वंनोा गतिस्वं ना गतिः दति) 
श्रभ्यास च्राद्रायः, श्रष्यायसमात्िदयोातनायौा वा॥४॥ 

दति मेच्युपनिषदौोपिकायां प्रथमः प्रपाटकः॥ 


द(पिकासश्िता। १३ 


पथय भगवाज्छाकायन्यः सुप्रीतस्वत्रवोद्राजानं। 
महाराज टदद्टद्रयेच्चाकृवंशध्वज शोघ्रमात्मन्नः छतक्ष- 
त्यसूं मरुन्नामेति विश्चताऽसीति। अयं वाव खल्वा- 


एवं वरान्तरेः प्रलोभ्यमानोऽप्यप्रचलिततया सुपरोचिता 
जिज्ञा सुरूपमन्नः शिष्यो न गरूणेापेचणणेय दति गुरोः प्रद 
त्ति दशयति सुतिः “ज्य भगवान्‌ ° राजानं? दति। 
किमन्रवीदिति तदाद “मदाराजह्ृदद्रथ ° विश्रुताऽसोति" 
द्ति। महाराजत्यादिगिव्यप्रभंसा वच्यमाणायंग्रदणयाग्य- 
तां तस्य खचयितु। प्रशस्यमाने दि गरो; प्रसन्नतां वृद्धा 
तदुक्ताय खद्‌धानतया तमवधारयति। वंश्वजत्वं तत्स्या- 
तिकरत्वं। लं शौघ्रमात्मनज्ञः संवत्सर वामष्रश्रुषादि विलम्ब 
विना मत्त आ्रात्मन्नञानं प्राग्नोपि यताऽतः कतक्षत्यस्र मति । 
दतिश्रब्दाऽग्रतन दृदनज्ञयः। इतिदेतामरुनान्ना मरुता वायोा- 
यन्धाम एपद्ग्य दति तेन नान्ना विश्रताऽमोति येजना। 
षन्ता महान्ताऽश्रा यस्य रथे भवन्ति स ष्रषद्श्चा वायुः, 
मदाश्युक्ररथा दि मदान्‌ भवतोति महारथ उच्यते वाचः, 
श्रयमपि तत्पयायल्वादद्द्रय इति स्यातिमापन्न दत्ययथेः। 
अथवा जगत्राण दरति यद्धायोनाम तेन नान्नेदानीँं विश्रुता 
ऽसति याजना । मत््रसादात्‌ लंजगद्‌ात्मा संटन्ताऽसोत्यभि- 
म्रायः। यद्थेमयमृपसन्नो राजा ग्रं तमात्मानमपदिशति 
“श्रयं वाव खल्वात्माते" दति। ते तव शरदं ममेति सहग- 


2 
१४ मन्यपनिषत्‌ | 


त्मा ते। यः कतमो भगवा इति । तं हावाचेति॥ १॥ 
अथ य रषोच्छासाविष्टम्भननमुत्करान्ता व्यय- 
मानेऽव्ययमानस्तमः प्रणुदत्येष आत्मा । इत्याद 


~~~ ~~~ ~~ 
----------=--- 


तमनभवतेाऽयं वावायमेवानुभविताऽऽत्मा खलु नात्र शंसयः 
कायं दत्ययः। कोऽसावनुभवितेति प्रच्छति शयः कतमे भग- 
वा दतिः इति। यस्वयोक्त श्रात्मासकतमा मगवा दे भगवः 
देदेद्धियमनोबुद्धिप्राणानां मध्ये किमन्यतमः किं वा तदि- 
लक्तणेाऽन्य दति प्रश्नाः) तच सद्ातविलक्ण एवात्मेति 
गरर्त्तरः प्रतिजज्ञे दृत्याद श्रुतिः तं हावाचेतिः इति। 
दरतिशब्द एतिद्या्ऽनुवाकसमाद्ययं वा॥९॥ 

पवमयं वावात्मेति जागरितेऽनुभविता च्रा्मेति प्रद्‌ 
शितं, तेन च स्यलररीरादन्यवमुक्तं । ददानो छच्मस्य ग्रा 
णान्तःकरणएसङ्कातस्य द्रषटुलशङ्गापाकरणेन तता विविक्तमा- 
त्मानमुपदिश्ति च्रयय ° श्रत्मा इति। श्रय जाग्र 
डधगदेतुकमापरमानन्तरं खप्रभागेद्धवकाल्ते य एष विद 
त्रत्यच्त उच्छरासस्य उच्छासनिश्ासव्यापारवतः प्राणएस्याविष्टू- 
सेनानिरोघेनाद्खमुपरि, स्थूलाञ्रयं खन्समूद्धमुपरोति चेच्यते, 
तम्मह्युक्तान्तः स्थूलशरीौरामिमानं परित्यज्य इष्छश्रोरमभि- 
मन्यमान इत्यथं;। वययमानोा विविघधमयमानोा नानावासना- 
वाखितान्तःकरणएविकाराननभवंस्तत्तद्‌ात्मना विप्रखत दत्य- 


द्‌ःपिक्रासडिता। १५ 


भगवान्‌ मेचिः। इत्येवं द्याद। अथ य रष सम्पू 
सादऽसमाच्छरीरात्समुत्धाय परं ज्यातिरुपसम्यद्य 


~~ ~---------- -------- ------------~----~--~-------~-~----------------~ ----- -----~----~ ~~~ -~-~~--~---------.--~-~~-------- ~~~ 
= ~+ 


वभासमानोाऽपि परमार्थताऽव्यमानोा निश्चल एव संस्तमा 
मेदलक्षणं प्रणदति प्रेरयति, पञ्चात्‌ क्रमेण मादमाविशति 
जाग्रहष्टं नानुसन्धत्त इत्यथः । एष ्रात्मा यः खप्रे करणाना- 
मपरमाद्राद्यान्‌ विषयानननुभवन्‌ वासनामयांञ्यानुभवन्‌ प्रा- 
णेन स्थल ददं परिपालयन्नास्ते एष श्रात्मत्यथः। तथा च 
्त्यन्तरं “प्राणेन रचन्नवरं कुलायं बहिः कुरुयादण्टतश्वरि- 
त्वा। स दैयतेऽष्टता यत्र काम दिरण्मयः परुष एकरदंसः' 
(हहदा० श्र०्द६। त्रा) दति उक्रेःस्मिन्नात्मनि प्रत्ययदाच्छाय 
टद्धस्मतिमाद श्दूत्याद भगवान्‌ मेः दति मेचिर्मिंत्राया 
श्रपत्यग्टपिर्मचिर्मैचेयः । दत्त मये श्रतिः खम्‌खेनाद “इत्येवं 
या द'' दति। शाकायन्य दूत्या भगवान्म्ेचिरित्येवं हि राजानं 
प्रत्यादेत्ययः। येनादं ममेत्यनभिमन्यमानमिदं युं शरीर 
निव्योपारं पतति तदनुचयेन प्रकाशितं प्राणान्तःकरणद्पं 
लिङ्गं विषयविषय्याकारेण व्याप्रियते स च्रात्मा तवेल्युक्त, ददा- 
नोमेतस्यापि द्धच्मस्य यच तमेामात्रेण कारणात्मनि लया 
लोनप्रपञ्चख यत्छभाराऽवतिष्ठते स मुख्य श्रात्मा साच्ता- 
देव तमलत््ेति ग्दाणेत्याद च्रयय ० न्रद्योतिःः इति। श्रय 
सखभ्रदशंनकमंकच्ये सति पनजग्रन्निभित्तकभानद्धवे य एष 


१६९ मेन्धुपरनिषत्‌ | 


1 रूपेणा किर [ ^ ब्‌ (~ 
स्वन भनिष्यद्यता इत्येष श्रात्मति दावाचत- 
दग्तमभयमेतद्‌ ह्येति ॥ २॥ 


स्वप्नविषयसान्ो सम्पमादः सम्यक्‌ प्रसोदत्यचेति सम्प्रसादः 
सुपुत्निः, तदवस्थः चात्मरेद सम्प्रसाद्‌ उच्यते, स्यूलद्धक्मापाधि- 
दयविलापनेन तत्सम्यकजनितकालग्यविलयात्‌ सम्प्रसन्नः सुपुत्र 
यरुषोा भवति। स मम्य्रसादेारऽस्मात्पू्टहोताच्छरीराददद- 
यात्‌ सम॒त्थाय सम्यगत्थाय तरदिरखत्य तद्भिमानं परित्य- 
ज्येति यावत्‌। परं प्रविलोनप्रपञ्चकारणं ज्योतिः म्रकाशमाच- 
सखभावमपसम्पद्य तदेकात्मभावेन सम्पद्य स्वेनासाधारणेन 
खूपेणाभिनिष्यद्यते बोजावस्थामप्यभिग्डय खसरूपमुपगता 
भवति, एवं क्रमेण येन खरूपेणाभिनजिष्यद्यते, एष श्रात्मेति 
दावाच शाकायन्य इति श्ृतेवचनमिद्‌। एवंविधात्मखषूप- 
ज्ञाने सति ज्ञातव्यं नाव्शिय्यते कतेवयं वा प्राप्रव्यं वा कि- 
मपोत्याद -एतदणग्डतमभयमेतद्रद्धयति दावाचति सम्बन्धः| 
श्रस्टतमविनश्श्मत एवाभयमप्रकम्पमेतदेव ब्रह्म परिपूणंम- 
दयानन्द रूपमित्ययः ! श्रतस्वं जतकत्याऽसीत्यभिप्रायः। 
च्रस्यानृवाकस्यापरा व्याख्या । पूवानुवाकं श्रयं वाव खल्वात्मा त 
दति सामान्यताऽनिधारितविशेष श्रात्मोपदिष्टस्तदिशेषनगुत्छया 
यः कतम दूति ष्टे तं विशेषता वक प्रतिजज्ञे, तचात्मना नि- 
विभ्वखभावलादविशेषता निवेक्तमशक्यलादुपाध्याकार्‌जनित- 


दौ ९ कास शिता १९७ 


विशेषप्रविलापनेन निदिगरेषमात्मानं र्श्यितुमारभते “श्रय 
य एपाच्छरासाविष्टमनेनः'' दत्यादिना श्रय यदि विशेषमा- 
त्मनोऽवगन्तमिच्छसोत्यथः, तरिं ए्टण। यस्तुभ्यं मयोक्तं एष 
एव उर्क्ासाविषम्भमनन, ऊद्खग्यासा या मरणकाले भवति 
स उच्छ्रासस्तस्यासमन्तात्‌ विष्टम्मन विरोधः, ठन तन्निरोध 
रत्वा देदान्तःसच्चारिणं प्राणमाित्येत्ययंः । ऊद्धं दयात्‌ 
कण्ठं कण्ठा शिरःपयन्तमत्कान्ता विप्रटतः उपलक्षणमेतत्‌, 
अपश्ासमाविष्टभ्य ददयादधाऽष्यपक्रान्त श्रापाद्‌तनलमस्तक- 
मयःपिण्डमिव मन्तपन्नश्चिश्येतनतामापादयन व्याप्य वयव- 
सवित दरत्यथः। तचेवं स्थितस्तत्तदिद्धियद्ारकबृद्धिटतन्तिभि- 
व्ययमान विविधं शब्दादिविषयाकारेणायमानः प्रवरत्तमा- 
नम्तत्तद्विषयाकार वद्धि त्यष्यासेन द्रष्टा ओता मन्तेव्याद्ने- 
करूपतयात्मव्वदारमनभवन्निति यावत्‌। तथापि खरूपत- 
स्वव्ययमानाऽप्रचलितखभावः कूटस्य दृति यावत्‌। तमा 
विषयानभिव्यक्तिलच्णं प्रणदति श्रपसारयति विषयेषु खचेत- 
न्यकमापाद्‌ यंस्तषामन्नाततामपनयतोत्य्थैः। एवं सो व्यवद्दर्‌ - 
स्नेतद् दहमवष्टस्यास्त एष च्रात्मेत्यादि व्ाख्यातं। तथाच मन्त- 
वर्णः *सवाणि रूपाणि विचित्य धोरो नामानि छतराभिवदन्‌ 
यदास्ते दइति। एवं सोापाध्मात्मानमुपाधिद्रारोापलच्छतमेव 
पनरूपाधिविलापनेन निरूपाधिकं श्ुद्धूमात्मानमुपस्थाप्य तस्य 
्ह्मरूपत्वमुपदेष्ु प्रवत॑ते “यय एष सम्प्रसादः'' दत्यादिना। 
व्याख्यान समान ॥२॥ 


१८ मेव्यपनिषत्‌ 


पथ खल्वियं ब्रह्मविद्या सवापनिषदिद्या वा 
राजन्नस्माकं भगवता मेविणाऽऽस्यातादं ते कथयि. 
ष्यामीति। अथापहतपाप्नानस्तिग्मतेजसा ऊद्वरे- 
तसा वालिखिल्या इति खूयन्ते। अथ कतुं प्रजा 


एवं सङ्खुपत आरात्मतत्तमुपदिशन्‌ शाकायन्यः पनविस्त- 
रोण तस्यात्मनः खभावमपदेष्टकामः खाचाय॑दारा खस्धैत- 
द्िद्याप्राञ्चि दरशंयति । सङ्कपविस्तराभ्यां डि निरूष्यमा- 
णाऽ; सुखावबाधा दृटनिश्चयखापद्यत दत्यत आद श्रय 
खलु ° कथयिव्यामोति" दति । च्यश््द्‌ उतत्तरारम्भाथ॑ः। 
दे राजन्‌ हृदद्रय यदिदमात्मनच्वज्ञानं मया तुभ्यमक्तनि- 
यं खलं ब्रह्मविद्या सवंशाखेपनिधत््रतिपाद्या वा विद्या, वा- 
शब्द्चार्थ, सा चेयमेव नान्यारस्माकं भगवता मैकिणा गरुणा- 
ऽऽख्याता कथिता तामेवाह कथयिष्यामि, तेन मद्धयं यन प्रका- 
रणाक्तं तेनेव प्रकारेण मदद्‌ाख्यानेन निरूपयिव्यामीौत्ययंः। 
अयमाशयः सदह्ातविलत्तणस्तत्साच्यात्येव ब्रह्मेति यदिद्‌- 
मेतच्छाखाप्रवक्तर्भैतेरा चार्यस्य मतं तत्सवेशाखामम्मतं सवे 
ब्रह्मवित्‌सम्मतञ्च न पनम्ताकिकममयवत्परस्परविगोते, अते 
द्टविश्रासः कन्तेव्य इति। किं तत्‌ मदतां पवंटत्तमाख्यानं 
मेचिणाक्तमित्यसिमुखोभवन्तं शिष्य प्रत्याख्यायिकामाद “च 
यापदत ° श्रूयन्ते दति, श्रद्‌ानोमिदं प्ण कि अप- 


द्‌]्पकार्स्िता। १९ 


पतिमत्रूवन्‌ । भगवन्‌ शकार्टमिगाचेतनमिदं शरोर 
कस्यैष खल्वीदशेा महिमाऽतीन्दरियभूतस्य येनेतदि- 
धमेतचेतनवत्‌ प्रतिष्ठापित प्रचोदयिता वा खस्य यद्‌ 
भगवन्‌ वेत्सि तदस्माकं ब्रृहीति तान्‌ दावाचः 
ति॥३॥ 


दतपाप्मानत्तपानिधतकन्मषाः तिग््रतजसस्तोत्रतेजमाऽत्छज्जित- 
प्रमात्रा: तजसा दद्वविध एतच्छाखःग्द्धःतप्ाटग्कान्दमः स- 
वच । ऊरद्धुरतमेऽस््लितत्रह्मचयाः जतेन्दरिखा दलति यावत्‌) 
वालखिन्धा वालखिन्धभज्ज्ञा दत्यवंविधा खषयः श्रयन्ते 
ग्रुतिख्यतिपुराणव्वित्ययः । किं तत दव्यप्तायामाद “अघ 
करतु ° अन्रूवन्‌' दूति। अय कद्‌1चित्‌ त क्रतुनामानं प्रजापतिं 
गव्वाऽन्रवन्तक्रवन्त दृत्यथः । किमन्रवन्निति तदाद “भगवन्‌ ° 
देावाचतिः'दति। भगवन्‌ प्रजापते दरदं शरोर सावयवलाद्र- 
पादि मत्वा शकटमिवाऽन दवाचतनं जड,एवम्पि देतनार्व{दिव 
शकट विलत्तणएमनश्रयतेऽतः एच्छामा यनंतरद्िधमतच्छगोर 
चतन वत्प्रतिष्ठाप्तं स एष महिमा मादाय कस्य खल्वत- 
न्दरियभ्चतस्यादु श्यस्यागराद्यस्य मत ददश एतादृशः। का वास्य 
चेलयिरतेति प्रस्ना; । किञ्च प्रचादरयता दास्य शर)रस्य 
शाकटिक दव शकटस्य प्रेरयिता वा कोाऽस्ति। यद्‌ चत- 


{चटेत्लन प्रेरयदलनानुगते वेत्सि द भगवन्‌ तद्स्माकं त्रूरौ- 


0. 


५४ मेज्यपनिषत्‌ 


यो इ खलु वावापरिस्थः श्रुयते गुणेषिवे रेतसः 
सवा रुष शुद्धः पूतः शून्यः शन्ताऽप्राणेा निरात्मा 


ति ज्रन्रवन्निति पुतैणान्वयः। “तान्‌ हावाच'" दति शरुःतवचनं। 
तान्‌ प्रति प्रजापतिं उवाचाक्तवानुत्तरमित्यथंः॥द॥ 

“या ह ° वैषोाऽप्यस्टेति"? इति । ह स्पुरं । खलशरब्दा वा- 
क्यालद्काराथ॑ः। वावशब्दाऽवधारणे, य एवापरिस्यः स्वस्य 
प्रपञ्चस्यापरि निष्प्रपञ्च खरूपेऽवग्थितः। यद्धा वावणब्दा भिन्न 
क्रमः,या द खलु उपरिस्थित एव प्रपञ्चान्तरनगम्यमानाऽपि 
न तस्मिन्‌ स्थितः किन्त्वसङ्गतया प्रपञ्चातोते खसखख्ये स्थित 
एव सन्‌ स्वरेतन्याभासेन प्रपञ्चमवभासयंस्तत्र स्थित दूव 
भवति न वस्तुतस्तचास्ति, तस्य खात्मन्यध्यस्तस्य मिथ्यालादि- 
त्यभिप्रायः। तथा च श्रूयते टच इव स्तम्भा दिवि तिष्ठव्यकस्ते- 
नेदं पृण पुरुदेए स्वे" दति, भ्ुत्यन्तर दत्य यः । प्रपञ्चानुगत- 
स्यापि तद्धृमास्पृष्टुलन तत उपरस्य दृष्टान्तमाड “गुणय्वि- 
गाद्धरेतसः' दति । ययेाद्धरोतमा योगिना गणेषु विषयेषु वन्तं- 
माना चपि तचासङ्गितया तेभ्य ऊद्धा एव तथायमपोत्य्यः। 
श्रवा या इ खलु उपरिस्याऽग्यद्ततया सयित एव गुणषु गण- 
कायषु ददादिख्िव श्रूयत दति योजना) तथ्या चति: ध्यः 
सरवैषु श्रतेषु तिष्ठन्‌ सन्भ्या श्वतग्योऽन्तरा यं सवाणि शतानि 
न विदुयंस्य सदाणि व्लतानि शरीरं यः सवि श्रतान्यन्तरो 
यमयत्येष त ्रात्मा नयीम्यम्टतः'(छृदद्‌ा ०अ०५।त्रा०७) दृति, 


दौपिकासदहिता। २९ 


नन्ताऽकछ्षयः सिरः शश्चताऽजः सख तन्त्रः स्वे महिनि 
तिष्टत्यनेनदं शरीरं चेतनवत्‌ प्रतिष्ठापितं प्रचोद्‌- 


न ~ ~~~ -- ~ --~ ~~ = -------~ -----~=---- ~ ^= ------------------~-- 


ऊट्टुर त्ष इति सम्बोधनं । यत एवमसङ्म्बभापरोऽत एवम एष 
वे श्रद्धा रागादिकानलृष्यरद्ित् एत) पवयति पनातोति वा 
पृतः कन्तरि निष्ठा न कमणि, चआ्रात्मान्यस्य सवैस्यापि जडतया- 
ऽप्ररुचरात्मपावयिटठतानपपन्तेः। श्रन्या निष्पञ्चः। शान्ता 
जिविकारः कूटस्य दृत्यचः। च्रप्राणः प्राणदयीनः प्राणनादि- 
धमर्त इत्ययः । निरात्माऽचात्यति मन च्यते मनारद्ितः 
सद्धःल्पाध्यवसाखयादिघस॑रदित इत्यथः; श्रन्दे विनाश्रस्तद्र्‌ दि- 
ताऽनन्तः। श्रक्तथ्यः चेतुमशक्याऽपक्षयरद्दित इत्यथः! स्थिरा 
द्धिरदितः। शाग्यतः शद्धवः सवेदकर्पोा विपरिणामष्रन्य 
इत्यथः स्रजा जन्मरहित: सखतन्त्ा जन््ानन्तरभाव्यस्तिव- 
विकाररहितः । एवंविध श्रात्मा क्र तिष्ठतोत्यपक्षायामाद 
“खे मदिम्नि तिष्ठ ति?'दति। खखरूपं स्थिता नास्याघारोाऽस्तो- 
त्ययः। तथा च अरत्यन्तर “ख भगवः कस्मिन्‌ प्रतिष्टित दति। खे 
मद्िन्ि यदि वान मदिः (का०अ-ऽ खं-२४) दति। अन्या 
द्यन्यस्मिन प्रतिष्ठिता भवति, नास्यान्याऽखि चचायं प्रतिष्ठितः 
स्यात्‌, तस्मात्‌ खमदिष्येवावस्विता नान्याघधोनतयेत्यथः। च एष 
एस लक्षण श्रात्मा श्रननेद शरोर चेतनवचतन[{मिव प्रतिष्ठापिते 
च्वद्दारकालेऽबाधिततयः स्यापितं, च्रस्य शरोरादिसंघातस्य 
प्रचेरयिता प्ररक्श्च या वास्ति सोऽप्येष एव दति इावाचेति 


नर मेच्य पनिषत 


यिता वेषोाऽप्यस्येति। ते हा चभगवन्‌ कथमननेहश्ये- 
नानिषठनेतदिधमिदं चेतनवत्‌ प्रतिष्ठापितं प्रचाद्‌- 
यिता वेघोाऽस्य कथमिति तान्‌ होवाच ॥ ४॥ 

स वा रप खश््ोऽग्राद्याऽदश्यः पुरुषसंज्ाऽवि- 


~ ----.- --------- ~ =~-- = --- -------~--~~----~--~ ~~न" ~-~~---~~---~------------- ------- ~>, = 


सम्बन्धः) श्रचेतने दे दादा चेतविदतलनियन्तवाभ्यां तारशस्थ्येना- 
स्त्मोति प्रतिपन्नस्य जिज्ञासितस्य खरूपमेतत्‌ सवा एष दत्या- 
दि तिष्ठतौत्यन्तेनाभिदितं। एतच्ापदेशमात्रेणाक्तं य॒क्तिता 
व्यवम्धापयितु पनः प्रञ्ममत्यापयति “ते दाच: ° दावाच'' 
षति । दईदृश्रनाक्रलत्तणन सख मटह्िन्नि म्थितनेत्ययैः। अरत एवा- 
निन, निष्ठातात्पयं ममानन भाव्यमित्येवमाकारा प्रणतिः 
मा यस्य नास्ति माऽनिष्टस्तन । ददादावदम्ममतादतुप्रन्ये- 
नत्यर्थः। अनिषर्नति पाठटऽयमथः, दएटमिच्छा भाव निष्टा, 
नास्तोष्टं यस्य साऽनिष्टः दृच्छारहितस्तनेति। अण्िनिति पाठ 
तु सखन्बतरेण ट्‌ न्रेच्यण्त्यथेः । व्याख्यातायमन्यत्‌ ॥ ४ ॥ 
मत्यमवं{विधस्यात्मनः परमायतखेतयिटतं प्ररयद्तं वा 
न सम्भवति तयापि प्रफ्याद्‌ा रजतादिवत स्वात्मन्यध्यस्तस्या- 
न्यचाभावाद्‌धिष्टानपारतन््ात्‌ तद्धम्कमिवाच्तेतनमपि रेतन- 
{मिवानदधिषितम्प्यधिष्ठिर्तमिवावभासते शरोरदि न वस्ततः 
इत्यभिसन्धायाक्रं। खरूपमनुद्य तस्याविद्याकृतकायापाधिप्रवश- 
निमित्तसिदं घमंद्र्यामित्यत्तरमाद प्रजापति; सवा एष ° 


दीपिकासहइ्िता। २३ 


५ 


(9 >) ¢ => ¢ => = म अ । पि 
पुवमिदहंवावततःऽ शेनेति सुप्तस्यवावृद्धिपूवं विबाधा 
एवं'' दति सवे पृताक्त एष विद्रत्‌प्रत्यत्त आत्मा खन््ाऽ- 
विषयः अताऽयाद्यः कमेद्दरियागाचरोाऽदृश्यो ज्ञानद्द्रियागोा- 
चरा नापि मनोगाचरः, रप्राप्वं मनसा सद! दिशतः एत 
नानमानादिगाचरल्मपि निरस्तं उक्तलन्णःत्मखरूपव्यः- 
प्रलिङ्घादिसम्बन्धानिरूपणादता निरतिश्यमसय माल्ये सिद्ध- 
मत्ययः । यदि सवेप्रमाणागाचरः कथमस्य मद्भावस्तचाद 
८ ५ ठ (§ = न ~ £ 
पुरुषमंन्ञः' इति, पृषु शते द्ति वा एएमनेन सवेमिति 
वा पन्मेवास्ते दति का पुरुषः, अनतः पुरूषमंञ्जया प्रसिद्धः 
स्तःमिद्धमद्धाव दत्य्थः, तथाच अ्रतयः (सवा श्रयं परूषः 

५.9 ५.9 

¢ € न क ५ = ५ 
सवासु पषुं पुरिशयो नेतेन किञ्चनानादतं नैतेन किञ्चनासं- 
टतः दति । टत्त इव स्तम्भा दिवि तिष्ठत्यंकस्तनद्‌ प परुषेण 
९५, ८ € ~. ~ 4.9 
सर्व" दुरति "पूवमवादमिद्ासमिति तत्‌ पुरुषस्य पुरुषत्वं दृति 
च। स एवंविध श्रात्माऽमङ्गखभावाऽपवुद्धिपृवंममङ्न्यित- 
सवेदेव देहादिसङ्कात एव आवत्तते आसमन्ताद्‌ापाद्‌त- 
लमस्तकमदमित्यभिमन्यमाना वत्तंतेऽशन एकदेग्न संचा- 
ताविविक्रस्तदनगतः खचेतन्याभासाऽश दत्यद्यते न पननि- 

४ । ४ । 
रवयवस्य विभारात्मनः सखाभाविकाऽश एकदश्लत्तणः सम- 
वलि श्रतस्तनांगेनैवेदहावत्तते, दतिशब्दः प्रकारवचनः, ईदा 
[4 ६ 
वत॑त इत्यर्थः। खमायावेश्वशाचित्‌सद्‌ानन्दानन्तव्रह्मरूपतां 
सखाभाविकों विखत्यादं मनस्य दत्याद्यतदर्‌पमव्रात्मानमक्स्मात्‌ 


ॐ 
२४ मब्यपनिषत्‌ 


रवमिति। थ यो इ खलु वावेतस्य साऽशऽयं 


मन्यत दत्यस्मिन्नयं दृष्टान्तमाद ““सुप्नस्येवः' दति। दवग्रब्दा 
यथाशन्दायः। यथा सुप्तस्य सुपुत्तिमृुपगतस्य सता सम्य तद्‌ा 
सम्पन्ना भवति सखमपीता भवति तस्मादेनं स्व{पितोत्या चक्तते 
स्वं द्यपौीता भवति इति श्रत्यन्तर ब्रह्ममन्यत्तिदिं सुपुप्तावात्म- 
नेाऽधिगता, तया सुप्तस्य ययाऽवृद्धिपूवकमकस्माद्िवेधो विष- 
यविरेषद्‌शंनावमस्थापत्तिरेवमिद्ावत्तनमस्येति। दति स्थिति- 
रित्ययः। उक्तं निमित्तविगरेषमनूद्य प्र्रस्योत्तरमाद “श्रय 
यो दसन्‌ ° वेषाऽपयस्य'' दूति। रय एवं {च्यते सति या द 
खल वाव य एव एतस्यात्मनो यया बयाख्यातांऽशः साऽयं वि- 
श्चाख्य दति सम्बन्धः । कामे यञ्येतामातः चेतनामाचञित्‌- 
खभाव दति यावत्‌। प्रतिपरुषः प्रतिकिम्ब आदश द्व मृख- 
मप्पाच दव सखूयादिरन्तःकरणादो प्रतिफलितः, अत एव 
रेचनज्ञः चेवं शरीरं तददमस्मीति जानातीति केचन्ञः। त- 
याचोक्तं भगवता (गोता० ० २३) 
"दूद्‌ शरोर कान्तय त्तेवमित्यभिघोयते। 
एतद्यो वेत्ति त प्रानः सेचज्ञ दति तद्धिद्‌ः दति 

तस्य स्तेचन्ञत्रे लिङ्गमाद सदुःल्येति। सामान्यत इदमिति 
विषयसरूपमाचकन््पनं सद्भुःल्पः। श्रष्यवसायस्तच निख्यसरूपा 
टत्िः। अभिमानाऽदं ममेदमिति खस्वामिभावेाल्ञेखः। तथा च 
सदुः त्पाध्यवस!याभिमानेदेदविषयैर स्छस्मिन चेचनज्ञोाऽन्य इति 


दौीपिकामसह्हिता। २५ 


यश्चेतामाचः प्रतिपुरुषः छेचन्नः सङ्धल्पाध्यवसायामि- 
मानललिङ्गः प्रजापतिविंश्राख्यश्चतननेदं शरीर चतन- 
वत्‌ प्रति्टापितं प्रचाद्यिता वेषेाऽष्यस्येति। ते दाचु- 
भगवन्‌ यद्यनेनेद शेनानिषनैतददिधमिदं चेतनवत्‌ प्र- 
ति्टापितं प्रचादयिता वेषेाऽस्य कथमिति तान्‌ हेा- 


वाचेति ॥ ५॥ 

प्रजापतिर्वा रकेऽगेऽतिष्ठत्‌ स नारमतैकः से 
गम्यत इत्यथः एवम्भृता यः समष्टिदेदं विराडाखस्यमभिमन्यते 
व प्रजापतिन्रद्धया वैश्वानर दरति चास्यायत वेद्‌ान्तेषु।, यः 
यनः स एव ्ष्टिरोरमण्डजादि चतुविधमभिमन्यते स विश 
इत्याख्यायते । तेनेतंविधेन चेतनेन स्वानुप्रवेशमाचेणेदं शरोर 
चतनायक्रमिव प्रतिष्ठापितं प्रचेादयिता वाप्यन्तयामिर्हपेणेष 
एवास्येति सवम॒क्तमित्य्यः । नन्वमङ्गस्यात्मनः करूटम्धस्य कथं 
ए़रयेगसम्बन्धनिवन्धनं नेचन्ञतं कयं वास्य शरगेर चेतयिद- 
त्वेन प्ररयटतेन चावस्थितिरिलति विस्मयमापन्ना इव पुनः 
प्रच्छन्ति “ते दाचभंगवन्‌ ° दावाचेति' इति। व्याख्याता- 
याऽयं ग्न्धः॥५॥ 

नात विस्मयः काया यतः स्वयमेव खमायाशक्िमधिष्टाय 
निमाय चराचरं तचानप्रविष्ट दति सवापनिषत्सृदुव्यमाण- 
त्ादित्यभिप्रेत्य सवंशाखाप्रत्ययन्यायेन दोदरृष्िप्रकारं ताव- 
दाद “प्रजापतिर्वा ° अषटजतःः इति। प्रजापतिङ्दिरण्गभः, 


1८ 


र, 
र मन्युपनिषत्‌ | 


त्मानमभिध्यात्वा बह्लोः प्रजा चरूजत। ता अश्मेवा- 


0 


वे शब्द्‌ स्तस्य ॒श्राखान्तरोाक्रविशेषस्मारकः तथा हि मदेव 
सेग्येदमग्र श्रासोत्‌ः "तद्धेदं तच्य॑व्याकृतमासीत्‌' श्रात्मा वा 
इदमेक एवाग्र श्रासोत्‌" इत्यादिभ्रृतिषु जगतः प्रागवर्म्थां स- 
दात्मादिशब्दनिर्दिं्टपरमात्मामेदेनाल्ाय तता नामरूपान्यां 
ग्तसखल्मक्रमेण जगडाकरणं यते "तस्मादा एतस्मादात्मन 
श्राकाशः सम्भूतःः "तन्तजोाऽखजतः °तन्नामरूपाभ्धामेव व्याक्रि- 
यत' दृत्यादि । तथा चाकाशादिक्रमेण तन्मात्राणि त- 
खत्माणि खषा तेभ्यश्च तदवस्येभ्यः प्राणान्तःकरणकमज्ञान- 
द्ियप्रकारं लिङ्गमुत्पाद्य तदनुप्रविश्य हिरण्थगभसज्ज्ञां प्राष्य 
जोवरूपतामापन्नाऽनन्तर सखोापाधिश्रतश्रतसखल्माण्यपद्चोरता- 
नि पञ्चीलतानि सम्पाद्य तेभ्यो ब्रह्माण्डान्तं समष्टिव्यष्टिरूपं 
जगत्‌ र्ट तेष्वनुप्रविश्च पश्यञ्कण्वन्‌ मन्वानो विदरन्नचेतनं 
त्ेतयमानः सुरुतदुष्कुतकमाचरन्‌ तत्फले सुखदुःखे भु- 
चानः प्रेयप्रेरकभावमापद्यमानः ्तेचज्नः संसारो विज्ञा- 
नात्सा पुरुष दति च तच तत्र व्यपदिश्वते। एवं शाखान्त- 
राक्रविशेषं वेशब्देन स्मारयिता शरोर प्राजापत्यां प्राद, 
प्रजापतिर्वै सच्छन्दवाच्यादज्ञानशबलात्‌ प्रयममुत्पन्नः, एको 
ऽसङायः, श्रये चराचररूष्टेः पूवेमतिष्ठत्‌ आसोत्‌, तथा च 
श्रुत्यन्तरं “श्रात्मेवेदमय्र श्रासोत्‌ पुरुषविधः" दति। सणएकोा 
ऽसदहायल्वान्नारमत रमणं प्रतिविषं नप्राप। सात्मानं स 
प्रजापतिरात्मानं खमेवाभिष्यालाञ्दं बड़ स्यां प्रजाययेत्या- 


टौपिकासहिता। २७ 


प्रबुद्धा अप्राणाः सखाणरिव तिष्ठमाना अपश्चत्‌। स 
नारमत सोऽमन्यतेतासां प्रतिबोधनायाभ्यन्तर वि- 


भिम॒स्येनालाच्छ बङ्धीनानाप्रजाः देवतियद्यनव्यलचणण श्रष्ट- 
जत ्ष्टवान्‌ सुङ्कन्पमाचेणेवानेकरूपाऽमवदित्यर्थः । एवं ख- 
शिमक्ता ष्टेषु कायंख्वनु प्वेशप्रसङ्गमाद “ता अभ्व ° च्रप- 
श्यत्‌" इति । एवं ष्टाः ताः प्रजा श्रपश्यत्‌ दृष्टवान्‌, कौ- 
दुशं: रश्मेव पापाणएवद्चेतनाः, श्रप्रबुद्धाः बुद्धिरदिताः 
अन्तःकरणश्रएन्या इति यावत्‌। अप्राणा: प्राणएवजिंताः, श्रत 
एव स्थाणरिव काष्ठमिव तिष्ठमाना श्रवतिष्टमाना दरति। 
एतेन सङ्ातचेतनतावादशङ्का परित ततः किं कतवा- 
निति तदाद “स नारमत ° विविशामि" इति। स प्रजा- 
पतिरवेविधाः खष्ष्टाः प्रजा दृष्टा पनरपि नारमत नाप्रो- 
यत, तदा साऽरमणनिटत्ययममन्यत विचारितवान्‌ । कि, 
एतासां प्रतिनोधनाय प्रबृद्धूतामापाद्‌ यितु देतनतामापाद्‌- 
यितुमभ्यन्तरमभिताऽन्तरं सवे देदमापादतलमस्तकं विवि- 
ग्रामि विशेषेण विशामि प्रवेच्यामोत्यमन्यतत्ययेः। अच द्या- 
त्माऽभ्रिरिवायःपिण्डादिसमारूढोा विशेषतः परिस्फरति ना- 
न्येति देदेषु प्रवेश उच्यते न पुनस्तक्तेव ग्टदं कृत्वा तताऽन्यः 
संस्तच प्रविष्टः किन्त सखात्मानमेव म्रखिद्धमायाविवद्वहधा 
व्यद्य तत्तद दा दभेदेन विशेषता दर खाद मन्ुविनज्ना चादि भावेन 


प] 
२८ मन्यपनिषत। 


विश्णमि। स वायुरिवात्मानं छत्वाभ्यन्तरं प्राविशत्‌ । 
स रका नाशकत्‌ स पच्चधात्मानं विभज्याच्यते। यः 
प्राणऽपानः समान उदाना व्यान इति। अथायंय 
ऊर्मुत्करामत्येष वाव स प्राणाऽथ योऽयमवाडः सङ्का- 


<~ ~~ ~~~ ----- ~~ ~~ ~ 


विभावखत दति भावः। प्रवेशप्रकारमाद “स वायुः ° प्रावि- 
श्रत्‌" दति। स प्रजापतिरौश्चरः आत्मानं सरूपं वायुरित् 
कृत्वा वायुः प्राणः प्राणवायुमुपाधिं करदेस्तदद्धावमापनना वा- 
यरिषेत्युच्यते दत्य मभ्यन्तर प्राविशदित्यथः। तया च अरत्य- 
न्तरे ^तं प्रपदाभ्यां प्रापद्यत ब्र्येमं परुषं" दति प्राणख्पं त्र 
यो पक्रम्यान्नायते। एवमपि भस्तेव वायुना पृणा न व्यचेष्टत- 
यदा श्ररोर जाते तदा किं कछतवानोश्वरस्तद्‌ादइ “ख एकः ° 
उच्यते'' दति । एकरूपः सन नाशकत्‌, ददं विचालयितुं नाश- 
करोत्‌, स पुनरात्मानं पञ्चधा विभज्य क्रमान्यां क्रियाभेदं कुवन्‌ 
देदादिकं चालयन्नास्ते इति प्राणादिशब्देः स एवाच्यत 
दत्य्ीः। के ते प्राणादयो विभागाः किंलत्तणाः किंक- 
माणखखत्यपत्तायामाद “्यः प्राणः ° व्यान दृतिः" दति । इत्येते 
पञ्च निर्दिष्टाः श्रेषां लत्तणं क्रियाख दशयति च्थयायं ° 
उदानः"? । श्रथेषां मध्ये याऽयं वायुरद्ंमुत्कामति नाभेर 
भिरःप्यन्तमनच्चः क्रामति सञ्चरति मृखनासिकयेोरूपलग्य- 
मान एष वावसः सख एष एव प्राणः प्राणसज्ज्ञो वायभेद्‌ 


प्येपिकासह्िता | २६ 


मत्येष वाव सोऽपानोऽथ येन वा रता ्नुख्दीता इत्येष 
वाव स व्यानोऽथ योऽयं खविष्ा धातुरन्नस्यापाने प्रा- 
पयत्यणिष्ठा वाङ्गेऽङ्ग समानयत्येष वाव स समानसंन्ना 


द्त्ययंः। एवं विधक्रिया वत्वमेवास्य लचणमुक्तं वेदि तव्यं । एव- 
मत्तरच्रापि याजना। श्रय याऽयं वायविभरेषाऽवाङ्गाभेरधः 
पायुपयन्तं सद्कामति सञ्चरत्यंष वाव साऽपान दति पुठवद्यो- 
जना | उदट्‌शक्रमं परित्यज्य मध्ये यानं लक्तयति तस्य प्रा 
एपानसन्धितलेन तयारन्तरा नियतत्ात्‌। तथा च अत्यन्तर्‌ 
परथ यः प्राणपानयाः सिः स्व्यानः" दति। चरमताऽस्या- 
देशस्तु सवेशरीरचेष्टादिदेतुतेन सवप्राणव्यापकलादिति दर्‌ 
टव्े। श्रय येन वायुविशेषेण एता एता प्राणापाना च्रनु- 
ग्टदीता च्रनग्टदीत इत्येवं वतमान एष वावस व्यानसञ्ज्ञः। 
“अन्नमशितं तचेधा विधीयते तस्य यः स्थविष्ठा धातुस्तत्परौषं 
भवति या मध्यमस्तन्मांसं योऽणिष्ठस्तन्मनः" दृत्यादिश्रत्यन्तर्‌- 
प्रसिद्धिमारायाशितख जाटठराग्मिपक्तस्य स्यृल खच्मविभागवि- 
नियाजनकता समान इति व्यृत्पादयति। अय योऽयं प्रसि 
द्धा वायुविशरेषाऽन्नस्य सुक्रस्य स्थविष्ठः स्थुलतमा धातुरसार- 
भागः पुरौषास्यो योऽस्ति तमपाने प्रापयति श्रपानवायुम- 
छारग्यानं गमयति, तथाऽन्नसख चे वाम््रिष्ठाऽणतरो मध्य- 
मेति भागद्यमेकोरुत्यो चते, तच्च द्‌दमनःसितिरेतुमङ्ग 


५ मेन्युपनिषत्‌ | 


उत्तरं व्यानस्य रूपं चेतेषामन्तरा प्रहतिरेवादान- 
स्याथ योऽयं पीताशितमुद्गिरति निगिरतीति वेष वाव 


ऽङ्गे प्रत्यङ्गं शरीरस्य समानयति सम्यग्‌ श्रासमन्तान्नयति प्राप- 
यत्येष वाव स समानसज्ज्ञा सज्ज्ञ दत्यथंः। ममानव्ानयामध्ये 
उदानस्यदधगे कारणं खचयन्नदानस्याभिव्यक्तिखखानमाद 
उन्तरमिति। एतेषां प्राणापानसमानानामृत्तरमपरि ए- 
तेषां सम्यग्व्यापारानन्तर व्यानस्य रूपद्च व्यानव्यापारञ्चा- 
न्तरा मध्ये, प्रतिः प्रसवाऽभिव्यक्तिरेवादानस्य अन्तरेवेत्येव- 
कारोाऽभिन्नक्रमः) उक्त एव चान्वयः श्रयमथंः प्राणापा- 
नाभ्यामच्छरासनिग्ासाभ्धां धम्यमान दि जाठर ऽभ्िरन्नं भुक्तं 
पचति तत्‌ पाकनिदत्तञ्च समाना विभज्य समं नयति) 
एवमशितपोतयोः समं नोतयोाः सताः चुदुत्यद्यते पिपासा, 
तरोद्‌ान उद्भूतदटृत्तिरास्यगतं यत्कि्िन्निगिरति पित्तोाद्रेक- 
वशादेद्धिरति इदयादिगतं कप्ादिकं, तता ददे बलप्चा- 
द्याधानं व्यानवायोाः छृतं भवति। एवमुक्तप्रकारेण पूवेषां 
चतुणां वायव्यापाराणण ययावदनिटत्तो व्यानस्य सञ्चार 
चष्टवाभावादहे वलपटयादयोा न जायन्ते दत्येतदनुभवसिद्धुं 
ण्स्तसिद्ध ञ्च, ते युक्तोऽयं क्रमनिदेश दरति। अरय योाऽरं 
पोताभितं पोतश्चाग्तिञ्च पीताभितं तदुद्निरति ऊद्ध निः- 
सारयति, निगिरति वा नोचेभिरति तिरोद्घधातोति वा एष 


दरीपिकासद्दिता। दे 


स उदानः । अथोपांशुरन्तयःममभिभवत्यन्तयोम 
उपांशष्वेतयेरन्तरा देवेाण्ण्यं प्रासुवत्‌ यदेष्ण्यं स 
पुरुषोऽथ यः पुरुषः सोऽभिर्वज्रानरः । अन्यचाप्युक्त- 


== =: <:र -~- -- -------~- --------^~---- --~ ध 


वाव स उदान इति पृवेवत्‌। एवमात्मनः प्राणोापाधिकस् 
शरीरप्रवेशमक्रा तद्मापारेण च्याप्रियमाणः शरोर नियमयतो- 
्युक्रमिदानों जाठरान्नुपाधिकस्य शरोर चेतचिटलवं दशर॑यितु 
तदाभिव्यक्तं तावद्‌ “श्रयोपांग्टुः ° वेश्रानरः"' दति । श्रथे- 
तदुच्यते दृति, अरयण्ब्देाऽयोान्तरोापक्रमाथः) रस्ति कभकाण्डे 
उपा ब्ररगरद्यऽन्तयोामग्रदखेति द ग्रहा परस्परोापकायीपका- 
रकभावेन संखष्टावित्यास्नातं । यतः श्रयते श्राणापानोा वा 
उपां ख्नन्तयामै व्यान उरपांग्रमवनोा यदेते पात्रे एतं यावाण- 
माहतोयसवनान्नं जदयेतः, इति। तथान्यत्रापि श्रभ्चिद्‌ वता 
गायची कन्द उपांमओाः पाचमसि, सामा देवता चिष्ुपक्- 
न्दाऽन्तयामस्य पाचमसि' इति मन्लयारनयोारग्रोषोामदेवत्य- 
ताऽधिगम्यते, तै च प्राणापानात्मकलेनाध्यात्मशास्ते प्रसिद्धा, 
अरत दरापांखन्तयामणशब्दाभ्यां प्राणापान ग्द्येते। तया चा- 
यमथ: । यथापां ग्रएयदाऽन्तयामममिलच्य भवति अन्तयाम- 
गरदसखापांग्ररं तयेाश्ान्तरा सामः खयते तथाचापि शरीरं 
म्राखाऽपानमभिमवति श्रपानश्च प्राणमित्यन्यान्याभिकाङ्कया 
प्वतंमानयारुपां श्न्तयामेपमितयासचतयेः प्राणापानयोर्‌ न्त- 


३२ मेव्यपनिषत्‌ | 


मयमर्नरवैश्वानरा योऽयमन्तःपुरुषे येनेदमन्नं पच्यते 
यदिदमद्यते तस्थेष घोषो भवति यमेतत्कणावपिधाय 
शृणाति स यद्‌ात्कमिष्यन्‌ भवति नेनं घोषं खृणेाति। 


राऽन्तराले दवा दोातनखभावञ्चैतन्यात्मा श्रष्ष्यं उष्णस्भा- 
वमात्मानं प्रासुवत्‌ प्रसुतवान्‌ उष्णरूपेणाभिद्यक्त इत्ययः । 
देवष्णमिति सन्धिन्कान्दसः। यद्रा एतयोारन्तरं मध्यं मू 
लाघारदेशस्तस्मात्‌ प्राणापानाभ्यां पाञ्चगतान्यां घम्यमाना- 
देव न स्थानान्तरादिति यावत्‌ ज्राष्ण्य' प्रासुवदिति पूव 
वत्‌ । यदिदमेष््यः स परुषा जोवेा देदस्याद्विरूपेण धार- 
यिता, ऊश्मरूपात्मावम्याने हि जोवतोति प्रसिद्धः, तदपगमे 
च मरणप्रसिद्धः। तथा च श्रुत्यन्तरं “उष्णा जौविष्यन्‌ शोत 
मरिय्यन्‌' दति। अयेवं सति यः पुरूष च्रात्मा साऽभ्चिरग्रं न- 
यतीत्ययणणोरथिरुच्यते। अयं दि सवेधातुजातं पचन्नयं नयति 
अतेऽभचिः। वेख्ानर्‌ दूति चायम॒च्यते विशं सवे नरशनब्दाप- 
लकितं ददादिकं नयत्युत्तम्भयवतोति विश्वानरो विश्ानर एव 
वैश्वानर इति। एतदेव प॒रूषाग्न्यारोकलमिदाक्तं सिद्धूवक्कत्य 
शाखान्तर जाटरस्याग्रेरुपाखनम्‌क्तं तदिद प्रसङ्गादुपदिश्ति 
““श्रन्यचाप्यक्तं ° प्ररणोतिः' इति । अन्यत्र टरदारण्यकऽपी- 
त्यथः । अचमधिरवैश्ानरः पुरूषास्यो याऽयं प्रसिद्धऽन्तः पुरुषे 
रूषः शरीरं शरीरमध्ये । तत्सद्भावे कायलिङ्गकं प्रमाणमाद, 
यन पुरूषान्तःख्टेनेद्‌ वच्छमाणमन्नं पच्यते पानखाणुपलक्षण- 


दी{पकासट्डिता। ददे 


सवा रष पञ्चधात्मानं विसज्यं निहिता गुद्ययां । 


~. ~~ ~ = स 5 ---- -~ ~+ न~ ~= ~ न~ - ~ „~~~ ~~~ न 


मेतत्‌ किं तदन्नं तदाद यदिद्रमद्यरेऽविशेषेण सर्वैः मराणि- 
भिर्यदिदमेादनाद्यद्यते यद्वा पीयते तदन्नं पानञ्चेदं यन पच्यते 
परिपाकं नोयतेऽयमद्र्वैश्ानर दत्यन्रयः। तत्सद्धायेऽनमान- 
मक्ता म्रत्यत्चमप्याद तस्यति, तस्वाग्नेरेष प्रसिद्धो चाषः शब्दो 
भवति कोाऽसे यं चाषं, एतदिति क्रियाविशषणं एवं वणं यया 
स्यात्‌ तयेत्येतत्‌, कणावपिधायाच्छाद्य ण्टणाति संवा लाकः, 
एवमेष धाषोापलम्भा जाठरा प्रत्यत्तमित्ययंः, "तस्यैष ्रति- 
सतरेतत कणावपिग्रद्धय निनद मिव नद्यरिवाग्ये।रव ज्वलत उप- 

शा{ति' (कन्दा ०अ०२।ख०२र) दति कान्दाग्ये तस्वाग्मरवेत- 
च््रवएणमिति भाव्यकार्‌व्याख्यातलात्‌। जाटर्‌द्मवश्यानरात्मनोा 
घाषरूपेण श्रवणनिदं शप्रसङ्गनेदमपरमुच्यते पर्षाणां पार- 
लैकिकद्दितमाघनग्रटृत्तो सावधघानलाय, स पर्षा घाषश्चवणए- 
वान्‌ यद्‌ यस्मिन्‌ काले उत्करमिव्यन्‌ मरिय्यन्‌ भवति तदा 
एनं घोषं न प्रटुखाति, तद्श्रवएे श्रासन्नमर्‌णएतां ज्ञाता यत्‌ कर्‌- 
णयं मन्येत तत छुयादित्यभिप्रायः। एवं प्रासङ्गिकं परिसमाप्य 
प्रतमेवानुवन्तयित॒सक्ताथमनवद्ति “सवा ° गहायां" 
इति। सै एष यो वैश्वानरः पर्ष इति चाक्तः प्राणद्यात्म- 
ना पञ्चधात्मानं विभज्य गदायां, गृहति संदृणोति ज्ञानान- 
न्द्ाद्यतिश्यमिति गदा बुद्धिः, तस्यां निदितः खयमेव खा- 
त्मना निषक्त इत्यर्थः | विगरेषव्यवदारायान्तःकरणापाधि 


ए 


३8 मेव्युप्रनिषत्‌ | 


मनोमयः प्राणशरोरा भारूपः सत्यसङ्ल्य आ- 
काशत्मेति। स वा रषोऽस्माइदन्तरादकूताथा- 
ऽमन्यताथानस्नानोति ! अतः खानीमानि भिच्वा- 


भी 


प्राघ् इति तात्पयार्थः। तदेवमेाष्प्येन सखरूपेण प्राणणन्तः- 
करणभावमापन्नो विज्ञानात्मा चां यामवस्थामनुभवति तां 
करमेण वक्तमारभमाणा बुद्धततस्थाभासाविवेकात्‌ प्राप्तान्‌ 
व्यपदश्मेद्‌ांस्तावदाद “मनोमयः ° आ्राकाशात्यतिः" दति, 
मनमया मनःप्राया मनादृत्तिभेदेष्वशेषेषु विशेषत उपल- 
भ्यमानलात्‌। प्राणः शरौरमस्वेति प्राणशरीरः प्राणभेदैरोव 
व्याप्रियमाणलात्‌, अन्यया चिन्मात्रस्य कूटस्थम्य खता विश्ष- 
मानव्यापार्योारनुपपत्तेः। भाः चित्रकाश्ना सूपं खरूपमस्सेति 
भारूपः । सत्याः सद्धत्या चअरवग्घम्भाविनः पृूवरूतज्ञानकम- 
संस्कारभावताः मद्धःल्पा रस्यति सत्यसङ्कल्पः श्ाकाशव- 
द सङ्गाऽग्राद्य श्रात्मा खरूपमय्येत्याकाशात्मा। एवम्‌पाधि- 
धर्मः खधर्भेखाविविक्र च्रात्मा जीवभावमुपगत इत्यथः । तच्चोक्तं 
शेता तग पनिषदि चबुद्धेगणेनात्मगुणेन चैव श्राराग्रमाचाऽण- 
वराऽपि दृष्टः दति । च एवमविद्याकतापाधिमात्मलेनोापगतेा 
विषूतपरमानन्दनिजखभावः सोाऽङतङृत्य मात्मानं मेने इति 
तद्त्तान्तमाद “स वा ° ्रस्मानोति इति। सवाएषपू- 
वाक्ताऽकता याऽछतप्रयाजनः सन्नस्मादेतच्छरौरगताद्धदन्तरात 


दीःपकासः{इहता। २५ 


दितः पच्चभो रश्मिभिविषयाननि। इति बुद्धीन्द्रि 
याणि यानीमान्येतान्यस्य रश्मथः कमन्द्रियाखयस्य 
हया रथः प्ररीरं मना नियन्ता प्ररूतिमयेऽस्य प्रता- 
दाऽनेन खल्वीरितः परिममतीदं शरीरं चक्रमिव 


द यस्था नम्थादन्तःकरणाद्धेतुश्डतात्‌ श्रयान्‌ विपयानस्नानि 
भञ्ं अन्नानि व्याश्रवानोति वाऽमन्यत सद्धःन्त्ितवानित्ययः। 
ततः किं दन्तं तदाद “अतः ° वियानत्ति' इति। यत एव- 
गतः दमानि म्रसिद्धःनि भोषण््रानि खानि छिद्राणि चश्च 
नित्या विद्यादित उन्नता गवात्तेभ्य दूवासाकः प्राणान्तःकर- 
रोापायिः सन्‌ वच्यमासेः पञ्चभो रम्सिभिविषयान्‌ शब्दस्प्रशा- 
दोन्‌ अत्तिगुङ्गः व्याघ्रे तोत्यर्थः दद्‌ानोमस्य लाकसिद्धं विष- 
यानुभवप्रकारमनवद्न्‌ शरोराद्‌; रथादिकन्पनां विद्घानोा- 
ऽस्य विबयमेाचप्रात्धिमार्मयोः खातन्त्यं दशयति “दति बुद्धौ- 
न्ियाणि ° प्रैषोाऽप्यस्येति'" इति । दृोवं विषयान्‌ मुच्ानस्य 
यानीमानि प्रसिद्धानि वबुद्धोद्धियाणि श्रो चतक चत्त जिद्ा- 
च्राणाख्यानि तान्यस्य रथिनो दयरश्मयः प्रग्रदाः, कभ॑द्धि- 
याणि वाकपाणिपादपायृपम्यास्यान्यस्य दयाः रथयवादाः, 
शरीरमिदं स्यूलमेव रथः, मनः सद्ःल्पाद्यात्मकं नियन्ता 
नितरां चन्ता सारयिरित्यथः, प्रकूतिः सखभावः कमेज्ञान- 
वासना तन्मयस्तद्र पाऽ प्रतादः कशादिवादननोाद्न- 
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क ~ 


(र 
२६ मग्युपनिषत्‌ 


सत्यवेनेदं शरीरं चेतनवत्‌ प्रतिष्ठापितं प्रचोाद- 
यिता वे षाऽप्यस्येति ॥ ६ ॥ 
स॒ वा रष अआत्मेदाश्न्ति कवयः सितासितैः 


साघनं। कथमयं प्रताद इति तदुपपादयति ्रनेनेति, ्रनेन 
प्रकुतिमयेन खल निश्चितमीरितः प्रेरितः परिभ्रमति) किमि- 
द शरीरः रथः । तच दुटान्तमाद चक्रमिवेति, ग्दत्यवः कुला- 
लः तेनेरितं चक्रमिवेत्यथंः। इद शरीर मि्यादयुक्तायं ॥ & ॥ 

यदिदं खख्ष्टदे दाद्यनप्रवेशेनास्य संसारिलमक्तं तन्नायं 
खतः संसारधर्मवान्‌ किन्तूपाधिवशात्‌ तया भाति, तत उपा- 
घविविच्य तत्छरूपमन्वषणोयमात्मनः संसार्तभ्वमनितत- 
त्य इति दशयितुमुक्तं हेयस्तलरूपानवगमे तद्धानासम्भवा- 
दित्यभिप्रेव्य चअयमेवात्मा म॒ज्ञादिषोकावदेदादिसद्गाताददि- 
विच्यावधारणणेय दत्याद (सवा ° दत्यवसिता दतिः दति, 
यमित्यध्याद्ारः,यमथन्तिकमनोयतया जानन्ति कवया मेघधा- 
विनः परमप्रेमास्पदतया प्रत्यगुपण जानन्ति सतै स एवैष 
श्रात्मा न तु संसार्यवेत्यथः। ननु सुंसारिताया अ्याक्तवात्‌ 
कथंन संसारोति तचा सितासितेरिति। सितशब्देनाज्ज्वल- 
लचा विना स्पुदृणोयताच्यते, असितश्ब्देन मलिनवाचिना 
प्रतिकूलवेदनोयताच्यते, तथा च सितासितैः सुखदुःखे 
कर्मफलेरनभिग्डताऽसंसपष्ट दवश्ब्दाऽवधारणायः। प्रतिशब्दा 


दीपिकासशिता। - ३७ 


€ [3 
कमफलेरनमिभूत इव प्रति शरीरेषु चरत्यव्यक्तत्वात्‌ 
सोष्षम्याददश्यत्वादग्राद्यत्वान्निममत्वाचानवस्येऽसति 


व्यवद्धितक्रियथा सम्बध्यते कम्फलरनभिष्धत एव शरीरेषु 
प्रतिचरतोत्यन्वयः; प्रतिशरौरेषु सवेषु शरौरध्िति वा) 
यद्वा प्रति प्रातिल्लाम्येनाविषयवेन शरोरेषु चरतीत्ययंः। 
प्रता नायं सखरूपतः संसारो किन्त्लक्तकादिसन्निहिता 
लाहितात्मनव स्फटिकः सद्गातापाधिसन्िदिनः मसायत्मना 
मासत दति भावः । उक्तऽयंदटेतुमाद, च्रव्यक्तजादित्यादिना। 
व्यक्तं विषयरूपं दुश्यं देदाद्यनज्ञानप्यन्तं तद्धिपरोतवम- 
व्यक्रलं तस्मात्‌ । नदि मंसाय्यव्यक्ता भवति व्यक्तविकारानुब- 
न्धित्वात तस्य । अताऽव्यक्तलान्न संमारोत्यथः.। कुताऽव्यक्ततवं 
चिद्‌ात्यनाऽदमिति व्यक्ततयापलभ्वमानल्वादित्यत आद मेा- 
त्यादि ति । अनाघयातिश्यतं भद््यम॒च्ते, न डि चेतन्य- 
सख रू पेऽमृन्तऽन वयवे कदतिश्च आआधोयते आकाश दव का- 
रकैः । यत्त पनः कारकव्यापारापन्नाऽतिग्यस्तदयक्मिति 
प्रसिद्धं यथा घटादि निष्याद्यं प्रकाण्चं चेति, तस्मादस्य तदं 
लचण्यात्‌ सेद्धयादव्यक्रलःमतिभावः। तदूवाक्लणं सा- 
छ्य साधयति ्रदृश्यलादग्राद्यवाद्ेति। ज्ञानकमन्दियावि- 
षयत्ादित्य्थः । चतुधिधक्रियाफलविलकच्तएणत्रादिति भावः, 
देवन्तरमाद निर्ममलाचेति। चकारान्निरदङ्ःारत्मपि सम- 


३८ मेव्यपनिषत्‌ । 


कती ऽकार्तवावस्थः स वा रष शद्धः स्थिरो ऽचल- 
ालेप्या ऽव्यग्रो निस्पृहः प्रे्कवद्‌ वसितः स्वस्थश्च । 
चीयते । यचाहन्ता भवति तत्सं ममता भवति, असय तु 
सुखाद्युपलब्ध्यायतने शरोरेऽनुगतस्यापि तत्रादङ्गारममल- 
यारभावानन संसारितेत्य्यः। नन्ववस्याचयसम्बन्धिनः कथ- 
मदङ्ारममकारयेरभावस्तत्राद अनवस्थ दूति। अवस्था्रय- 
रहिते ऽवस्यासाक्चिवात्‌, न हि दृण्यधम द्रष्टयपरज्यत दत्य, 
श्रयवा नन शरीरेषु चरतः कथं तचादश्ममताऽभावः इति 
तचा दाऽनवस्थ दति । न विद्यतेऽवस्थाऽवस्यानं यस्य सोाऽनवस्थः। 
निरवयवस्छामृन्तादि लक्तणस्याव्याद्त्ताननु गतस न क्राप्य- 
वस्थितिरूपपद्यत दति भावः। नन धमाधमाग्धां शरौरा- 
दिकन्तेः कनममित्थमसंसारित्वं वर्ण्यत दृत्यत आरद रसतोति। 
श्रव्यारूतशब्दितमन्ञानमसदि त्युच्यते । अकर्तेवासत्यवस्याऽव- 
स्थितः करतत्यन्वयः, वस्तुताऽकर्तेव सन्नज्ञानावेशात्‌ कतं 
वावभासत दत्य; । एवमध्यारापापवादाग्यां विचायं निर्ण 
तमत्मनः सरूपं करपदिशलति सवा दत्यादिना। सवितरि 
दिकवान्धपरिकल्पितान्धकारवदज्ञानस्यापि वस्तुवाभावार्‌य- 
मात्मा श्ण्द्धा मिण्याज्ञानादण्ररद्धिसंसगरह्ितः सवस्यागमा- 
पायसाक्िलात स्थिरः श्रागमापायप्रटुन्यः व्यापकल्ाद्‌ चलः 
सखतः क्रियाग्रन्यः चकारादनन्यप्रेयऽपोत्यथेः। अतएवालेषेा 
घमाघमतत्फललेपानदः । न दक्रियाऽकन्ता कम॑तत्फलभागभ- 


दीपिकासद्िता। इर 


ऋतमुक्‌ गुणमयेन पटेनात्मानमन्तधायावस्िता 
दइत्यवस्थिता इति ॥ ७ ॥ 


दूति मत्युपनिषदि दितीयः प्रपाठकः ॥ 


वतोत्ययः । श्रखयोाऽसम्भृमा यता निस्पृहः परिपूणपरमा- 
नन्दरूपवात्‌, स्यदणीयाभावात्‌ स्पृद्धाभावे सत्यव्यय दरत्यथः \ 
अतएव प्रक्तकवदद्एसीन दवार्वम्यितः। कुचावम्थित दति तद्‌ 
सखस्य: खे खण्टयेऽवस्यिता नान्याघधार्‌ दृन्यथः। “स एवाघस्तात्‌ 
स उपरिष्टात्‌ म पञ्चात्‌ सपुरस्तात्‌ स्द्क्तिग्तः स उन्तरतः 
स एवेद सवे" (छान्दा०्अ०७) दति अत्यन्तरात्‌ । चकारः 
स॑ विशेपणसमुद्धया्थः। उपमंदरति -तसुगिति। एवेविध 
एवात्मा गणमयेन पटन चिगणणविद्यामयनावर णेनात्मानं 
नित्यग्णद्धलादिरूपमन्तधाय तमुगवस्यित इत्यन्वयः, कमे- 
पफलसमाक्ता मंसारोव भासमाना वतत इत्ययः \ इतिशब्दः 
प्रतिवचनसमास्चिद्यातनार्थः। श्रभ्यासाऽष्यायसमाष्ययंः ॥ ७ ॥ 


दति ओरोभैचीशाखेपनिषद्ीपिकायां दितोयः प्रपाठकः॥ 


(~| 
8० मव्यपनिषत 


ते हाचुभगवन्‌ यद्येवमस्यात्मनोा महिमानं खच- 
यसीत्यन्यो वा परः काऽयमात्मास्या याऽयं सितासितैः 
कार्मफलेरभिभूयमानः सद सद्यानिमापद्यता इत्यवा- 
+च्याद्धा वा गतिर्दन्दैरभिभूयमानः परिसमति॥ १॥ 


नित्यष्रएद्ध एवात्मा चिगणापाधिप्रविष्ट खतथुक्‌ संसारो- 
्युक्तमुपश्रत्येतद संभावयन्तेा वालखिल्याः पप्रक्रित्याद। ते 
दाच ° परिभ्रमति दति। ते वालखिल्याः ह किल ऊचुः, कि, 
हे भगवन्‌ यद्येवमस्यात्मना मददिमानं लं छचयसि नित्यण्णद्ध 
दत्यादिकं त््य॑व॑विधस्य चतमुक्कासम्भवादन्या वास्मात्‌ परा 
विलक्षणः वाशब्दः सम्भावनायां । तमेव म्रस्नपूवकं विशद- 
यति, क्ोऽयमात्माख्य इति) जोवास्य दत्ययः। याऽयं प्रसि- 
दधाऽदमसमीति सितादिकमफलेरमिग्ययमानः लिष्यमानः, 
सद्यानिर्राद्मणादियोनिः असद्यानिः ्रकरादियानिः ता- 
मापद्यते आरात्मलेनाभिपद्यते दत्येवंप्रकारेणावांच्या वाची 
ऊद्धा वा तत्तज्जन्य्रकमानुरूपा गतिः फलमप्राक्चियतेऽतो दन्दैः 
्नोताष्णमानापमानसुखद्‌ःखादिभिरभिश्रयमानः परिभरम- 
तोति प्रसिद्धं णस्ानभवसारिणएामित्ययः। च्रतएव कस्य वि- 
रुद्धघर्मसंमर्गविरोघादन्या वा कस्मात्‌ संसायात्मा न भवेदिति 


मन्याम इत्यभिप्रायः ।॥९॥ 


वि 


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न 


; ऋ १ , 
* ऋअवाङ्खखाद्धति मूले लिखितं। 


दौ (पक्षास(इता | ९ 


अस्ति खल्वन्येाऽपरेा भूतान्मास्ये योऽयं सितासितः 
कर्मफलेरभिभूयमानः सद सद्ानिमापद्यता इत्यवा- 
श्याद्धा वा गतिर्दन्देरभिभूयमानः परि्मतीत्यस्या- 


यद्येकस्य विर द्भधमसंसगेविरोाधाषटतमुगन्यः स्यादिति 
मन्यष्वे तद्य॑स्यन्य चछ तमुक संसारोये दन्देरभिग्टयतेदति तावद्‌ 
ग्य तेत्युत्तरमाह प्रजापतिः “श्रस्ति ° उपव्याख्यानंः दति। 
याऽयं सितासितेरित्यादि परिभ्रमतीत्यन्तेनाकः स नित्यष्रद- 
तलादिलकत्तणादात्मनोाऽपरोऽन्योाऽस्ति काऽ तात्मा गता- 
भेदंनेपलम्धमान दत्य्थः। कोऽयं शतात्येति तचादइ तस्याप- 
व्याख्यानं, तस्य भूतात्मनः स्मष्टव्याख्यानं प्रपञ्चनं, ष्टण 
तेति ओेषः। ““पञ्चतन्राा ° भ्तात््त्युक्तं"' दति । शब्दस्यशे- 
खूपरसगन्धाः खच्छाः पञ्चतन््ाचाख्याः श्रव्याकताख्छादविद्या- 
शवलितादात्मनः सकाशात्‌ क्रमेण जाता भ्तशब्देनापञ्चौरत- 
पञ्चमदाश्चतण्ब्दनोाच्यन्ते वेदान्तेषु । ्रयानन्तरमेतान्येव 
परस्यरान॒प्रवे्रेन पञ्चीकृतानि गुणगुणिभावेन परिणम्य म्थि- 
तानि पञ्चमदाश्रतानि ग्तशब्देनाच्यन्त दत्यथंः। श्रथैवं 
सुति तेषामुभयविधष्तानां यत्‌ समदयं यः समुदायः परि- 
णएामविगेषस्तच्छरौर मित्युक्तं वेदान्तेखिति योज्यं । प्राणेद्धि- 
यान्तःकरणसदितदखच्छण्यतंस्मदाया लिङ्गशरोर, पञ्चीतप- 
चमदाश्तसम्‌द्‌ायः स्थृलं शरीर मित्युक्मिति विभागः । एवं 


५, 


8२ मेव्यपनिषत्‌ 


पव्यास्यानं । पच्चतन्माचा भूतश्ब्द्‌ नोच्यन्ते सथ 
पथ्वमहाभूतानि भूतश्ब्दे नच्यन्तेऽथ तेषां यत्‌ समु- 
द्यं तत्‌ शरीरमित्युक्तमथ याइ खलु वाव शरीर 
इत्युक्तं स भूतात्मत्युक्तं। अथाग्टताऽस्यात्माऽदिन्दुरिव 


न्रतणब्दाथे सका्यमक्तात्मशन्दाथमादायेति। चअधचैवं सन्यन्न 
शरोरदयात्मना तजाते तस्मिञ्छरीरो या इ खल वाव य 
एव दस्पुटं खलु निश्चये वावाऽदं ममेति रयित्वेन व्यवदते तयुं 
पूवे स गतात्मेत्युक्तं वेदगन्तेच्ित्यथः। तथाच वेदान्ताः 'तस्म्मा- 
दा एतस्मादात्मन श्राकाशः सम्भूतः" इत्यादिना रष्टिम॒क्ता "तत्‌ 
ष्टा तदेवानुप्राविशत्‌ तदनुप्रविश्य सच त्यच्चाभवत्‌ ( तेन्ति° 
०) दत्यादिकाः। तया (तत्तजाऽखटजतः' इत्यादिना शत- 
खच्छख्ष्टं प्रक्रम्य सयं द्‌वतैचत इन्तादमिमास्तिसा देवता 
अनेन जोवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि तासां 
चिद्टतं चिदतमेकंकां करवाणि" (कान्दा° उ०च्रन्द्‌) दूति, 
तथयाशच्रात्मावा इदमेक एवाय ्रासीन्नान्यत्‌ किञ्चन मिषत्स रचत 
लोकानु खजा दति स दर्मां्षाकानदटजतः दृत्युपक्रम्य शेषे “स 
एतमेव सोमानं विदार्यैतया दारा प्रपद्यतः ( ठेत°उ० ) इति, 
एवं तच तच (स एष इह प्रविष्ट ्रानखागरेभ्यः, दत्यादि श्रतयः 
सन्ति शतशः, इदापिपुरस्ताद्‌तदुक्तं प्रजापतिवा एकोाऽगेऽति- 
छत इत्यारभ्य ख वायुरिवात्मानं छलाभ्यन्तरं प्रविशतः दति, 


दीयिकासह्िता। ४ 


पुष्करा इति स वा रषोाऽभिभृटः प्राकतेगु शेरिति। 
अथेःऽभिमूतत्वात्‌ सम्मृढत्वं प्रयातः सम्मूढत्वा द्‌ात्म॑स्थं 
प्रभं भगवन्तं कारयितारं नाणश्यद्णेषेरुद्यमानः 





एतदेव पनःस्पष्टोकरिव्यते। तथा च चिद्‌ात्मव ्तसहातमन्‌- 
गरविष श्ताभदन ग्््यमाण उपाधिप्रधानवाद्भूतात्मेति 
चिदात्मना भेदन व्यपदिश्यते चिदात्मा चापाधिग्या विविच्य 
देदान्तेस्वात्मा त्र्य चिन्माञं प्रज्ञानघन टत्यादिणशब्दैश्टंता- 
त्मना भेदेन व्यपदिश्यते तदेवमस्त्यस्येवात्मन ्रापाधिका भेद 
दरति मंसायसंमारिभेदव्यवद्दारोाऽनाद्यस्द्िनिवन्धन उपपद्यत 
दति प्रकरणायः। ददनों चिद्‌ात्मन एव श्तात्मलं 
चिदात्मखभावानपमरेनति व्युत्पादयति “च्रयाश्ताऽस्या- 
त्मा ° गणेरिति' दति। श्रथैवमपसख ग्दतान्मनाऽपग्डता- 
ऽविकारः कूटस्थ श्रात्मा खरूपं पष्करे पद्मपतरेऽद्िन्दुरिवनीौ- 
रबिन्दुरिव ततमद्धषरदिताऽपि सवे एष च्रात्मा प्रारते्गैः 
प्ररुतिविकारः साभासमायाविकाररूपटेददयलचणैरभिमा- 
नगरदोतेरभिग्रतस्तिरख्छतस्त्रभावावभास दत्यर्थः। यत एवं 
“च्रयाऽयि ° परिभ्रमति? दति। श्रया श्रतः कारणात्‌ 
सन्धिः छान्दसः, तदेवादामिग्डतलात्‌ प्राहृतेगणेरेकोगश्ठ- 


तलात्‌ स्ूढत्मत्यन्ताविवेकिलं प्रयातः प्रात्तवान्‌, तचेदं लि- 
५ 


88 मेव्युपनिषत | 


कलुषीकूतश्चास्थिरश्चश्चला खुप्यमानः सस्पहा व्यय 
आामिमानित्वं प्रयाता इत्यहं सा ममेदमित्येवं मन्ध- 
माना निवभ्रात्यात्मनात्मानं जालेनेव खचरः ङत- 


क्मच्यते सम्भृदलादेव देताभगवन्तं नापश्यदिति सम्बन्धः 
न पश्यतीत्येतत्‌। खतःसिद्धालप्तज्ञानैश्सादि शक्रिसम्पन्नत- 
येपलक्तितश्िदत्मा भगवान्‌ तं न पश्छतोति सम्मृढत्म- 
स्यावगम्यत इत्ययः । तस्य दूरस्यलाद्दशेनं नास्य सम्मृढला- 
दिति शङ्कां वारयत्यात्मस्यमिति खात्मनि सन्तास्पीन्तिरूपेण 
स्थितमित्ययेः । कथमयं खक्ख दत्यत आद प्रभुमिति, प्रक- 
दण भवत्यस्मादिति प्रमुश्वंतात्मन उपादानमधिष्टानञ्चेत्य्ंः, 
अतएव कारयितारं नियन्तारं, कारणाधोनं दि कायमिति 
न्यायात्‌, कारणएत्वादेव नियन्तेत्ययंः । तथाच युत्यन्तरं "एष 
दयेव साधु कमंकारयति तं यमेभ्यो लाक्य उन्निनौषत एष उ 
एवासाधु कमे कारयति तं यमधो निनोषत' ( कौषो०््ण्द्‌ ) 
दति। किच्च गकघेः प्रारुतिरकैदेदेन्दियविषयलक्षणेरद्यमान 
दतस्ततश्चाच्यमानः कलुषौरतख नानावासनाकषायरल्ितश्चे- 
त्यर्थः; अतएव वासनाभिः प्रेयमाणएतयाऽख्िरः कथञ्चिदत्प- 
द्यमानेऽपि विवेकविज्ञान स्थेयंदीनः ्रतञ्चञ्चलः प्भविषयेक- 
प्रटृत्तिनिष्ठारदित दत्यथंः। किञ्च ल्‌ष्यमानञ्चाञ्चल्यवशाद्धि- 
वेकज्ञानधमसश्चयेलंष्यमानोऽत एव सस्युदाऽप्रापतेऽशक्यसम्पा- 


दौगिकासह्डिति। ४५ 


स्यानुफलेरभिभूयमानः सदसद्योनिमापद्यता इत्य- 
वाञ्यद्धा वा गतिर्दन्देरभिभूयमानः परिमरमति। 
कतम रष इति तान्‌ दावाचेति॥ २॥ 


~ --~ ~~-----~~~~-~ ---~~-~---~---~~--~ ~~~ ----- ------- ~~ -- -- ˆ ---------------- ------~-- -------- ~~~ 


दयेऽपि स्पृहावान्‌ भ्रतणएव व्यया हीनः सुखभागक्तणमनलभमान- 
सेति यावत्‌ । सर्वस्यापि विगरेषणजातस्य मूलमिदमुच्ते। 
सरभिमानितवं प्रयात दइति। दति शब्द्‌ इत्यमयं। कथभित्ये 
तदा दादमिति । रदं मन्यः कत्ता भाक्ता, स्डद्ति ङ्दः, 
उश्ब्देःऽप्य्य, मेऽपि परोऽष्यस्ति मादृशा मम सिचं शचुरुदा- 
सोना वा, ददमिति देदबाद्धयं परिकल्प्य त ममति शाभना- 
ध्यासपुरःसरमात्मोयतयाभिमन्यते शयाद्प्राभनाध्यासान्न म- 
सेति च, एवं मन्यमानाऽभिमन्यमान आत्मना स्ेनेवात्मानं 
निवध्नाति। बन्धनमाचे दृष्टान्तमाद जालेनव खचर इति, 
पत्लोवेत्य्थः। यवा खचरः कोशकारो क्तकाटराकाभे 
चरणात्‌। म॒ यथात्मनेव कोशं छवा तेनात्मानं निबध्नाति 
तद्दित्यथः। एवे कुवन्‌ कतस्य कमणः प्रुभाग्ररुभलक्तणस्ा- 
नु पश्चादवश्वम्भाविफलैः युखदुःखेरभिष्डयमानः परवशो- 
क्रियमाणः यनः सद्खदयानिमापद्यता दूत्यादि व्याख्यात। 
प॒नरप्यस्य विशेषजिज्ञासया प्रच्छन्ति कतम एष इति'” दरति, 
उत्तरमत्खापयति “तान्‌ दावाचेतिः'द्ति॥२॥ 


( 
8 मन्यपनिषत्‌ 


अथान्यचाय्युक्तं यः कत्ता साऽयं वे भूतात्मा करणैः 
कारयितान्तःपुरूषः। अथ यथाभरिनाऽयस्पि्डा वाभि- 
भूतः कटठंभिरन्यमानो नानात्वसुपेत्येवं वाव खल्बसोा 
भूतात्मान्तःपुरुषेणाभिभूति गुणेहन्यमाने नानात्व- 
मु ति। चतुजालं चतुदशविधं चतुर शतिधा परि- 


~-----~---~ 


-----------~ -~-----~~~ -------~---"~---------~--- ~~~ - -~-----~ -----------------"- ------------------- 


भतात्मनखिदात्मनख वस्ता यद्यदस्ति कथं भ्रू- 
तात्मनि संसरति तदभिनरखिदात्मा न संसारो भवेदिति 
टो दृष्टान्तेन व्यवम्धामपपाद्‌यिग्यनुक्तावात्मानैौ पराग्ड- 
शति “श्रयान्यचाण्ुक्तं ° परुषः इति । अथेवमेवान्य- 
चापि शाखान्तरेऽप्यक्तं किं यः कन्तासिज्छरोरे सेाऽयं वै 
भ्टतात्मा यस्तु करकैः सन्निधिसत्तामानचेण सखप्रेरितेः करैः 
कारयिता सोऽन्तःपरुषञ्िद्‌ात््ेति, एतदन्यचाण्युक्रमित्यथः । 
अन्तःपरूषव्याप्तस्य ग्ड तात्मना नानालापन्तिं खदृष्टान्तामादा- 
न्तर पुरुषस्य सता मेद शङ्काव्यादत्तये शच्रय यथा° उपेति?" 
द्ति। श्रयेदमच्यते यथाञ्मिना प्रसिद्धनामिश्रता व्याप्रा- 
ऽयस्मिण्डा वा काष्ठादिपिण्डः सन्तप्तः कन्तभिलंादकारादि- 
भिरदन्यमानस्ताद्यमाना नानालं विष्छुलिङ्गभावनापेति ना- 
नारिच्छनेकधा विप्रता भवतीत्यथंः। एवं वाव एवमेवाक्तदु- 
छान्तवत्‌ खल्‌ श्रसो श्तात्माऽन्तःपरूषेणाभिग्धता व्याश गृणे- 
देदेद्धियान्तःकर रीगृणात्मकमायाकार्येहन्यमा ना ऽवच्छिद्मानोा 


दीपिकासहहिता। ९७ 


णतं भृतगणमेतददे नानात्वस्य रूपं। तानि इ वा 
रतानि गुणानि पुरुषेणेरितानि चक्रमिव खत्यवे- 
नेति। अथ यथाऽयस्पिण्डे हन्यमाने ना्निराभभ्‌- 


नन --- ~~ ~ -----------------~--~ ---~-----~-~~--~ -~ - ~~---~ 


नानात्मपेति तत्तद्रू तसक्घा तमेदन भिद्यत इत्ययः । नानाभा- 
वमेव वयति '“चतुजालं ° रूपंःः दूति। चत्वारि जालानि 
परिच्छेद कानि य्छिंस्तन्या । जरभ्यजाण्डजखेद जेद्धिन्न- 
रूपेख तु भिज लैर वच्छिन्नमित्यर्थः। चतुर्दशविधं श्ररादि- 
चतुर्दश्रमागस्थानप्रकारमित्यथः । पुनजंरायजादीनामवा- 
न्तरजातिभेदरन चतुरशोतिधा तावल्लवं तावताऽप्यधिक वा 
मेदेन परिएतमपचितमित्यथः । किं तत्‌ श्तगणं श्चतानां 
गणाऽस्मिम्तद्भूतगणं पञ्चमदाभ्वतसंदननं यद्‌ वंविधमेतदे ना- 
नात्वस्य भेदस्य रूपं सखरूपमित्यथः। उक्तस्य चरा चरलक्त- 
णस्य सखतखेतनल्वश् द्भ व्यावत्तयंखिदात्मनोाऽस्माद्धदः खचयति 
तानि दवा ° ब्टत्यवनेति' दति। तानि जरायुजादिभे- 
देन चतुविधानि ्रादिभेदन चतुदंश्विधानि च इ 
प्रे एतानि चतुरशोत्यादिप्रकाराणि गृष्छन्ते पनः एनरा- 
वतेन्त इति गुणानि पुरूषेणगन्तःस्थेनेरि तानि म्टत्यवेन कुलाले- 
नेरितं चक्रमिव भ्रमन्तीति शेषः| दृदानीं ऋतात्मानुगतस्या- 
पि विदात्मना शतात्मगतावस्थादाषसंस्पशाभावं दृष्टान्ते 
नोापपाद्यन्‌ संसारिलासंसारिवव्यवस्थामाद “श्रय यथा- 
यस्िण्ड ° संस्िष्टलादिति” इति । ्रभिग्यति अभिश्यतेन 


(= 
४८ म्य॒पनिषत्‌ 


यत्येवं नाभिभूयत्यसो पुरुषोऽमिभूयत्ययं भृतात्मोाप- 
संश्चि्टत्वादिति 1 ३॥ 

अथान्यचाप्युक्तं शरीरमिदं मेथुनादेवेद्गतं संद- 
पेतं निरयेऽथ मृचदारेण निष्कान्तमस्थिभिितं 
मांसेनानुलिप्तं चमंणावनङद्खं विणमृचपित्तकफमज्ना- 


खन्यत दूत्यर्थः । न द्चीष्ण्यप्रकाशसखभावस्वाग्नेः खताऽवस्यामरा 
वक्रवतुंलस्थृलदखच्छत्वादिल चणेाऽवस्यिण्डादयुपाधिपरामणशंमन्त - 
रेण निरूपणएपथमवतरति । एवमेवासे पुरूष आ्रान्तर िदा- 
त्मा नाभिग्रूयति नाभिग्धयते मूतात्मगतावस्थाभिभंद्‌ विपयी- 
सलक्तणेनं संस्पष्यते, अ्रत्राण्युपाधिपरामभमन्तरेण भेदविपया- 
सयोारनिरूपणात्‌, श्रयं तु भृतात्माऽयःपिण्डाभेद नाकारवन्त- 
या गटद्यमाणान्याभासवद्ूतसद्घातापसंशिष्टलात्‌ तद्‌ात्माभि- 
मानितयानुगतताद्‌ भिग्दयत्यभिण्धयते तद्‌वस्याभिरवखावान 
भवतीत्यथंः ॥ २॥ 

यस्मादेवं देदाभिमाननिबन्धनमात्मनः संसारिलं तस्मा- 
टेदस्वभावालोचनया देदाभिमानत्यागः कायौऽसंसारिला- 
येति विवक्षन्‌ देदस्य बोभत्सागाचरतामादइ च्रथान्यत्राष्युक्तं 
° ईव वसुना” दति। प्रथमं मेथुनादेवेद्ूतं बररक्रशेाणित- 
बिन्दुरूपं क्रमेण निरये निरयतुल्ये मातुरुदरे संटृद्धापेत- 
मङ्गप्रत्यङ्गकशनखलामप्रकारैः परिव्यढं, अरय नवमे दशमे 


रे परपाठकः।| दी पिकासत्हता। | ४९ 


मेदावसाभिरन्ये्ामयेर्बहभिः परिपूर्ण काश इव 
वसुना ॥ ४ ॥ .. 
अथान्यचाष्युक्तं सम्मद भयं पिषादा निद्रा तन्द्री 


वा तताऽप्यधिके वा मामे सति समूचदारेण येनिरन्धेण नि- 
क्रान्तमेवंविधमिदरं भ्ररीर प्रसिद्धुमित्यर्थः। श्रवनद्धं पिहितं 
अन्येशखामयैरूद र श्छलापस्मारादिभिबंभिगसद्यातेः.कोगे भा- 
ण्डागार, वसु घनं, प्रसिद्धायमन्यत। निरयरूपेऽस्मिन्‌ शरोर 
विवेकिनाभिमानोा न कायं इत्यभिप्रायः ॥४। 
एवं स्थूलशरौरे वैराग्याय तत्खभावमृक्ता खच्छेऽपि शरीरे 
वेराग्याय तत्खभावमुपन्यस्यति “श्रयान्खचाण्यक्तं सम्मद ° ता- 
मसानि'ः इति। स्ग्मादा विपयंयः। तनौ ्रालस्यं। प्रमादा 
ऽवग्यकतव्येव्ववघान प्रएून्यता । जरा दे दघम ऽप्यन्तःकरणेन जो- 
णाऽमित्यभिमानात्‌ तद्धूमान्तरनुक्रान्ता। कार्पण्यं छपणएतव 
सत्यं सम्पत्ता कदर्यता, 
“श्रात्मानं घमरुत्यन्च पृचदारांख पोडयन्‌। 
देवतातिथिष्छत्यांखस कदयंद्रति खतः) दृति 
रूतेा कद यंलक्तणमाक्तं, स एवेद कपणः, तस्य भावः कार्प- 
प्यमित्ययः । नास्तिक्यं श्रामृभ्रिकं श्रेयसि निरये वा नास्तोति 
बृद्धिवं दाद्यनाद्रश्च। श्रन्ञानमपेरितार्थास्पन्तिः। परद्चसददि- 


॥ १ 


ॐ 
५० मेन्युपनिषत्‌। [ ३ प्रपाठकः 


प्रमादो जरा शकः क्षत्‌ पिपिसा कापणयंक्राधा ना- 
स्तिक्वमन्नानं मात्सय नैःकारुण्यं मूढत्वं निर््रीडत्वं नि- 
राकतित्वमुद्धतत्वमसमत्वमिति तामसानि। सअन्त- 
स्तष्णा लेहा रागे लामा हिंसा रतिर्दिटिव्यातत्व- 
मीष्याौ ऽकाममस्धिरत्वं चलत्वं व्यय्त्वं जिगीपाऽथा- 


__ __.__~--- ~~ ~ - ---~~ ~ --- ~~~ ~~ -~ = = = 3 
--~------------------ ध ~ र ज ~~~ च 
~~~ --- -~--~ 


घल मात्सय । नैःकारूणयं नैष्ये \ मृटढलमविवेकिलं विवेकरा- 
दिव्यमिति यावत्‌। श्रता न मोदेन पोानरुत्च॑। निर््रीडलं ज्र 
कायकररेऽनपचपलं) निराङूतिलं अनवस्थितखभावलं । उद्भू 
तत्वं सादसेषु निःगशद्धःलं। श्रसमलवं विषमबद्धिलं। एतानि 
तामसानि तमेगृणाद्रकरतानीत्यरयैः । श्रन्यत्‌ प्रसिद्धाथं। 
राजसान्याद “्रन्तस्तष्णा ° आ्राप्नातीति' दति। श्रप्राप्येऽ- 
सऽभिलापेऽन्तस्तुष्णा । अतस्तुष्टति पाठ रतः परं राजसान्यु- 
च्यन्त दूति याज्यं। खेदः पुचदारादिपुममलाभिनिवेशः। रागः 
तेष्वासक्िरात्मलाभिमानः। लेभे लब्धेषु विषयेव्वलंबुद्यभावः । 
दिखा परपोडा । दिषटििषः। वयाद़तलं व्यादृताभिप्रायलं गृढा- 
{मिसन्धितेत्यथः। दैष्या निरथंकस्पद्धा। काम्यत इति कामः 
फलं तद्रदितं यथा सात्‌ तथाऽस्थिरलं चाञ्चछं, निरथक- 
प्रट्रत्तिमक््मित्यर्यः। यदा अ्रकाममाकामलं श्रा समन्तात्‌ 
कामवत्वमसम्पृणंकामलमित्यथः, अतएवाध्िरलमेकस्मिचिषये 
सेर्यर {दतं । चलत्वं चलवित्तलमगाम्भोयमिति यावत्‌, 


र प्रपाठकः|| टौपिकासदडितः। ५९ 


पाजनं मिचानुग्रहणं परि ग्रहावलम्बोाऽनिष्टेषिन्द्रिया- 
येष दिष्टिरिषटे्रभिषङ्गः शक्तस्वराऽन्रतमस्विति राज- 
सान्धेतेः परिपूर्ण रतरभिभूता इत्ययं भूतात्मा तस्मा- 
न्नानारूपाण्याप्रातीत्याप्रोतीति ॥ ५॥ 


दति मत्य पनिषदि तृतीयः प्रपारकरः। 





व्यग्रलं॒व्यसनिता ¦ धनगजिद्याद्भिः परान्‌ जेतुमिच्कछा जि- 
गोषा । श्र्थस्य पप्रधनच्तेचादेरूपाजंनं येन कनचनोापायेन 
सम्पादनं तदथं भित्राणामुपकारिणणमनुग्रदणं द्‌ानमान- 
सत्करारेरनुसरणं ¦ परिग्रदावलम्बोा ग्दःश्रमात्ादः। उन्तरं 
वाक्यदरयं स्थं । अभिष्वङ्गः प्रीत्यतिशयः । प्रक्तस्रोऽव्य- 
क्तस्व र स्तद् त्वमिति यावत्‌ । अरन्नतमा बदन: स्यात्याद्युदुगेना- 
नरदानपरत्वमित्यथंः। तुशब्दः पृवेक्तात्‌ तामसाद्ावच्छदायः। 
दृत्येवविघधानि राजसानोत्य्थः। एतैरित्यादिः स्पष्टायंः। 
यस्मादेवं तामेराजल्ैश्च धर्मैरभिवाप्रऽयं ग्रतात्मा तस्मात 
तदासनावासिततया पनः पननोनारूपाण्वाप्नो तोति । अन्यास 


प्रपाटकसमातिद्यातनार्थः।॥५॥ 


दति मेचोशाखेपनिषटहौपिकायां दतोयः प्रपाठकः । 


५२ मेन्युपनिषत । [९ प्रपाठकः । 


ते ह खलु वावोद्गरेतसेऽतिविसिता अभिसमेत्यो- 
चुभगवन्नमस्तेऽल्वनुशधि त्वमस्माकं गतिरन्या न 


--------~~------------“~ ~ -------------~-~ ~ - = ~ ---.-. 
--* = ------ ---*~-~~~------- -------+~ ~~~ 


पुव॑समिन प्रपाठके एकस्यैव चिदात्मने ग्धतात्मापाभ्यविते- 
कन संसारिलं तद्नतावस्थाभिरवग्थावक्ं नानालं चेत्येवमा- 
दिदाषमंसगा न खतः सखतस्तु निधंमंका नित्यशुद्ध एवेति 
प्रतिपादितं । तद्‌ तद्‌ वघा्चं ्तात्मभावापमर्दन प्द्धात्मख- 
भावावाष्युपाचं जिज्ञासव वालखिल्याः एच्छन्तोत्यास्ायि- 
कामेवानुसरन्तो श्रुतिभक्तमाघनं त्वज्ञानमन्तरङ्गवदिरङ्गसा- 
धनोयेतमुपदे्ँ प्रवतते। ज्ञातये दि विषये निधौरिते तच्द्याना- 
पायजिक्ञासावसर दूति सङ्गतिमभिप्रत्य तदथं गुरूपसत्तिं विद- 
धाति ते इखल्‌ ° न विद्यताद्रतिःःदति) दशब्दः एतिद्याथः 
खलशब्दा वाक्यालद्कारा्थः। वावशन्दाऽवधारणा्यः। ऊर्धं 
रोतसः पुवाक्ता वालखिखा षयः । ते इ विस्मिताः, अ्रवधा- 
रणस्याचान्वयः, किमिद मह्ुतमिव नित्यण्द्धखिदात्माऽसमतत्य- 
गात्मा सन्नपि परोाच्त दरव प्ुद्धाऽप्यश्द्ध दव,चअक्रियोाऽपि सक्रिय 
दवेति विस्मिता एव सन्तः प्रजापतिं, गरूमित्यध्यादहारः, ्रभि- 
समेत्याभिमुखेन सम्यम्विधिपूवंकमेत्य ऊ चर्क्तवन्तः। दे मग- 
वन्‌ ते भ्यं नमे नमनमिद्‌मस्हु लमनशाधि शनैः भिक्तय ञ्च 
स्माकमस्मानित्यथः ¦ अथयवास्मानिति पदमभ्यादर्तसयं। अन्यान्‌ 
प्राययष्वमिति चेन्नैवं वाच्यमित्यभिप्रव्योचरस्माकं लच्छिष्याणं 


£ प्रपाठकः दीपिकासशिता। ध 


विद्यता इति। अस्य का विधिभेतात्मने येनेदं हि- 

त्वात्मन्नेव सायेाज्यमुपेति तान्‌ इावाचेति॥ १। 
अथान्यचाणएक्तं महानदौीषूमय इवानिवर्तक- 

-मस्य यत्पुराङूतं समुद्रवेलेव दुर्निवार्यमस्य श्त्यो- 


गलिमन्तव्यं स्थानं श्रन्या लदन्या न विद्यतेऽतस्वामेव प्च्छाम 
द्यैः । यद्‌ थमुपसन्नाः तमर्थे एच्छन्तोत्या द“श्रस्य के विधिः 
° देावाचति'” इति। शरस्य प्रत्यच्तानभवसिद्धूख श्छतःत्मना 
भृतसद्घातमात्य्लेनापगतस् का विधिविधानं कः प्रकारो येन 
विधिना उपायभतेनदं भूतत्मलं दिला विदाय च्रात्मन्ना- 
त्मनि चिदानन्दसल्छसू्प एद पृणात्मनि सायज्यं सायुज्यं 
सयुरभावं भूतात्मलविलापनेनापेति निरस्तोपाधितया ख- 
सखस्ट्पेऽवतिष्टेत स का विधिस्तं विधिं ने ब्रूदील्युक्तवन्त दत्यथः। 
तान्‌ दावाचल्युक्ताथः॥९॥ 

एवं षष्टः प्रजापतिः प्रथमं वैराग्यद्‌ाक्छाय भूतात्मनः 
खरूपम्‌पन्यस्यतति यस्मिनासक्तः संधिदात्मा खं रूपं परमं पदं 
न जानाति तदिदं विचिन्तां तावदिति। शच्रयान्यचा ° 
परं पदं" इति। च्रस्य श्टतात्मना यत्‌ परा छतं तद- 
निवत॑कमित्यचयः । नास्ति निवतकम्येत्यनिवतेकं । पुरा- 
रुतं प॒ण्णापण्यरूपं कम॑ मरानदीषूमय इव पुनः पुनर- 
विच्छरेन जायमानं यता भागेन क्ौयमाणमपि पनः पनः 


श | 
५8 म॑न्य॒पनिषत्‌ | | # प्रपाठकः 


रागमनं सदसत्फलमयंः पाशेः पङ्गरिव ब्ग बन्ध- 
नस्थस्ये वास्वातन्त्यं यमविषयस्थस्येव बहभयावस्छं 
मदिरान्मत्त इव माहमदिरेान्मत्तं पाप्रना रहीत 





पमां क्रियमाणलान्नोद्तत, चरता ब्रह्मात्मज्ञामादन्यता नि- 
वर्तक मस्य नास्तीत्यर्थः । तथा च श्रतो “स दौीदमननं पनः 
पनजनयते स हीदमन्नं धिया धिया जनयते कमभियद्ोतन्न 
कुयात्‌ सोयत दः इति “भिद्यते द यय्रन्थिः नान्यः पन्था 
विद्यतेऽयनाय इतिच) सत्कमं वाऽऽत्मन्नानं वा सम्पादया- 
त्तरे वयसि कमंक्तयं करिव्यामीत्याशा न कायत्याद समूद्रेति। 
अस भ्रतात्मना श्ल्योरागमनं मरणप्रा्षिः समूद्रस्छात्सपता 
वेलेव वेलाधावनमिव, अनिच्छतोऽपि दुनिवायंमस्य श्डत्योराग- 
म नमित्य्थः । यावज्जीवति तावत्यपि काले नेच्छया पुरुषा यसा - 
धनक्तममित्याद मद्सदिति। तन्तत्कमापद्‌ गितानेकसुखद्‌:ःख- 
मागवासनामयैः पाशैवद्धं निगडित सत्‌ पङ्रिव गमने सत्सा- 
` घनप्रद्न्तावत्तममित्ययंः। तच देतुमाद, यता बन्यनस्थसय बध्य- 
तेऽस्मिन्निति बन्धनं बन्धनागारं तन््यस्येवा खा तन्त्यमस्य भव- 
त्यतः पंगरिवाकिञचचित्करं श्रतात्मखरूपमित्यथः। अ्रताऽच वि- 
शारो न कायं दत्यघः। दताऽपिन विश्वासः कायः, यता यमस्य 
दण्डयितु विषय गाचरऽवसखितस्य यथा बडविधं भयं तया 


8 प्रपाठकः || दौपिकासह्दिता। ५१ 


इव माम्धमाशं महारगदष्ट इव विषयदष्टं मदा- 
न्धकारसिव रागान्धमिन््रजालमिव मायामयं खप्र 
द्रव मिथ्यादश्ेनं कद्लोगभ इवासारं नट इव श्षण- 
वेषं चिचभित्तिरिव मिथ्यामनारममित्यथोक्त। शब्द्‌ 





बङभयाविष्टा अवस्था यस्य तत्तराक्तं सर्वस्मादपि श्रङ््ितभ- 
यमित्यथः। गतरक्षातमभिमन्यमानस्य विवेको्माऽपि दुलभ 
दत्याद मदिरेति। मेद्ाऽविवेकः स्तव्यता, पाप्मना पाप- 
गरेण ग्टदोत दव भ्राम्यमाणं सदैवावगमित्यर्थः। यदा 
गदग्टदीत दव पाप्मना पापेन अ्राम्यगाणमिति सोाजना। 
विषयदष्टं वासनारूपेण दिषयेरा विषटमित्यर्थः । मदानन्धकारोा 
य्मिस्तत्‌ महान्धकार निशोरं तद्धद्रागोा विषयासक्िः सा- 
ऽन्धकार दव दिताहितप्राश्चिपरिदारोपायावरणं तेनान्ध- 
मादटतमित्ययः \ इद्‌ानीमस्िन्‌ सत््वबृद्धिरपि न कार्यत्या 
दन्द्रजालमिवेति। मायाविनिमितदस्यादिवद्‌ दृषटनष्टखरूपता- 
न्मायामयमित्ययः । तत्वज्ञानबाध्यवाद्पि नास्मिन्‌ सत्चम- 
वयेयमित्याद खभ्र दवेति। मिथादशनं बाध्यद श्नमित्यर्थः। 
विमतं बाध्यज्ञानप्रतिभासं कादाचित्कत्वात्‌ खभ्नदृष्टवदित्यन्‌- 
मानमुक्तं भवति। कदलोगभस्तदन्तःश्लाका तददिदमसार 
चरच्यपघातमप्यसद्मानमित्यथेः प्रतिक्तणपरिणणमादष्य- 


५१ मेव्य॒पनिषत्‌ | [ 8 प्रपाठकः | 


स्यशदयो च्यथो मर्व्येऽनथा इवाख्िताः। येषां सक्तस्त 
भूतात्मा न सरत पर पद्‌॥ २॥ 


विश्वास्यमित्याद नर दवेति। यद्धा नानाजात्यभिव्यन्ल- 
कक्रमभाव्यनेकाकारपरियदान्नट दव दुखच्यमित्यथंः। श्र 
सिन्‌ सेकुमायसेन्दयादिवृद्धिरपि न कार्यत्याद विति, 
मांसशारितादिभिबींभल्छितिलान्न मनोारममित्यर्थः । तदुक्त 
मनना (अर ६।स्ञा०७६।७७)। 

“शअख्धिस्धूणं सायुबद्धं मांखशाणितलेपनं । 

चमावनद्भं दुगन्धि पूणं मूचपुरोषयोः॥ 

जरागाकसमाविष्टं रोगायतनमातुरं 

रजसखलमसननिष्टं उतावालमिमं त्यजेत्‌ ॥ दूति, 

इत्यथ एवमकेऽथ, उक्तं स्ाकरूपं वचनमिति शेषः। 

शन्दस्णशादयोा दि विषया अन्या श्रपि मर्त्यं मरणधर्मि 
ग्रतात्मन्यथा इव स्पुदणीया दवास्यिताः अ्रङ्गोरुताः न वेते 
स्पृदणणेया इति योाजना। कुत दृत्यत श्राह, तात्मा 
येषां सक्ता येष्वासक्तस्तु परमं पद्‌ वैष्णवं घामन समरेत नान॒स- 
न्दधोतेव्यथः। एवेपिधे श्तात्मनः खरूपं ब्रह्मादि सम्बप- 
यन्तं समालाच्य तस्िन्नभिमानस्ान्यः अ्याऽयिनेत्यभि- 
प्रायः॥ २ ॥ 


8 प्रपाठकः || दीिकास्डितिा। ५९ 


रयं वाव खल्वस्य प्रतिविधिभतात्मना यद्द्‌ वि- 
द्याधिगमः स्धमस्यानुचरणं स्वाश्रमेषेवानुकमशं 


तदेवं वैराग्याय श्छतात्मनः खरूपमपव्यैदानोमख त्या- 
गेापायं ष्टमुण्दिशति “श्रयं ° निवतता दूति" दति। चरस्य 
न्तात्मनेाऽयं वाव श्रयमेव खलु प्रतित्रिधिः प्रतिविधानं प्रति- 
क्रिया शतात्मलप्रदाणेापायः) कोाऽयं। चद्‌ याऽयं वेदविद्या 
धिगमः, वेदद्ारा विद्याया श्रात्मतत्तविषरखया श्रधघिगमः 
सम्यक्‌ प्रा्भिरित्ययंः। कथं विद्याधिगना क्दादित्यपेत्तायां 
विविदिषन्ति यज्ञोनेत्यादिश्चत्यन्तरविजियागानुराघेन खव- 
णाश्रमविह्ितघमानुष्टानप्रभावकलखान्तप्रुद्धिं विना न ज्ञा- 
नाधिगम दत्यभिप्रायेणाद बह्दिरङ्गानि कमाणि विदधाति 
सखधम्स्येत्यादिना। खा धमः खधमंः श्रावण्वकं कमं तस्यानु- 
चरणमनुक्रमेणानष्ठानं, एतदेव स्पष्टयति सखाश्नमेव्ववेति । यस्य 
वस्य यावन्त श्राश्रमा विहितास्तेव्वायरमेव्वव विहितानां क- 
मणां तेन तेन वर्णेनानुक्रमणमनुष्टानमिति यदेतरद प्रसिद्धं 
सधर्मस्य व्रतं निष्ठा, अपराणि काम्यादोनि कमाणि स्तम्बभा- 
खेव दणशलाकेव दूढानोत्ययः। एनदुक्तं भवति येन यच्छक्यं 
कतुं तन्न तस्य दितसाधनं किन्त यस्य वणेस्य य[स्रिनाश्रमे 
या धमो विदितः स तस्य इितसाधनं तेन सेाऽनष्ेयः, का- 

4 श व 

म्यादि तु मुमक्णा देयमिति । अननोक्तप्राकारसखघमन्‌ष्ठानेन्‌ 


५८ मन्युपनिषत्‌ | | % प्रपाठकः; 


स्वधमस्य वा रतद्रतं स्तम्बशाखेवापराणखनेनाङ़भा- 
ग्म वत्यन्यथाऽवाङिि्त्येष स्वधमाऽभिहिता ये वेदेषुन 
स्धमातिक्रमेणश्रमी भवत्याश्रमेष्ठवानवसयस्तपस्वी 


ऊद्धभाक्‌, संसारमण्डलादुपरि यद्संसारि ब्रह्म तदृ्धंम॒च्यते। 
"ऊद्धमूलेा च्रवाङ्गशाख एषेाऽखत्यः सनातनः । तदेव शक्रं तद्र 
ह्य तदेवाग्टतम्‌च्यते। तस्सिंज्ञोकाः धिता; स्वं तदु नात्येति 
कञ्चन" (कठेा*६) इति गुत्यन्तरात्‌। तदूद्ध ब्रह्म भजत इल्यूदध- 
भाक्‌ ब्रह्मज्ञानवान्‌ भवतोत्यथः। अन्यया खधमातिक्रमणे 
काम्बकमनिष्ठायां वाऽवाङ्न्त्यिघोा नरकादिख्धानमवाचोनाने- 
कानित्यपुरूषाथं वा भजेतेव्ययः, संमारमण्डलान्न व्यावर्तत 
दत्यभिप्रायः) उपसंहरति एष खघमा या वेदस्वभिदिता 
वणाश्रमनिवन्धना न काम्यादि खधमं इत्यथः यद्यपि का- 
म्याद्यपि कमं कामिनः खाभिलपितसाघनलात्‌ खा धमा 
भवति तथापिनतत्‌ खूपाविभावदेतुरितिन मुख्यं तस्य खध- 
म॑लं। खवणाश्रममाचाधिकारकस्तु घमखित्तग्रद्यादिपरम्परया 
खसखरूपाविभावदेतुरिति मुख्य इति भावः। उक्तमेवाथे व्य 
तिरकम्‌खेन द्रढयति, न खधमातिक्रमेणाश्रमी भवति। के- 
वलं तत्तद्‌ाअ्रमलिङ्गघारणमाचाद्‌ाश्रमौ भवति, तस्य खर्‌ 
पतेाऽपुरुषाथेलात्‌ पृरुषाथीादेदुवादेति भावः । नन किमि- 


€ प्रपाठकः ।| दीपिकासह्िता। १६ 


वेत्युच्यता इत्येतद्‌ युक्तं न तपस्कस्यात्मन्नानेऽधिगमः 
करमसिदिर्वत्येवं चाद तपसा प्राप्यते सत्वं सत्वात्‌ स- 


---~-- ~~ --------~~ 
~~~ ------~--¬ =-= 


त्येवमाश्रमधम॑व्वलतियन्नः क्रियत नपसेव ब्रह्मविदयेदयसम्भवात्‌ 
तपसा विन्दते मदिति वचनादिति चेत्‌, सत्यं, तदथाञ्र- 
मघमाबिरेष्येव साधनं न तददिरुद्धम्पोत्याश्येनाद श्राखमे- 
व्वरवेति । श्रा्रमव्वनवस्थ एवानाश्रमसख एव तपसो वा धा- 
भिक वत्या युच्यते यत्‌ तद्‌ तद्‌ युक्तमिति याजना । ननु तदि 
तत्र तचात्मज्ञानसाघधनषु (तपसा ब्रह्म विजिश्चासख' दत्यादि 
तपा विधानमनर्थकं, सखधमनष्टानादेवात्मज्ञानसिद्धेरित्याश- 
यामा नातपस्कस्येति। अ्रतपस्कस्य वैधकायशाषणरदि- 
तस्याक्माज्ञाने नाधिगमोा नाधिगमनं श्रात्मन्नानं न प्राप्रातो- 
त्यर्शः। न केवलमेतावत्‌ किन्त्‌ कमसिद्भिवा कमफललाभो वा 
तस्य न स्यादित्यथः \ श्रस्िन्नयं सम्मतिमिवद्योकमुद्‌ादरति, एवं 
द्यारेति । तपसा खधमाचरणेन तद्‌ विरो धिवेष्ण वादि निष्का- 
मन्रतविऱेषाचरणएलच्एेन च सत्वं सत्व गृण प्रधानं चित्तं भ्रा- 
ते, विग्रद्ध सत्ता लभ्यत इत्ययः । तस्मात्‌ सत्वान्मनः सम्परा- 
प्यते, मनतेऽनेनेति मना विकविनज्ञानं, तस्मान्मनसा मन- 
नादात्मा पृषे तलं परं ब्रह्म दि निचितं प्राणते । श्रात्मत्ल- 
साक्तात्कार एवात्मप्रा्तिनान्या तस्यात्षिनित्याऽऽप्तखरूपलात्‌, 


अत श्रात्मसाच्तात्कारो भवतीत्यथः। काऽयमात्मेत्यत श्रा 
1५ 


० मेन्युपनिषत | [ ४ प्रपाठकः | 


म्याप्यते मनः। मनसः प्राप्यते यात्मा यमाघ्रा न निच- 
तता इति ॥ ३॥ 


स्ति ब्रह्मेति ब्रह्यविद्याविद्‌व्रवीद्‌ ब्रह्मदार- 


(व -------- ---------~-~----*-~ 





यमाघ्ला प्राप्य साक्तात्छत्य न निवत्ते पनः संसारमण्डले श्टरूता- 
त्मभावाय नावतते मुच्यत दत्ययः॥ २॥ 

ददानीमुक्तं साधनजार्त राभिचयमिव सन्पाद्योापायोापेय- 
भावेनात्मसाचात्कारे समुचयन विधत्ते ““च्रस्ति ° ब्रह्य" इति। 
ये त्रह्यविद्याविद्भ्‌द्यविषयां विद्यां अवणमननलच्तणं वेत्ति 
साऽस्ति ब्रह्माऽखण्डमचिद्‌नन्दात्मकं ब्रद्मास्तीत्यत्रवोत्‌, प्रमा- 
णएयक्तिजन्यं ब्रह्मज्ञानं ब्रह्मप्राप्तिसाधनमिल्युक्तवानित्यथैः। त- 
याच श्रत्यन्तरं अरस्तोति व्रेवताऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते च्रसतीत्ये- 
वापलबम्भव्यः (कटेण्द्‌) दइति। यस्तपसा पृवाक्रलक्षणेनापदत- 
पाप्रा विप्ररद्धसत्वः, सत्वे तदिदं तपा यथाव्याख्यातरूपं ब्रह्मदा- 
रमेव ब्रह्प्राप्धिद्धारमारादपकारकंभदतोत्यारेति मध्यगरन्धया- 
जना। यः पनः सुयुक्तः सुतर्‌ामध्यात्मयोगनिरतः भ्रामित्यजसं 
चिन्तयति स एतखिन्तनालम्बनमाद्भाररूपं ब्रह्मणा मदिमा 
माद्ाव्ये श्राविश्डंतं ब्रह्ीवतदित्यारेति याजना। सरवमर्थजातं 
वाचकशब्दसम्मिन्नलात्‌ तस्मन्नवमम्यमानं तता न एयगस्ति, 
वाचकशब्दभेदाश्च तद्या श्ङ्ुना स्वणि पणानि संदटसान्येव- 
मद्धारण सना वाक्‌ संट्सा शरे! इर एवेदं सवः (कान्दा ००२) 


४ग्रपाठकः || दीण्कास{हिता। ६१ 


मिदमित्येवेतद्‌ाद यस्तपसापहतपाषा ॐ ब्रह्मणा 
महिमेत्येवेतद्‌ाह यः सुयुक्ताऽजखं चिन्तयति तस्मा- 
दिद्ययया तपसा चिन्तया चोपलभ्यते ब्रद्य। स 


दरति अ्तरोद्धारान्नातिरिच्यन्ते। व चाद्धारोाऽपि स्फ॒रणएएठगु- 
ष्टिदलान्न तताऽन्याऽस्ति, स्फुरणं च सवस्य नामरूपात्मकस्य 
नरद्टरव “्रात्मैवास्य व्यातिः' इति श्रतेरात्मा च ब्रह्म यनात्मा 
ब्रह्मः इति भ्रुतेः। तथाच प्रणटन ब्रह्मात्मानुसन्धानं ब्रह्मणः 
साच्चात्‌ साच्वात्काररंतुरिति प्रणवाशानुसन्धाननिष्ठाऽत्रवी- 
दिल्युक्तं भवति। एवं चधा विभक्तं साघनमिदागीं समू- 
चित्य विधत्ते तस््नादिति। श्रत्र चयाणामेषामेकस्मिन्‌ परुषे 
यगपद्यासम्भवादवग्यम्भाविनि करमेऽद्गिदातयवागूपाकवद्‌थ- 
क्रमा दइदरषट््यः। तथाच प्रयमं तपस्त ब्रह्मविद्या वणादिल- 
चणा, ततः प्रणवेकनिष्ठतेति क्रमेण साघनचयवान ब्रह्मो 
पलभेतेत्ययः। इद्‌ानोमृक्रसाघधनचयातिशयवतः परमफलक- 
यनपूवकं साधनत्यविधेः प्राशस््याय ब्रद्यविदं स्तौति “ख 
ब्रह्मणः ° ब्रह्मोपास्ते" दइति। सणएवं ध्यायन्‌ विद्धान्‌ ब्रह्मणा 
ऽवरस्य दिरण्यगभोाख्यस्य शब्दब्रह्मणि वापरः परस्तात्पर ब्रह्म 
एता गन्ता भवति परं ब्रद्धौव भवतोत्य्यः । ददः मख्यफलकयनं । 
“ब्रह्म वेद्‌ ब्रह्यैव भवति' इत्यादि चश्रतान्तर । तत्‌ किं िर- 


६२ मेन्यपनिषत्‌ । [ प्रपाठकः 


ब्रह्मणः पर रता भवत्यधिद्‌ वत्वं द्‌ वेभ्यखत्यक्षय्यम- 
परिमितमनामयं सुखम्ञ्जते य रवंविद्ाननन चि- 


एग ऽन्याऽस्ति यस्मात्परमयमेतीत्याश्द्य नदि नहि सोाऽप्य- 
यमरत्यादाधिदैवल्मिति। देतेभ्यय देवभ्याऽप्यधि उपरि 
यद्वत स्वदवाधिपतिलं तदष्ययमेता भवतोति योाजना। 
अस्मत इति वच्छमाणेन वान्वयः) दतिग्रन्दः प्रदशनार्थंः । 
देवाश्चायमेव भवतील्येदंविधमस्य माडहात्यमित्यथः । किञ्चा- 
च्य्यमविना्ि, श्रपटरिमितमिति विशेषणमविनाशिलसाघनः, 
यत्‌ परिमितं देशतः कालतः खरूपता वा परिङ्धिनं तदि- 
नाशि दृष्टं यथा घटादि, ददन्त तदिपरौोतलादक्तय्यमित्य्थः । 
सांसारिकसुखवदस्य सातिश्यलपारतन्त्यद्‌ःखसम्भेदशद्धा- 
व्यादटृत्तये किेषणमनामयमिति, एव्भृतं चत्सृखं तद्‌ स्रुते प्रा 
प्राति भुङ्ख दति वा। क इत्यपेत्तायामाद य एवं विद्ाननेन 
चिकेणए ब्रह्मोपासते स इत्यथः) पनरपि फलान्तर्‌मिव 
नद्मसाकच्ात्कवारनान्तरौयकामुपाधिनिटत्तिमुपन्यस्यति “श्रय 
येः ° सायाज्यमुपैति" इति । अरथास्यामवस्थायामयं परिपृणः 
पृणात्मा सन्नात्मनेवात्मन्ठते ब्रह्मण्येव सायज्यं सायुज्यम्पेतोति 
सम्बन्धः । सायुज्यापगमनप्रकारमादावण््टिः पदैः। ये 
तपरिणा्मैरददद्धियादिलचणीरयं विद्वान्‌ पे परिश्डत श्रा- 
त्मसात्छतेा रयितश्च रथय प्रापिता रथलंचप्रापितदति या- 


8 प्रपाठकः |] दीपिक्षासह्िता। ६३ 


केण ब्रह्मापास्त। अथ येः परिपणाऽभिभताऽयं 

रथितश्च तवेव मुक्तरतवात्मन्नेव सायेज्यसपति।॥४॥ 
ते हाचुभगवननरभिवाद्यसोत्यमिवाद्यसीति। नि- 

दितमस्माभिरेतद्यथावदुक्तं मनसीत्ययेत्तरं म्रन्नम- 


~ क ~~~ --~----~-----~-~------- ~~ 


वत्‌ तेवेव तेभतपरिणामेः, ता एवति केदः, वाशन्दाऽप्य्य, तेर्‌- 
पिरुक्त एवेत्यन्वयः) तुशब्दः पुनवन्धश्ङ्ाव्यादटत्ययः। श्रात्म- 
नवेत्यादि व्याख्यातं ॥ ४॥ 

एव मात्माना त्मने स्तत् मा त्मतचचचब्रह्यज्ञानं च ससाघनमप- 
श्रुत्य किं ₹ृतवन्ता वालखिच्या दत्यपक्तायां तदृत्तमनवद्‌न्तो 
खर तिलअविद्यैः गिग कतव्यमुपदिश्ति “ते होचः ° 
शभिवाद्यसोति'' इति । पनवैचनमाद्‌राथं । रभिवादो श्रभि- 
वदनभलः आ्राभिमख्येन शराद्णामनभवपयन्तं तत्ववद्‌न- 
स्भावेाऽसि कपयेव सवापदेष्टासि नास््द्णापचयेत्यथः। एवं 
गरुमभिपूज्य किं कृतवन्त इत्यपेत्तायां गृरूपदि टसवाथाव- 
धारणेाक्या तं प्रसादयन्तः पुनः किञ्चिन्मरनोगतं एच्छ- 
न्ति ध्येवसखरूपविप्रतिपत्तिनिरासेन मनःसमाघानार्थमित्याद 
“निदितं ° ब्रूदीतिः" इति। ह भगवन्‌ यदुक्तं भवता एत- 
दस्प्माभिमेनसि सखचित्ते ययावदानुपूवैण निहितं तं, ्र- 
चास्माकं नास्ति संशय दत्यथे;। श्रय द्दानीमरमितः 


६8 मेन्यपनिषत्‌ | | 8 प्रपाठकः | 


नुब्रूहीति। अश्रिवायुरादित्यः काला यः प्रारेऽनन 
बरह्मा रुद्रा विष्णुरित्येकेऽन्यमभिध्यायन्त्येकेऽन्धं श्रेयः 
कतमा यः सोऽस्माकं ब्रृहीति तान्‌ हावाचेति॥ ५॥ 

ब्रह्मणा वावेता अग्यास्तनवः परस्याग्टतस्या- 


= ~ = न न --~ ---------------~-~-------~- -----------~~-~-----~--~~ ------------- प 
~-~--------------~~---~------~- ~~-~-~-----~-------- जन -- ण = 


परमस्ाभिः करिष्यमाणं प्रश्नमनुब्रूदि अनषत्योत्तर न्रूहि 
कथयेत्युचरिति पुवेणान्वयः । कः प्रस्नः स ष्च्छयताभिन्युक्ता 
श्राद्धः “र्मिः ° दावाचेतिःः दति। एकं ध्यायिनेाऽन्यमभिध्या- 
यन्ति श्रन्यमन्यमिति वोष्छा द्रष्टव्या, एकऽन्दाद्‌ौनामेकैकम- 
भिध्यायन्तौत्ययै; । एकं ऽन्ये परं ब्रह्म परमात्मदाच्यमा- 
नमथ ध्यायन्तोत्य्थः । अच कतमः प्तः मरेयः प्रेष्ठः अेयस्कर 
दरति वा। यः पक्तस्तवाभिमतः भ्रेयस्वेन स एवास्माकं 
सेयान्‌ । तमस्नाक लवं ब्रूदीत्यष्च्छन्िति याजना) बद्धस तं 
विजानन्‌ यः श्रष्टः पक्तस्तमस््ाकं ब्रूहीति याजना । तान 
हावाचति शरुतिवचनमक्ताथ ॥ ५॥ 

अया ऽचिभिरम्यादये वा प्रत्येकं एथक्‌ ध्येयाः परिपू ज्रम वा 
पेयमिति प्रष्टुः प्रजापतिः सर्वच ब्रह्धौव पररूपेण खरूपण चा- 
पासं ्रेयाऽयिभिनोन्यादि खरूपमेवेापास्वं तदु पासनाया श्रल्य- 
फललादित्यभिग्रेत्यान्यादौनामपि न ब्रह्मणाऽचथान्तरतल्रमस्तोति 
प्रतिपाद यन्नुपासनाखवस्थामुपदि शतीत्याद “ब्रह्मणः ° द्याइ'' 
दति) एता श्रन्याटिलचणा ब्रह्मणा वाव ब्रद्धाण एवाग्याः 


8 प्रपाठकः || दौपिकासदिता। ९१५ 


शरीरस्य तस्येव लाके प्रतिमादतीद या यस्या- 


शेष्ठास्तनवे मूतयः, ब्रहयवाग्यादिरूपेण विभाव्यते, च्रतस्तेषु त्र- 
छाबद्यो पासनं य॒क्तमिति भावः । किंलच्णस्य ब्रह्मण इत्युच्यते 
परस्य । खवकारणम्य स्वाधिष्ठानग् तस्येति यावत्‌ । श्रतएवाग्- 
तस्य नित्यस्य, श्रशरौरस्वावर्भावतिरोभावधर्मवजिंतस्य ब्रह्ाण 
एतास्तनव दति पूर्णिण सम्बन्धेः। एवं चेदयस्येतास्तमवस्तदोव 
ब्रद्योपास्यतामलं तदहष्यान्योपासनयेत्यत राद नखेवति। या- 
ऽयी देवा वाऽन्यो वा यस्य पंसेाऽन॒षक्ताऽनु रागविषयोरतस्तसेवे 
लेके प्रतिमादरति प्रतिमेादते प्रतिमानं करोति सव 
दत्येवं लोकप्रसिद्धं द्यादेत्यक्रयेोजना। ये यस्यानराग- 
याग्येऽनुरज्छमानो वा तमेव लोकाः प्रौणयन््यनुसरन्तीति च 
प्रसिद्धं लाक तथा च परस्य ब्रह्मणाऽगाचरतान्निराकार्‌- 
त्वात्‌ तस्मिन साक्तान्मनोानिरोधं कतुमशक्गुवतां प्रयममन्ा- 
दिदेवतास्वेव चथारूचि ब्रह्दृष्धेःपानं श्रुतिषुपदिश्त इत्य 
भिप्रायः1 यद्वा तस्येव ब्रह्मण इद लेके प्रतिमा मूतिंरुदति 
उदेत्यस्ादि रूपेण । तथाच योऽन्यादि चस्योपासकस्यानुषक्तः स 
तदेव ब्रह्म प्रतिमारूपमृपासोतेत्येवं दाति योजना) ्र्या- 
दीनां देवानां ब्रह्माग्यतनुत्वमृक्तं साधयति “ब्रह्म खल्विदं ° 
स" दूति। ददं स्वैन्रद्यावाव ब्रहीव खल्ित्यवयः। तथाच 
्रत्यन्तरं "सपं खल्विदं ब्रह्म तव्नलानिति शान्त उपासोत' (का- 


4 


६१ मेन्यपनिषत्‌। [ 9 प्रपाठकः 


नुषक्त इत्येवं द्याह । ब्रह्म खल्विदं वाव सवं । 
या वास्या अग्धास्तनवस्ता चअभिध्यायेदचयेननि- 


---~~----~------. --~-~~~~--------~-------~- -------~---->~-= ~~~ ~~न ~ ~ १ 


न्दा°्र°द) दट्ति | श्रस्या्ः। सर्वमिदमध्यात्ममधिरवमपिग्धतं 
वाऽगेषं जगद्रदह्यैव खलं नाच संशयः कायः) कुत दृत्यपेचायां 
देतुमाह तज्जलानितीति। तस्माज्जायत दृति तज्जं, तस्मिन्‌ 
लोयत दति तकल, तनानिति चष्टत दति तदनं) च्रमलेापश्‌- 
कान्दसः) इतिशब्दे द्यः । तस्म्ाद्रद्मणेाः जातलात्‌ तसि 
न्नैव लीयमानल्ात्‌ तदाश्रयजोवनलाचच तदेवद्‌ ब्रह्म यथा 
गटत्सु वणं दयुत्पन्तिस्थितिलया घरकुण्डलादयेा ग्ट्सृवणाद्या- 
त्मकास्तयेमे तस्मात्‌ तयेति । यद्यप्येवं सवमेव ब्रह्मणः शरोर 
तथापि यत्‌ खस्मनादु्छष्टलनाभिमतं तदुपास्यं। देवा दि मन्‌- 
व्याणामुक्लष्टलेनाभिमता अन्नादयञ्च जोवनदेतुलात्‌ तथा- 
भिमानयोाग्या दत्यतस्ते ब्रह्मणिऽग्यास्तनव दति ब्रह्मदष्छो- 
पास्या इत्याद्या वास्या ° पुरुषस्यः दति । चा; काखिद्धास्या 
वासयाग्या श्राश्रयादाः ब्रह्मणाऽग्यास्तनवाऽग्याः सेष्ठा अभि- 
ध्यायेत्‌ । यद्धा श्रय ब्रह्मणो यावायाः काशिद्ग्यास्तनव दति 
याजना । श्रस्िन्‌ पत्ते दैष्यविसन्धो कान्दमेा । ता ब्रह्मबृद्याऽ- 
भिध्यायेत्‌.श्रच॑येत्‌ पुष्यापदाररादना पूजयेत्‌ प्रतिमासुवाहदय 
वा, निन्भूयाच्च तन्तदुपाखद्‌वतात्माभिमानेनाध्यात्मपरिच्के 
दाभिमानंः स्नाभाविकं दवताया आत्मभावापादनेन डदित्ा 


8 प्रपाठकः|] दीपिकासह्िता| ९७ 


(क € क 
इ याच्ातस्ताभिः सदवापयुपरि लाकषु चरत्यथ 


प्रयगन्न्यादिदेवतात्वं च निङ्भयात्‌ परित्यजेत्‌ चशब्द ध्याना- 
चंननिक्वानां समृदयाथः । तघाच श्रत्यन्तरं "तं यथा यया- 
पासते तदव मवति! दइति। श्टेवोशग्ला देवानप्येति" इतिच 
यत एवं देवतात्मभावनया ब्रह्मततग्रता देवता उपास्ते, ्रत- 
स्ताभिन्रह्मतनरूपदेवतामिः सदेव तदैकाव्यं प्राप्येति यावत्‌। 
उपयुपरि लोकेषु जनतपःसत्यलाकषु चरति उपासना- 
तारतम्याल्ञकफलविकल्यः। तच तचापाखनाफलानि तत्तद्‌ 
वतात्मनासुङ्क्‌ दत्यथंः। यद्ययं देवतात्ममाचदृष्टिस्तद्‌ा मे- 
गान्ते पनररिदावतेते, श्रप्रतीकालम्बनान्नरयतोति बादरायण 
दति न्यायात्‌ । श्रय यदि ब्रह्मणदङ्गदापासकस्तदा रल्ल- 
चये रुत्सस्य सवेदेवतात्मनः सत्यलाकम्थस्य दिरण्यगभस्य 
चये अवसाने सम्पृणन्रद्मरूपः सन्‌ पुरुषस्य पूणस्य परब्रह्मण 
एकल्व॑सायुज्यमेति गच्छति क्रममुक्तिमुपेतोत्यथेः । श्रभ्यासः 
प्रपाठकसमाष्ययः । श्रत्रेयं वयवद्छा। कायकारणापाधिदय- 
विलापनेन म्रत्यगेकरसतया ब्रह्म ष्यायत दृदेव साक्तान्मक्तिः, 
भरारग्धफलग्रेषभागाय देदस्थितावपि स मुक्त एव। यः पुनः 
कायेकारणब्रह्मोपासकः स ब्रह्मण्दङ्गदाद्रद्मलाकंऽचिंरादि- 
मागण गल्ला तचेापासनफलभोागावसाने तचात्पनसम्यक्रत्च- 


ज्ानान्दक्तिमुपेव्यतोत्यस्य क्रममुक्तिः) ये पुनः प्रतीकेापाखका 
1 2 


१८ मेन्युपनिषत्‌ | [४ प्रपाठकः । 


छंत्लक्षय रकत्वमेति परुषस्य पुरुषस्य ॥ ६। 


इति मेच्युपनिषदि चतुर्थः प्रपाठकः । 


~ रा 


शन्तं ब्रह्म म्णा ब्रह्य आदित्या बह्म मनो ब्रद्येत्येवंदृष्टय- 

स्तेषां, न प्रतीकन हिस दृति न्यायन, ब्रह्मक्रतारभावात्‌ ते 

यशोपासनं ब्रह्मलेाकादवाक्तनेषु लोकषु फलमनुश्य पनरा- 
£ ^~. क ( (0 है 

वतन्ते, ब्रह्मलोक गता श्रपि कचित्‌ पञ्चा्मिदशनादिनिष्टा 

दइलि॥ ६ ॥ 


दति रंचोगाखापनिषदोपिकायां चतु्धैः प्रपाठकः । 


५ प्रपाठकः || दीपिकासदिता। < 


अथ यथेयं कोत्सायनी स्तुतिः, 

तवं बरह्मा त्वच्च वै विष्णवं शद्रस्चं प्रजापतिः, 
त्वमध्चिर्वरुणा वायस्त्व मिन्द्र सत्वं निशाकरः ॥ 
त्वमन्नसूवं यमकत्वं एथिवी त्वं विश्वं *त्वमथाच्छतः | 
स्वाथ स्वाभाविकंऽय च बहधा संस्थ तिसत्वयि ॥ 


*----.------ =-= >+ ~. ~ ~ - ----~-- ----- -- --- ----- ----~ ~ 


तदवं ससाघनां ब्रह्मविद्यामपदरि श्येदानोमक्रवच्छमाणसवै- 
पासनाङ्गग्ताननमस्कारमन्टानाद चय यथय ° स्तुतिः" 
दूति। कत्सायनन दृष्टा कीत्सायनी दयं वच्यमाणा स्तुतिः। 
स्तुतिर्या मन््गण श्रारभ्यते। चरयशब्द श्रारम्भायेः। ययापलन्धा 
तथारणग्यत दत्यथः। “लं ब्रह्मा ° निधनायचः', इति। ब्रह्मा 
दिरण्यगभः प्रजापतिजिरार। श्रद्यते उपजीव्यते सव॑रितिवा 
श्रत्ति सवं खात्मन्यपसंदरतीति वा अन्न, अन्नवदाचरतोत्यनः। 
तथाच अरुत्यन्तरं श्रद्यतेऽत्ति च शतानि तस्नादननं तदुच्यते 
(तेत्ति०उ०) इति। विश्यं चराचरं। श्रय च सवात्मकल्वेऽपि 
त्रमच्युतेाऽप्रच्यतनिजखभावः कूटस्य एवेत्यथेः। खायः पृरुषाथा 
धमोदि चतुष्टयरूपः खाभाविकः प्रारुतिकः खखम्ररूत्यनुसायं- 
यस्तयारुभयोा निमित्तं लाक्स्य लि ब्रद्मण्णेखरे बघा संस्थि- 
तिनानामागंण लन्निष्ठता भवतोत्यथः। श्रयवा खाय खाभावि- 
केऽय च लाकस्य या संखितिः प्रटरत्यादिनिष्टासा त्रव्यायते- 
त्यथः । विश्सेषटे इति विच्रे्यर स्तस्य संबुद्धिः । तदहि विश्चमन्य- 


# खमिति पटान्तर्‌ | 


° मेच्य पनिषत्‌ | [ ५ प्रपाठकः। 


विश्वेश्वर नमस्तभ्यं विश्वात्मा विश्वकमछत्‌ । 
विश्वभुग्विश्वमा युरू्वं विश्वक्रोडारतिप्रभुः ॥ 

नमः शान्तात्मने तुभ्यं नमे गुद्यतमाय च| 
पचिन्त्यायाप्रमेयाय अनादिनिधनाय च॥१॥ 


--- --~~--~ ~ -- -----------~~~------~---------~-*------------~-~--~------------~-~-~--~-, ~ (= 
~~~ - 


दिति शड्ायामादइ विश्ात्मेति । तमेव विश्वमित्यर्थः। यता 
विख्क्मरृत्‌ क्रियते तत्कमं विग्याख्यं कमं कायं करोतोति विश्च- 
कमछत्‌ । विग्धोपादानलादिग्रात्मेत्य्थः । यदा विश्चेश्वरवे 
ह तुर्विश्यात्मेति। विश्वस्यात्मा खरूपं तचापि देतुविंश्वकर्म- 
छदिति। अतः कारणत्वात्‌ सखकायं विशं वाय तन्नि 
यमयन्नवस्यिता विग्र इत्यथेः। भोक्तारो जीवा अरन्ये 
भविव्यन्तोति शङ्धं वारयति विश्भुगिति। या विश्ख मोक्ता 
मरसिद्धः साऽपि लमेवेत्ययः। किञ्च तरमेव विश्वमायः सर्वस्य 
सवमायुर्जी वनं म्ाणल्पेण वा स्वायुः । तथाच अत्यन्तर्‌ं 'चाव- 
द्यस्मिच्छरीरे प्राणा वसति तावदायुः" (काषीञञ्०्द) दति किं 
बज्ना लमेव विश्यक्रीडारत्याः प्रमुः बाद्यापकरणा प्रीतिः को- 
डा, तन्निरपक्ता च्रान्तरप्रोतोरतिः। तयोास्मेव खतन्तः समर्यं 
दरत्यथः। शान्तात्मने क्रूरस्थसखरूपाय गद्यतमाच वाचामगोा- 
चराय श्रचिन्यायान्तरिद्धियाविषयाय च्रप्रमेवाय बाद्येद्धि- 
याविषयाय अनादिनिधनाय नित्यसद्ुपायेत्ययः । चकारात्‌ 
खयम्प्रकाशाय चेत्ययः। दतिशब्दामन्समाघ्यर्ः॥ ९॥ 


५ प्रपाठकः || दोपिकासदिता। ७१ 


तमा वा इदमग्र आ्ासोटरेकं तत्‌ परे स्यात्‌ तत्तत्प- 
रेणेरितं विषमत्वं प्रयात्येतद्रुपं वे रजस्तद्रजः खसः 
तं विषमत्वं प्रयात्येतद्दे सत्तस्य रूपं तत्सष्वमेवे- 


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~ न म ० 


मन्त्राणामारम्मे लं ब्रह्मा तवं च वे विष्णरित्यादिना न्- 
द्ारदिदेवतात्मलं प्रत्यग््रुस उक्तं तत ब्रह्मादीनां तत्वा 
न्तरत्वात्‌ छथयम्त्थं रतिरिति शङ्धानिरासायोत्तरा 
शरुतिः प्रवदते) तत्क एव यथोक्रञ्िदात्मा खमायागुणेस्त- 
दवस्थाभरैखानकाऽनकविशषोाऽनेकविधक्रिवाप्रवतका न त्व 
भेदः क्राप्यस्तोति दभ्यन्ती अ्तित्रद्यादिचिमृतिभावेनास्ा- 
त्मन उपासनं विधातुं प्रयमं मूतित्रयव्यपद्‌शनिमित्तमाइ 
“तमावा ° तनवः" दूति। इद्‌ ब्रह्मविष्णरुद्रादिकमग्र ख्च्छुप- 
कमात्पराक्‌ तमा वै तम एव तमेागृणप्रधानमायामाच्रमेवासी- 
देकमेकोग्दतमनभिव्यक्रनामरूपमखण्डतमामाचमासोदित्यथैः। 
एतेनासत्कारएवादोऽमत्कायवाद श्च व्द्स्तः ददः तम दृति 
सामानाधिकरण्योक्तरग्र श्रासोदिति सुच्लोक्तंश्च। तत्‌ कि 
साद्धाभिमतं प्रधानं नत्याद तत्परे स्यादिति, तत्‌ तमः परे 
कायंकारणलातोते तत्कल्पनाधिष्ठाने विदात्मनि स्याद्धव- 
तीति यावत्‌, श्रचेतनस्य तस्य खातन्त्यानपपन्तेरित्यथः। 
एवं जगतः प्रागवस्था देतनपराधीनामक्ता तत््रढतत्तरपि तद्‌- 
धोनतामाद तत्परेरेति। तत्‌ कारणं प्रविलीनकायावस्थं तमः 


७९ मेन्यपनिषत्‌ | [ ५ प्रपाठकः | 


रितं रसः सम्पृ.खवत्‌ सोऽशाऽयं यथ्ेतामाचः प्रति- 
पुरुषः छेचन्नः सङ्कल्पाध्यवसायाभिमानलिङ्गः प्रजा- 
पतिर्विंश्चेत्यस्य प्रागुक्ता रतास्तनवः । अथ या च 


परण चिदात्मनाधिष्टानभ्तेनरितं प्रेरितं तद्धैतन्याभारुव्या- 
षयो पवितं बोजमिव सलिलादिव्या्येत्यथः । विषमलं पूवाव- 
स्था प्रच्युतिरूपमृच्छूनमिव बोजं साम्यावस्थात्यागन तदिलक्तणएलं 
प्रयाति कायान्मखं भवतोत्यथः। द्यपि मायाव्यारूतावि- 
द्यादि शब्द वाच्यस्य कारणस्य नित्यैव ततेतन्यव्धाश्िनित्यमेव 
तताध्यस्तलात्‌, तथापि सुपुप्तस्य खभ्नादिवत्युद्धववदबद्धि- 
पूवंकेव कादाचित्को विद्या कमपृतरप्रजञानुमारिणणो चिदाभाष- 
व्या्िभंवतीति न खष्टयादिसान्तत्यशद्धावकाश दति गमयि- 
त्यं । यदिदं परोरितस्य तमसा विषमलगमनमेतद्रपंवे प्रसिद्धं 
रजा रजागृणास्यं कारणएमित्ययः, तत्सु रजः पववत्‌ परे- 
णेरितं सत, विषमलवं प्रयाति। यदिदं रजसो विषमवगमनमे- 
तद्रे सत्वस्य सत्वगणप्रधानकारणएस्य रूपं प्रकार भेद इत्यर्थः । 
एवं गणवेषम्यं सनिमित्तं कारणव्यापार मक्ता तस्य कायाकार- 
परिणामप्रकारमादतत्सत्तमेवेति । तत्परणात्मना पूनवदीरितं 
सत्वमेव न तमारजसौ तयोावच्छमाणा्थाभियज्ञकलासामथात्‌ 
रसः सारखिदानन्दप्रकाशः “रसा वे सः रसं दयेवायं लब्धा- 
नन्दी भवति (तेत्ति०उ०) इति श्रत्यन्तरात्‌। स सम्पाखवत्‌ 
सम्यक्‌ प्राककोनास्तवत्‌। सत्वमेव चिदात्मना विशेषाकाराभि- 


५ प्रपाटकः| | दी्किसहिता। . ७ 


खलु वावास्य तामसेऽशऽसो स ब्रह्मचारिणा याऽयं 
रद्रोऽथ या इ खलु वावास्य राजसेर्शाऽसो स ब्रह्म- 
चारिणा योऽयब्रह्माथयोा इ खलु वावास्य साच्िका- 


1 मा ना ~ "0 न) 





व्यत्तियेाग्याकारतया ग्रष्टतं सखिद्‌ात्माकारमेव विगप्रखनमि- 
त्ययः ! श्रयमेव हि तच तच बुद्धिरिति च महानिति चादमव- 
भासय इति च द्रटेति चाख्यायते, नान्य इत्यभिप्रेत्याह सोाऽश 
दति साऽयमंगाऽ१ दवांग्रशखिदात्यनो विश्रषावम्था ्राकाश- 
म्येव द्‌ारुसुपिराद्यतरम्यः। नङ्क निरवयवस्य परमाथताऽप्नाऽस्ति। 
काऽसौ यखेतामाचः चेता चेतना साक्तिचितन्यं दया मोयतेऽ- 
वभास्यत दृति चेताराचः खप्रकाभमाचिमात्रणानुभाव्य दत्य 
थः। यतः प्रतिपुरुषः प्रतिविम्बोा नानेादपाचेखिव खयादिनाना- 
विधाथाकारबृद्धिदत्तिषु विभाव्यमानवात्‌ प्रतिपुरुष दत्यथः। 
रीकिकप्रतिविम्बवद्‌ चेतन्यं वारयति ्तेचन्न द्ति। चेच शरीरं 
धमाधमबीजप्ररोदग्रमिवात्‌ तद्‌ पादतलमस्ककमदमिति जा- 
नातोति केचच्येा जोव इत्यर्थः । तदुक्तं भगवता ग्रीङृष्णेन । 

“ददं शरोर कौन्तेय चखेचमित्यभिधघोयते। 

एतदा वेत्ति तं प्राङ्धः चेचन्ञ दति तदिद: ॥ इति। 

तत्स्चावं साधयति सद्ःल्येति। सङ्क्य ददं मया कतव्य 

मित्येवमाकारोा मनसा विकारः, अध्यवसायः कतेव्यविषय- 
सखरूपसाधनफलानां यथावद्‌ वघारणरूपा बुद्धढटत्तिःः, अ्- 
निमानेऽहमस्मिन समथ दृत्याद्यदङ्ारः । एतेषामचेतने 


| 


७9 मब्युपनिघत्‌। [५ प्रघाठकः। 


{शसो स ब्रह्मचारिणा योऽयं विष्णः स वा रष 


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न्टतशरोरेऽदभनाच्जीवच्छरौोरे च दशनादेतानि लिङ्गानि 
श्ररोरातिरिक्रतया सद्भावप्रमापकानि यस्य स सड्धुल्पाध्यव- 
सायाभिमानलिङ्गः। एतैलिङ्गेदे दादिषिलत्तणाऽस्तीति सम्भा- 
च्यमान दत्यर्थः। प्रजापतिः ममशिविराजपिण्डाभिमानीं 
दवः, विशा व्यषिपिण्डामिमानिनो देवता, दटोवमाद्या एताः 
प्रागक्ता रेव क्तेचज्ञस्य सत्त्वपरिणएामप्रतिविम्बितस्य चिद्‌ा- 
त्मनस्तनवः, चिदात्मैव तन्तन्मूतिष्करेपु तत्तद्‌ात्मना विभाव्य- 
मानोऽवतिष्टते, नास्मात्‌ तच्वान्तरग्रतं किञ्चिदित्यथः। तथाच 
खत्यन्तर्‌ "नान्याऽताऽस्वि द्रष्टा नान्ाऽतेाऽस्ति भाता नान्याऽ- 
ताऽस्ि मन्ता नान्याऽताऽस्ति विज्ञातैष त आआत्मान्तयाम्यम्दतः' 
(छृददा००५) दति । एतदृक्तं भवति कि कारणं ब्रह्मति। 
ब्रह्मवादिनां ब्रह्मणः सदकारिश्तजगत्कारणपिमशओे “ते 
ध्यानयोगानुगता अपश्यन्‌ देवात्मशक्तिं खगुणेनिगृढां" दति 
चिगणात्मिका मायाख्या शक्तिरवष्टता श्चताश्यतराणणं मन््ा- 
पनिषदि) सा च ब्रह्मणः मव॑कारणत्रनिवाद शक्तिस्ते 
नाधिष्ठोयमाना गृणचयविभागेन यदा विहृता भवति तद्‌ा 
तद धिष्टाताऽपि तत्सत्तास्फ़तिंप्रद्‌लेन तदनगतोा विकृत इव 
भवति। तच च यथाविकारव्यपदशं साऽपि व्यपदिश्यते, 
तचापि चिगुणात्मकंन कारणेनेश्यरान्तयाम्यादिश्दैवयप- 
दिश्यमानः सत्वादीनामेककप्राघान्येन ब्रह्मादि संज्ञाभागभ- 


५ प्रपाठकः। | दोपिक्रामदिता। ७१ 


रकस्िधा भूतेऽष्टधेकाद्‌ श्या दाद्‌ श्याऽपरिमितधा 


जमपनम 


[1 0 ए ककरा र 1 रणिषगीणाणीणीरीरिी 


वति। तदा तचाविश्वतगणएविग्रेषयन्तया स उपास्या वयपदि- 
ष्यते गणकासम्यल्च्छगशरीरपाय्यगिगेषेण तदभिमानेन वा 
व्यवद्धियमाणा जीवः न्तेचन्नः संसारी देठा मनुच्स्तियंड, स्था- 
वर इति च व्यव्दशभारमेवति। अत सवच सत्वगणप- 
रणामे एव विद्‌ाद्मना विभषा{मव्यक्रिनान्यच। सत्वस्य च 
रजस्तमःसम्पकविऱएाविशेपरभ्यं चिद्‌ात्माविभावविेषतार- 
तम्यात्‌ ज्ञानक्रियाशत्यैश्वयंतारतम्येन सर्वज्ञगृटामृटत्रादि- 
तारतम्यावमास दति । एत्मव।भिप्रायं विशदयति “श्रय 
यो द सल्‌ ० अन्तवद” दति; श्रय एवं प्रकारे 
व्यवम्धिते सति अस्यात्मना यो द खल्वित्थं वाव एव य 
एवात सम्बन्धः ताममस्तमःप्रधानाऽशस्तमउपाधिका वि- 
श्रेष; असा मः, दहे ब्रह्मचारिणः, काऽमेा याऽयं रुरः प्रभिद्ध 
दृत्यथैः। एवमुत्तरयारपि पयाययेव्याख्या। स वा एष 
एकः सवे पवैमृपपादितः एष दद्‌ानोमुपाथ्यधिष्ठाटलना क्र 
एक एव रद्र बह्मविष्वात्मना विधातः कारणापाधिमधि- 
छाय चिघाश्त इत्यर्थः, अधा पञ्चविधप्राणादित्यो सनत्तच- 
खनदरसेति चयः पञ्च श्चतानि चेत्यष्टयेत्यथंः। एकाद्र्शेन्द्ियभेद्‌ 
एकादशधा, ततेव मनेोबृद्याभंदे मति द्ाद्श्धा। तन्तदि- 
द्वियद्न्तौनामनन्तलात्‌ तद्धदेनापरिमितधा, वाशन्दा विक- 
त्याः | श्रष्यातां वाधिश्धतं बाधिदवं वा यद्यत्‌ किद्‌ स्ति 


[1 
। श 


७६ मेत्यपनिषत्‌ । [५ प्रपाठकः। 


वोद्भूत उद्भूतत्वाद्भूतं भूतेषु चरति प्रविष्टः स भूतानाम- 
धिपतिर्बभुवा इत्यसा आत्मान्तवदि चान्त वदि श्च ॥ 
॥ २ ॥ 

इति मेत्युपनिषदि पञ्चमः प्रपाठकः । 


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तत्सर्वमवभासयंस्तत्तद्‌ात्मना नानाविध उद्भूताऽभिवयक्त उद्भू 
तलादेव श्तं श्तसंज्ञ श्रात्या भवतोत्ययंः, (महद्भतमनन्त- 
मपार' (छृदद्‌ाश्च्रा०४) दति श्रतेः, एका विष्णम॑दद्भूतंः दति 
रतश्च । यते शतेषु प्रविष्टा सतावभास्कतया श्तनियन्तृतया 
चानगतश्च चरति गच्छति शतानि व्दाप्नाव्यत द्भूतवाद्ूत- 
मिति याजना। अतएव शतवगशितया शतानामघिपलिवंभ्‌- 
वाधिष्टाय पालयिताऽभवट्रुवदारदृषत्यथः। उपसंदारां 
उत्तरो भागः। दृत्येवमक्तप्रकारेणासा श्रमो आता ययाखा- 
स्याताऽन्तःसाकिप्रमाटकल्लदिषूपेण बद्िखेश्ररकालद्‌वता- 
दिरूपेण विभाव्यते नान्य इत्ययः) भ्यास च्राद्रा्थैः 
प्रपाठटकसमाष्यया वा॥२॥ 


दति मंच्युपनिषद्ोपिकायां पञ्चमप्रपाठकः॥ ° 1 


------------ ----~--~----~-~------~-~~ -~-~---~-~--~-------~ 


ह्‌ प्रपाठकः। | दीपिकास{ता। ७७ 


दिधावा रखष श्राल्मानं बिभव्यंयं खः प्राणा यशा 
सा आदित्योऽथ द्धा वा रता अस्य पन्धाना अन्त- 


क कक = - न न ~ ~ ~ ~~~ ~~~ ~ - --- ----------------- न 
"ययते 


'“"याऽन्तव॑डदिः सर्वजन षुनित्यं चरत्यशान्तेषु सुशःन्तरूपः । 

प्राणात्मनान्तर्बहिरप्रमःलि रूपेण तस्मै सततं नमोऽस्तु ॥ 

नमो गरुभ्यः सवेभ्योा रेप्रां चर््खतिः। 

सरौपनिषदे प्रष्द्ध तदयेऽपयति मे धियं" ॥ 

एवमियता ग्रन्थसन्दभेए चिद्‌ात्मैक एव प्रत्यग्ब्रह्मुरूपेण 
विज्ञेयः स एव ब्रह्मादि ख्पेणानेक विशेषावस्या श्येयञ्चेति मुम॒च्च- 
पेचिताऽथः सवा दभ्ितिा सक्ति चिदात्मसायचन्यप्राक्चिरभि- 
दितिः दद्‌ानोभस्येव चिद्‌त्मनाऽनेकसापास्यलायानेकर्मादि- 
मानमाविच्कुवन्तो अ्रुतिमन्द्मध्यमाधिकारि विषयास्तदुपामनाः 
सालम्नना चपछ्रनकप्रकारा विधातुं प्रव्टत उत्तरेण प्रपाट- 
कन तत्वन्ञानननष्छटापेक्तितानि साघन।न्यपि कानिचि 
घु शरस्य च खिलवान्नातोवाच सङ्गतयाऽपेच्छन्ते तया- 
पि यथामति सङ्गतिमूरमाना श्रराणि वाख्यास्यामः, 
तचाऽध्यात्माधिश्तदेदन्रद्याण्ड(पा[{पभ्यां चिद्‌त्मनः क्रि 
धाशक्रिप्रधानलिङ्गानुगतचिद्‌ामामाभेदेन प्राण आ्रदित्यश्चेति 
दविधा भेदं प्रकल्प्य तेनात्मनापासनं विधातुमाद दधिधा 
वा एष ° व्यावर्तते" इति। एष पूरदप्ररत च्रात्मा, वे 
प्रसिद्धः सदख्रतिप्‌, द्धा द्विप्रकारण श्रात्मानं खं खूप बि- 


ए. - मेच्यपनिषत्‌ | [ € प्रपाटकः। 


बहिशाऽहाराचेणेता व्यावर्तेते। असौ वा अदि- 
त्यो बहिरात्मान्तरात्मा प्राणता बहिरात्मक्या 


भतिं धत्ते पालयति वा। प्रकारभेदमेव विशदयति चः 
प्राणा ददे पञ्चधात््यानं विभज्य स्थिताऽस्तौयमेका विधा, 
यखासा शरसा ब्रह्माण्डकर्‌ण्डमध्ये जगद्‌वभासकतयावस्थि- 
ताऽस्ति श्रादित्यः माऽयमपरा विधेत्ययेः। श्रथ्यात्द्मं प्राणा- 
त्मना श्राधिदेवमादित्यात्मना च ब्रह्मरूपः चिदात्मा ध्येय 
दृत्युपामनात्पत्तिविधिं खतचयक्षाद अयति, श्रयदम्‌च्यते्रस्या- 
त्मन एत डे पन्यानोा विशेषाभिव्यक्निमार्भीा कै । अन्तदँदा- 
भ्यन्तरं बद्िख देदादध्यात्मरूपाद्राद्योा देण्येति दौ पन्धाना- 
वित्य्थः। एता प्राणदिल्यै च्रदाराचेण श्रज्धा राच्या च 
व्यावतते विपरिवतनं कुवाते इत्यर्थः। श्रन्तः किंरूपा 
बद्िश्य किंरूपा व्यावर्तते कथञ्च तडावतनमित्येतद्िशद यति 
श्रो वा च्रादित्यो ° गतिरित्येवं द्या" दति श्री 
प्रसिद्धा व श्रादित्यः खया बहदिनात््मा प्राणाऽन्तरात्मा यत 
एवमता बददिरात्मन द्यं बद्दिरात्मको तत्प्रयुक्तति यावत्‌, तया 
वदह्दिरत्मक्या गत्या परिवतेननान्तरात्मनः प्राणस्य गतिरनु- 
मोयत दत्येवमेर्वप्रकार इदि यत श्राद श्रागसन्ञाऽताऽनयनं 
वास्तवा भेद दति शेषः। अअयमाणयः, खया इ मर्‌ प्रद्‌ 
चिणोकूरवन्नदाराचाग्यां ब्रह्माण्डान्तः परिवतत प्राणाऽपि 


६ प्रपाठकः | दीपिकासदह्दिता। ७९ 


गल्यान्तरात्मनाऽनमोयते गतिरित्येवं दयादाथ यः 


क 1 


किदिदानपहतपाप्माऽशाभ्यशाऽवदातमनास्तननिष्ठा 


~~~ - ^~ ~ -- ~~ ~-~------------- ---~ ------------~---~~~ 


~ "~ ------~------- -~---------*~---------^~~-~---- ~ ~ 9 ~~ 
~~~ "~~ 


वासरूपेण दृदान्तः परिभ्वमति, तचेकादेाराचद्धर्यगत्याः 
प्राएरोकविंशतिसदस्रसद्याः खासा भवन्तीत्यागमशास््रसिद्धं 
म्राएपरिवतेनमनमोयते, चटा श्रतसंवत्छरपरिमितं दि 
परूषाखः "शताय रषः श्तद्धियः' दति श्रूतिभिद्धः, तावत्कालं 
च प्राणः श्ररोरान्तः सद्धुरति, तचैकटिचादिवर्षप्राणसञ्च- 
रणपरिच्छंर्‌ आ्रादित्यपरिवतनभ५चयाघधोन दति तद्गत्या प्रा 
णगतिरनुमीयत इति। इद्‌ानोमन्दरात्मगत्या बह्िरा- 
त्मगत्यनमानप्रकारमाद श्रय य दति। ्रयशब्दः प- 
सायान्तरार्मायः। यः कखिद्िदान प्राणादित्यात्मदर्णे 
अतएवापदतपाप्रा अध्याव्यपरिच्क्दाभिमानामङ्गरूपपाप्रना 
रदिताऽत एवाञक्ताध्यक्त टन््रियाक्ततेषु स्वतन्ला नेद्धिय- 
परवश दूत्यः, श्रतएवावद्‌ातमनाः निमलचिन्तः, तन्निष्ठा 
तनिष्ठस्तस्मिनपास्ये निष्ठा तात्पयं यस्य स तच्निष्ठः सननाटत्त- 
च्वाह्यविषयव्यानृरेदियः स उ दति देदःस एवते- 
नेति विपरिणयं। य एवेविधा विद्धान्‌ तेनेवान्तरात्मक्या 
गत्या प्राणगत्या बदिरातसमन आदित्यस्य गतिरनुमीयत 
इत्येवं दयादेति वाख्यातं। एतदुक्तं भवलि, अ्र्यात्माधिग्र- 
तयाः पिण्डन्रह्माण्डये; खखमानन शतं वषाण्यायुःप्रमाणए- 


८० मेव्युपनिधत्‌ । [६ प्रपाठकः। 


अारत्तचक्षुः से अन्तरात्मक्या गत्या बहदिरात्मनोऽ- 
-नुमीयते गतिरित्येवं द्याह । श्रथ य रषोऽन्त 
रादित्ये हिरण्मयः पुरुषा यः पश्यतीमां हिर ण्यव- 





---~-*~-----~---~-------~ --~ ~-------~ ~ -----------+~----------------------- ------- --“---- -‡ `-------- मद 


मित्यस्य समलत्वादध्यात्मगतप्राणात्मगत्या श्तवीन्ते पिण्डप- 
रित्यागल्क्तषणया वद्दिरात्मनोाऽप्यादित्यख ब्रह्माण्ड पिण्डपरि- 
त्यागर्ूपा गतिस्तन्द्रानेन शतवषीन्ते भव्दित्यनमीयते इति, 
जरया या प्राणात्मना गतिदेदधारण्लच्णा प्राणापानव्या- 
पारः क्रियमाण तया बाह्धयात्मन आदित्यस्य ब्रद्याण्ड- 
विधारणष्पेाद यास्तमयनिवत्यादाराच्व्यापारैः क्रियमाणा 
गतिरनुमीयते एतच्च प्रारुतजनवृद्यगेा चरत्वादिद् ह टिगम्य- 
त्मभिप्रत्य विद्रान््मध्ये निदिष्ट इति द्रष्टवं। एतयोारन्यत- 
रस्य गत्याऽन्खतरस्य ग्यन॒मानापद्‌ शस्तयेारोकगतिलचिन्तना्थं 
दति। दद्ानीमनयाः स्थानभेदः गुणभद्च्च सिद्धूवद्नूद्यव्य- 
तिद्दारं तचिन्तनाथं विधत्ते '“च्रय च एषोऽन्तरादित्ये ° 
एवाथिताऽन्नमन्ति' इति । गणान्तरविधानारमायाऽयशब्दः। 
य एष प्रसिद्धाऽन्तरादित्ये श्रादित्याख्यस्य मण्डलस्य मध्ये 
हिरण्मया दिरण्सय इव दिरण्सया च्योतिमंयाऽन्तयामी 
पुरुषः पुरुषाकारारदित्यद्तान्तरनुप्रवेश्न लब्धपुरुषाकार 
इति यावत्‌। केऽमेा हिरण्मयः परुषा य इमां प्रथिवों 
पश्यति दमामित्यपलक्तणं त्रेलाक्यमवभासयतोत्यर्थः। श्रय 


€ प्रपाठकः] दीपिकासद्िः। ८९ 


स्थात्‌ स रषेऽन्तरे ह्ुष्कर रवाश्रिताऽन्रमत्ति ॥ 
॥ १ ॥ 
अथय रपोऽन्तरे हृत्पुष्कर रवाथितेऽन्नमत्ति स 


~~~ ~ "~~~ >~ 


-- ~~~ 


एरुषस्य दिर ण्मयते निमित्तं खयमेव द दिरण्यवस्यःदिति। 
हिरण्ये हिरण्मये तेजःयङ्गातात्मके मण्डलेऽवस्थादरवमग्धा- 
नात्‌ तदभेदोनावश्थितवा{दत्यथंः। वष्टि माग्रिरल्ञोपम- 
वा्यारूपसगंयारित्यदोापमर्गेऽवणलापः ! पणश्यत्यमो दिरण्यव- 
स्यादितिपाठः प्रामादिकः यदि सत्यस्तदा दितोयार्यं 
प्रयमा विपरिणेया, दूमाल्लाकान पश्चतोत्य्थः । इदानीम- 
स्याध्यात्ममवम्थानमाद स एष दति। या डिरण्मयाण्डस्थ- 
तया दिरण्मयः पुरूष उक्तः स एषेाऽन्तरे दे दाग्यन्तरे यद्कु- 
त्पुष्करं हदयकमसं तस्मिन्‌ इदत्युष्करे एव आअरञितस्तचेव 
प्राक्यम्‌पगतः प्राणात्मा सन्ननमद्नोयमन्ति सङ्घ विषयान्‌ 
वा शब्दादोनुपभुद्कः दत्यथैः॥९॥ 
एवमादित्यमण्डलान्तरभिव्यक्रं दिरण्मयलादिगुणकं पुरू- 
षमनृद्य तस इद्यन्तवतिप्राणात्मभावं विघायेद्एनीसुक्तप्राणा- 
त्मानमन्‌द्य तस्यादित्यत्मभवे विद्घाति “ज्य य एषा- 
ऽन्तरो ° च्रनमत्तोति” दति। अन्नमत्तोत्यन्ताऽनुवादभागो 
व्याख्यातः) सएष एवाऽद्िरन्ता दिवि द्युलाकं भरितः च्रा- 
शितः स्थित इत्यंः। कोाऽयमभ्भिरित्यत श्रादड सारः खर्य- 


१, 


स्र मेश्यपनिषत्‌। [द्‌ प्रपाठकः) 


रषोाऽप्रिर्दिवि सितः सारः कालाख्योऽदृश्यः सव- 
भूतान्यनमत्तीति । कः पुष्करः किम्मयेा वेति। इदः 
वाव तत्पुष्करं योाऽयमाकाशाऽस्येमाश्चतसेा दि श्खतख 
उपदिश दलसंस्था आसं। अर्वाण्दिचिरत रता 


--~----------~ ~ ~~ ----+भ~---- ~--------~~ -~- -------~~--~--~--- ----- ~ ~ 
.~--~------------~----------~ ~~~ ----~~~----- ~~~ -- --~---~--~----- 


तेजारूपः, स एव प्राणिनां कलनात्‌ कालाख्यः कालसज्ज्नितः, 
दृश्यः प्रत्य्तागोचर एव सन्‌ सव्श्तान्येवान्नं तान्यन्ति 
सवभ्रतानि संदरति, इतिशब्दो व्यतिदहारोपदेणशसमाष्यर्थः। 
यच पष्करे स्थिताऽनमन्तीत्यष्यात्यमम्‌क्तं, दिवि श्रिताऽन्नमन्तीति 
वाधिदेवं, तदुभयसखर्‌पजिज्ञासया वालखिल्याः प्रच्छन्ति 
“कः पुष्करः ° वेति दति। स्पष्टाथः। उत्तरमाह 
प्रजापतिः ददं वाव ° आसं": इति। योऽयं प्रसिद्ध 
श्राकाण इदं वावेदमेव तत्पुष्करं, यदध्यात्मदत्पेष्कर मक्त 
तदिदमेवाधिदेवं म्रमिद्धमाकाशं, नानया; खरूपभदोाऽस्ती- 
त्यथः। तथा चाकाशमेव द्ये ब्रह्माण्डान्तरे च पष्कर- 
सिति खरूपप्रस्नस्येोत्तरमृक्र। क्म्य दूति प्रञ्मस्यात्तरं 
वदन्‌ इदयपष्करस्याऽ्टदलमयलवं प्रसिद्धमिति मलाधिर्व- 
पष्करद लान्याद्ास्येति। श्रस्याकाश्युष्करस्येमाः प्रसिद्धाः 
प्राच्याद्या श्राग्रेय्याद्याश्चतखलश्चतसा दिशा दलसंस्था दलल्ेन 
स्थिता च्रासं आसन्नित्ययः। तथा च इहद्‌वाकाग्वाद्याका- 
शयाददयकमलगताष्टदलानामषटदिशाच्चाभेदा ध्येव इति ता- 


द्‌ प्रपाठकः || दोपिकासद्दिता। स 


प्राणदित्या रता उपासोतामित्येतदश्षरेण व्याह- 
तिभिः साविव्या चेति ॥ ₹२॥ ` 

दे वाव ब्रह्मणा रूपे मूतंच्चामूतच्वाय यन्मृतः तद्‌- 
सत्यं यद्मूतं तत्सत्यं तद्र द्म तञ्ज्येातियञ्ज्यतिः स 








त्पयोर्थः । एवमध्यात्माविदेवयाः प्राणादित्यपृरूषयेभंदेन 
प्रतोयमानस्थानगरक्रियाणामभेदद्शनं विधाय यनस्तावनूद्य 
सगायचिव्यादहतिप्रणत्रालम्बनं तयारूपासनं विदधाति ““श्रवा- 
ग्विचिरत ° साविच्या चेति" दति एता प्राणादित्यै 
यथाव्धाख्याते अवागदूरो सन््िदितेा विचरतः परिवतेते 
दय बाह्याकाशे चेत्ययः। एता उपामोत ्टायेत्‌। कथं, 
ओओ{मत्यतदच्रेण एतेनात्तरणेत्येतत्‌, व्यादतिभिश्डमुतवः खरि- 
व्येताभिस्तिषटभिः, साविव्या सविढदेवत्ययचोा गायच्याख्यया 
चति । इतिशब्द चराङ्ाराद्यालम्बनविध्यपमंहारार्थः॥२९॥ 
ददानोमुपासनालम्बनत्वनाक्रस्याङ्ारस्य तत्वं प्रतिपा- 
द वि्ैस्ततस्ुतये तदत्य्तिप्रकारमाद द्रे वाव ° युन 
तेति दति। ब्ह्यणएः परम्यना द वाव दं एव दप 
खूप्यतेऽधिष्टानतया ब्र्याऽऽग्यामिति रूपे निरूपकं दत्यथः। 
के ते दत्यत श्रादः मूतंञ्ज मनं मृच्छंतावयवं कायं, च्रमूते 
तद्धिपरौोत च कारणं, ्रथानयामध्य यन्दतं तदसत्यं वाचा- 
रम्भणं विकारो नामधेयं" दति भ्रतेचद मूतं तत्सत्यं “सटत्तिक- 
५2 


८४ मेन्य॒पनिषत्‌। [ ९ प्रपाठकः | 


पादित्यः स वा रष स्ामित्येतदात्माभवत्‌ स 
चधात्मानं व्यकुरुता ओमिति तिधा माचा रताभिः 
सर्वमिदमोतं प्रातं चेवास्मीत्येवं दयादेतद्ा सखा- 


.~---~-----~-~---~-----~ ------~---~--------------~---~----~- ~~~ -~ ---- ~~~ ---------~-- ------ ~ ----~-~ ~~~ -~ ~- -~-~-~-~-~----~-~-------~--~-~ 


व्येव सत्यं द ति (ङान्देा०।६अअर०) खतेः यत्सत्यं पर माथसत्यं सवा- 
धिष्टानं तद्भद्मय परिदृटं सदेव सेम्येदमग्र च्रासोत्‌ तत्सत्यं स 
्रत्माः दति श्रतेः ब्रह्मणशन्दायमाद, यद्र्‌द्य तत्‌ ज्योतिः प्रका- 
शसभावं यत्‌ तज्ज्ये तिनद्याख्यं सश्रादित्यः ख्यः येन खयस्त- 
पति तेजसेद्धः इति खतेः। सश्रादित्यो वे एष बह्मप्रकाशा- 
त्मक अरामित्येतद्‌त्मा आङ्कारखरूपाऽभवत्‌ प्रणवात्मनादित 
दत्यर्थः। रोद्धारो नु ज्ञात्रं प्रसिद्धं "तदा एतदनुज्ञाचरं यद्ध 
किञ्चानुजानाद्योमिव्येव तदादः इति (कान्दा०।९अ०) श्तेः । 
आरादित्यञ्चानन्नां कुव॑न्निव जगतामुदेति “य एवामरै तपति तम्‌- 
द़ीयमपासोतामिति छेष खरनेति, दूति भरते: एवं प्रणवोश्तः 
सख आदित्य ्रात्मानं प्रणवं तरेधा चिप्रकारमकुर्त छतवान 
खरमितिच्रडउम्‌ इति तिसा माचा श्वयवाः, एताभिः 
सव॑मिद्मेातं प्रातञ्चेव । यया दीर्घतन्तुषु ति्यक्तन्तवः प्राता- 
स्तियक्तन्तुषु दी ध॑तन्त्व च्राता वैपरीत्येन वा परस्परं संयागवि- 
गरेषेरेकोश्दताः सन्तः पर शब्दवाच्या भवन्त्येवं प्रणवात्मके मय्ये- 
वाग्रेषस्यातप्राततचावस्यानाद इमेव प्रणवात्मातद्च प्रत्यास 
न मत्ताऽन्यत्‌ किञ्चिदिन्येवं द्या । स रादित्य यतस्तस्मा- 


द्‌ प्रपाठकः।| दीपिकासहिता। ८५ 


दित्य ओमित्येवं ध्यायत आत्मानं युञ्जीतेति ॥ ३॥ 

अथान्यचाप्युक्तमथ खलु य उ्गीथः स प्रणवो 
यः प्रणवः स उन्नी इत्यसोा वा आदित्य उद्गी 
रष प्रणवा इत्यवं चयाहानीयं प्रणवाख्यं प्रणेतारं 


.---~---~--~~-~ ~ -- ----~-~--~---~ ~~~ ~~. -~---------- न ~-----------" "---~-----------=~-------=~ > ~~~ ~ 


देतद्धै एष वै श्रादित्य ्रामित्योङ्कार एवैत्येवं ध्यायत चिन्तयत 
दे वालखिल्याः श्थानशन्दाथमाह आत्मानं प्राणप्रघानं प्रत्य 
चचमादित्ये अ्रादिव्यञ्चात्मनि य॒ख्जीत, व्यत्यये बङलमिति 
लकारवचनव्यत्ययेनं याजयत, एकात्मतां भावयतेत्य्थः। दतो- 
त्यनुवाकसमा्यथेः) इ ॥ 

ऊॐकारेणात्माभिष्यानविधिं मदीकर्वस्तत्रैव विग्रेषान्तर 
विधित्छन्नाद “शत्रयान्यचाण्यक्तं ° तस्य तत्‌ः" दति। अरधैत- 
दन्य कान्देाग्येऽष्युक्तं प्रण्वस्योपासनं, यद्यपि तचाङ्गावब- 
दमपाखनमिद तु खतन्तं तथापि स्तुत्यथमुदादरणं न 
गणापमंहाराथेमिति द्रषट्यं। प्रणवाद्नोययारेकत्रकयनार- 
म्भार्ाऽयशन्दः। खलशन्दः क्मप्रकरणेाक्तेद्गोयस्मारणा्थैः। 
य उद्य: सामगानामुद्गौयभक्यवयव ्राङ्कार्‌ः ख बदङ्कचानां 
शस्ताङ्भ्तः प्रणवः, यख बह्चानां प्रणवः स उड्ादठणा- 
मद्रौयः। एवं शस्तस्ताचाङ्गतया भिन्नव्याननिवेशिनोारोाङ्ा- 
र व्यत्यारभेददृष्टिं विधाय तस्याद्रीयात््रकस प्रणवस्यादित्या- 
त्मना द्रष्टद्यतामाद, इत्यत वा श्रादित्य उद्नोय उद्गीया- 


८ भेन्यपनिषत्‌। | € प्रपाठकः । 


भारूपं विगतनिद्रं विजरं विष्त्युं चिपद्‌ व्यद्छर पुनः 
पञ्चधा ज्ञेयं निहितं गुहायामित्येवं च्यादाईुमूलं चि- 
पाद्रह्म शाखा आखकाण्वाखग्न्युद्‌कभृम्यादया रुका- 


वयव श्ाह्रार इत्यर्थः) एष रादित्य एव प्रणवः शस्ता ङ्ग 
भत शओद्धार दद्यदं दि श्राद छान्दाग्य्रतिरिव्ययः। एवं 
स्तुत्या मरीतमादित्यं पनविग्मिनष्टि गणान्तरविश्ष्टतया 
ध्यानार्थं, उद्गीयमित्यादिना। कन्दागानामद्भोयमभत्यपरयतव- 
त्ननेद्गोयं वद्धचानां भस्तान्तगतप्रणवास्यं प्रणेतार प्रक्पण 
तत्तत्कर्म प्रवत{यतारमत एव प्रणवास्यमिल्ययः, भाः 
प्रकाशा रूपं खष्पं यस्य म भारूपस्त, विसता नित्यानित्य- 
निदटत्ता निद्राऽविद्या तनाङूपा यष्रात्‌ तं विगतनिदर, वि- 
जगः जराग दितं सदकरपमिति वावत्‌, व्िग्टत्यं विगतब्द- 
त्य॒मविनाशिनं, चीःण पदानि यस्य जागरत्छ्नसुपुप्राख्यानि 
प्राणरूपस्य शर्मुवःसखरिति अंन्ताक्याण्यान्यादित्यरूपस्य म 
चिपदस्तं विपद्‌, चौष्यरगणि यस्याकागाकारमकारा- 
स्यानि प्रणवस्ट्पस्य स व्यररस्तं व्यचरं, पुन: पञ्चधा ज्ञयं 
-वचिन्तयता गदायां देचकुदरदूपायां निद्ितमाभितं ददा- 
न्तखरन्तं प्राणापानादिखूपण पञ्चधा ज्ञयमित्ययः) दृल्यवं 
दि आद रृणएव्रिधायिनौ श्रुतिरिति शेषः! एवं विश्षितमा- 
ित्यननेल्दपा्ार्ताति वच्चमाणेनान्वयः । उक्तविभशषणस्या- 


~ ~" = ~^ = ~ 


* {च[तंस्त {ति लिखित। 


€ प्रपाठकः ।| दीपिकासद्हिताः। € 


ऽशवत्धनामेतद्र द्यैतस्यैततेजा यदसा आदित्य ओ- 
मित्येतदष्टरस्य वेतत्‌ तस्मादामित्यनेनेतदु प्रासीता- 
जखमित्येकाऽस्य सम्बाधयितेत्येवं द्याह । रुतदेवा- 


दित्यात्मनोा भारूपं विेवता ध्येयमित्यभिप्रेत्य वादखवाच- 
कया: परन्रह्युप्रणवयाः मारभ्रताऽये सवितेति तन््द्दिमान- 
माविव्कराति ऊल्ग॒न्मिति) ऊद्ध विकारातीतं परं ब्रद्ध 
मृत्वसुपाद्‌ानं। नदद मुलं स्सरूपता निदिभ्रति चिपाद्रृद्यति। 
चिपाद्ग्याण्तं दितीति मन्त्रभागप्रका्ितं पिकारातोतं 


१ 


त्‌ ¬ "छ इर 3 र च 
न्यान्व वाच्यत्रपञ्चुग्यादलनमाद्च ऊ मून्न।म्त्य 


= 
क 


: | ग्रस्य 
श्राखा अकाशादया विकाराः, ्रम्यादय दत्यादिपदरन चरा- 
चरग्रदः, ण्ट प्रम्द्धियं) "एव॑नक्तषणः एके ब्रह्माण्डन- 
तण: समष्िपण्डाऽ्रलनामा ्ःपयन्तं स्यास्टतोति विन््रा- 
सानदलाद्‌ ग॒त्वसनज्ज्ञ दत्यधः। यद्‌तदग्यरत्यम{ल्ज्ञत जग्द्‌तद्भद् 
न्रह्मापाद्‌नलान्न तताऽरन्यददत्ययः, तथाव काठकम्रति; 'ऊन्व- 
मृन्ण चवाद्शाख एष्एऽ्त्यः सनातनः) तदव पक्रं तद्द 
तद वास्टतमुच्यते' दति । एतस्य म्ववाच्या्रयतया सवात्स- 
कस्य ब्रद्वाण एतत्‌ तजः प्रकाशः सार इत्यथ॑ः। किमित्युच्यत 
यदमा आदित्या याऽसावादित्य. प्रसिद्ध एतद्रृद्धाणस्तेन्न इति 
योजना । सवदाच्याधिष्टानब्रह्ममारलम्‌क्ता सववाचकाधिष्टा- 
नप्रणवसारताद्चासयापदिभशलति ्मित्यतदचरस्य तदिति 
एतत्‌ तेजा यदसा आदित्य दति पृण याजना। अङ्ारा- 


ष्ट मेन्युपनिषत । [€ प्रपाठकः । 


क्षरं पुण्यमेतद्‌ वाश्शरं परं । रुतद्‌वाक्षरं ज्ञात्वा या 
यदिच्छति तस्य तत्‌ ।॥ ४॥ 

अथान्यचप्युत्तं सखनदत्येषास्य तनूया आमिति 
स्त्रोपुन्नपुसकति लिङ्गनवत्येषाऽथा्िवायुरादित्या इति 
दित्यचारुक्रं मदिमानमनुोपासखलं सिद्धमुपसंदरति तस्मा- 
दिति। एतत्‌ प्राणादित्यत्मकं तत्वमजस््रमपासोतेति सम्वन्धः । 
इतिशब्द उपासनविष्यनवादममाद्यथः। प्रणएवनोापामनवि- 
धिस्तुतये प्रणवमा दाक्छवादि वाक्यमृद्‌ादरति एकोऽस्येति। 
शरस्य प्रणवस्य एकः श्चाकषूपा मन्तः *सम्बाघधयिता मादाक्य- 
प्रकारका विद्यते इत्यवे याद कटश्रतिरित्यथंः) तमेव 
द्याकं किञ्चिदत्तरभदेन परति एतदिति एतदवाक्तरं 
प्रणवाख्यं प्यं प्षप्रदं पुष्कमसु प्रय॒ज्यमानमित्ययः, एत- 
देवात्तर पर परब्रह्मुप्रकाणकं माक्तद सित्यथः। किं वद्धना 
एतदे वात्तरं ज्ञाला ममेष्टदमेतदव नान्यदिति रित्य 
तत्परः सन्‌ या यदिच्छति ्रभ्धृद्यं वा माच वा फलं तस्य 
तद्धवत्यरेत्ययेः ॥ ४॥ 

एपनरप्यपास्यस्यात्मना गृणान्तरविधानायोत्तरोऽनुवाकः 
“शश्रयान्यचाप्युक्तं ° अलर्ति" इति। अस्य प्राणादित्या- 
त्मन एषा तनुस्तनु: खनवतो शब्दवती । सा केत्यत रद या 


*# सम्बन्ध्िते(ति टीकापाढठः। 


ह्‌ पपाठकः।| दीपिक्रासहिता। ८९ 


भास्वत्येषाय त्र्या रुद्रो विष्णरित्यधिपतिवत्येषाय 
गाहपत्यो दक्िणाभिरादवनीया इति मुखवत्येषाय 
कग्जुः सामेति विज्ञानवत्येषा भभुवः स्वरिति लोा- 
कावत्येपाथ भूतं भव्यं भविष्यदिति कान्नवत्येपाथ 
प्रखाऽखिः खया इति प्रतापवत्येपायान्नमापखन्द्रमा 
इत्याप्थायनवत्येपाघ वुद्धि मनारदङ्धारा इति चेतन- 
वत्येपाय प्रख्ऽएनेः च्याना इति प्राख्वत्येपेत्यत 
खा मिन्युद्तेनेताः प्रस्तुता खर्चिता अर्पिता भवन्तीत्येवं 


+ न न्क +~ = ~ ~ -------------~------- ~ ~ ~~ क, 
= _...~-~-.~ ~ ------~---~--- - ----------~--- ~~ ~~~ ---- += ¬ ,* ~ --~-----~------~“* ~ ~~~ 


स्रितनि ऋद्कारस्ट्पा तनरूद्‌ात्तानुटात्तस्धरितरूपवचं- 
स्लयं॑र{व्वायमाणा खनउतीत्ययः। प्रएवादरयवेग्वकारादिपु 
एककः {चिक िकमवयवशा विभनच्छ प्रणवावयविनः सनवत्या- 
चात्मतासापाद्य तादृक्‌प्रलवतनुलन प्राा{दित्यात्यनस्तत्तद्ु 
एवश्च ष्य्यमिति प्रकरणा; । येषां यं सखवभावमिद्धा घमा- 
सस्तदल्येयति सुवायाऽचराश्ैः, इति यतः यत; च्रासित्- 
करमाच्तरण एताः प्रसुताः खनवत्याद्यास्तनताऽखिताः पजि- 
ता; स्तुताः रप्ति: प्राणदित्यात्मनि विभेषणलत्वन सम{प्तिः 
समारापिता भवन्तोल्येवं दि आद एतमयं प्रद्मश्रतिरित्ययः। 
तामव पठति एतदा दति) पिष्पनलाद्‌ च्राचायः सल्यकामं 
भिय्यं प्रत्याद इद सत्यकाम ओआ्मित्येतदकच्तरमिति यद्‌ स्ति 


एतद एतदेव परद्चु ब्रह्म अपरच्च ब्रह्मति विद्धोनि। परा 


११, 


&० मेन्यपनिषत्‌ | [ द प्रपाठकः 


ह्या हेतदे सत्यकाम परच्वापरजच्च ब्रह्म यदामित्येत- 
दश्षरमिति॥५॥। 

पथाव्याहत वा इदमासीत्‌ स सत्यं प्रजापति- 
स्तपस्तघ्ानव्याहरद्वभवः स्वरित्येषेवास्य प्रजापते 
स्थविष्ठा तनया लाकवतीति स्वरित्यस्याः श्रि ना- 
भिभुवेा भुः पादा आदित्यश्चक्षुः। चक्षुरायत्ता हि 


= ~---~~~--~---"~----~----------'~----------~----------~--~---~----- ~ ~ ाा > - + ~ 


परब्रद्मन्नानापासनयारालम्बनमेतद्‌वाचरमित्ययः॥ ५॥ 
एति प्राणादित्या एता उपामीताभमित्येतद्‌ तरेण व्या 
तिभिः साविच्छा चति यत्‌ खछनमृपन्यस्तं तच प्रणवापकिता 
विशेषः सवं उक्तः, ददानो व्याहत्यपेक्तिता विगेषस्तदुत्पत्या- 
दिप्रशंसनेनापपादनोय इत्य॒त्तरोाऽनवाक श्रारभ्यते “शच्रया- 
व्यातं ° चत्त: दति । च्रयति व्ादइतिव्यास्यानारम्भायः। 


ङ 


ददं चेलेक्यं पूवेमव्याहतमण्ब्दनिदिंटं वै श्रासोत्‌, सत्यं स 
प्रजापतिरिति सम्बन्धः सच त्यद्धीत सत्यं पञ्चग्रतपरिणामा- 
त्मकमव्धाहतमामोत्‌ । तदा सख प्रजापतिस्वेलाक्यशरीरोा ब्रह्मा 
तपस्तन्वा प्रागादितसंस्कारोद्ाघकमालाचनं कछला श्छूमुवः 
खरित्येवमन्‌व्यादहरदनुक्रमेणाच्चारितवान्‌ पाद्नाभिशिरः- 
प्रदेशानालमभ्य श्भुवःसखरिति क्रमेणाचारितवानित्य्थः। एवं 
स्प्चारणे देतुमाद एषेव लाकचयात्मिकास्य प्रजापतेः ख- 


विष्ठा स्टूलतमा तन्‌; शरीरं या लाकवतोति पूकानुवाके- 


€ प्रपाठकः || दौीपिकासद्धिता। ९१ 


पुरुषस्य महती मात्रा चक्षुषा चयं माचाश्चरति सत्यं 
व चश्षुरक्िण्यवस्थितेा हि पुरुषः स्ीर्थेषु चरत्येत- 
स्मात्‌ भूभुवः स्व रित्युपामीतानेन हि प्रजापतिर्विश्वा- 
त्मा विश्चक्षुरिवापासितेा भवतीत्येवं दयारेषा वैँ 


= = ~~~ ----~ --- -~-----~--- - ------- -------------- ~~~ --- ----~ -- --------~- ~~ 
--*------ - -- ~ “~-+~-~ ~~~ --------~-~ ^ ~~~ -~ ~ 


ऽवा चमित्यध्याद्ारः। तत्र का व्याहतिः किमङ्गवाचिकत्येत- 
दिभजते खरित्यादिना। ्स्यास्तन्वाः। -एवं व्याहन्यृत्प्तिं 
तद्‌ य॑द्चोपरिश्य प्ररुत्स्यादित्यात्मन उपास्यस्य तत्सम्बन्ध वक्तु 
व्यादहतिश रौर प्रजापत्यवयवनां तस्यापदिश्ति ्रादित्यञख्चल- 
रिति। सवोङ्गषु चचषः प्राघान्यम्‌पपाद्‌यन्नादित्यं महोक- 
रोति “'चक्तुरायत्ता ° उपासोतः” इति। परुषस्य व्यवदतः 
मदत ्रपरिमिता माचा मीयते ज्ञायत दति माचा विषयः 
मितिग्व वा माचा विषयसिरद्धिः, दि निशितं चन्तरायत्ता 
चच्चरधोना। उक्तमयं लेाकप्रमिद्धोापपादयति हि यस्मादयं 
परुषश्यक्तषषा माता; विषय्छिरति दूरस्यानपि निन्नान्नतषम- 
विषमदेशानपि प्रतिपद्यते अतत्तुरायत्ता परूषस्य मतो 
माचेत्ययः। प्रजापतेमुस्याङ्गवेनादित्यं मदीरु्येदानो साकच्ा- 
देव प्रजापत्यात्मतां सम्पादयति सत्यमिति। वै प्रसिद्धं चतः 
सत्यं चक्षदृष्टस्य सत्यवप्रसिद्धेः प्रजापतिरपि सत्यं सत्पद्‌ात्म- 
कञेलाक्यशरौरलात्‌, अतञ्चच्रादित्यः सत्यभिल्क्ते सत्यात्मा 
प्रजापतिरादित्य इृष्टुक्तं भवतोति भावः। चकृषः सत्यवम्‌प- 


॥, कि 


९२ मेन्यपनिषत्‌ | [€ प्रपाठकः । 


प्रजापतेरविश्वशत्नूरेतस्यामिदं सव॑मन्तहिंतमस्मिंघ 

सर्वस्मिन्नेषान्त्हितेति तस्मादेपापासीत ॥ € ॥ 
तत्सवितुरबरेण्यमित्सौ वा आदित्यः सविता स 

वा णवं प्रवर णीय' आत्मकामनेत्याहब्रद्मवादिनाऽय 


८ -----~ ~ -----*~~ ~ -----~--~-- -~----------“----- ------~--~ ५७ 








पादयति श्र्िणेति। चरत्यविखंवाद्तया इदि प्रसिद्धमेत- 
दित्यथः। उपमस्‌दरत्येतस्मादिति) उक्राद्धतारित्ययः। ्रनेन 
दि व्यादव्यात्मतयादित्यात्मोपासनेन विश्चक्लः खयं दव 
विग्ात्मा प्रजापतिरूपासिता भवतीत्येवं दयार कचिच्छुत्यन्त्‌- 
रमिति शेषः । किमादेति तदाद एषेति । एषा वे पृवाक्ता 
खयर्ूपा प्रजापतेन्ह्यणा विश्यं विभर्तोति विश्चग्टत्‌ तन्‌; श- 
रौर । क्यमस्या विग्ण्डच्चभिति तदाद एतस्यासिति। एत- 
स्यां तनो ददं सवं दृश्वमन्तर्ितं गं श्रादित्यप्रकाशाच्छा- 
दितमेव सवमित्ययः। तयास्प्िञ्च सवस्मिन्‌ दृश्ये विषये एषा 
तनुरन्तद्िता तत्तद्थप्रकाशकत्ेन तन्तदात्मतामापन्ना सती 
भरारुतेजनेः परिपृणा न दुश्त शत्यः यद्रा प्राणष्ूपेण 
सवस्मन्नेषान्तहितेत्ययेः। व्यादतिगणविधिमुपसंदहर {ति तस्ना- 
दिति) एषा व्यादव्यात्मिका तनुरुक्रा त्ञादेतां तथैवापा- 
सीतेति याजना ॥ ६ ॥ 

ददानो पृं प्रतिज्ञातां माविचरीशरीरतान्चारापपाद्‌- 
यितुमत्तरानवाक श्रारभ्यते “तत्सवितुः ° ब्रह्मवादिनः 


~ ~~~ ---~~---~-----~---~--- ~~~ --------~------ - - ----- ----- ------------ 


^ प्रचरणौय इति पाटएन्तर्‌ | 


~~~ "~~~ ~--- ~ 


+^ ~~न 


द्‌ प्रप्राठकः|| दीपिकासहिता। ९२ 


भगा देवस्य धोमदीति सविता वे देवस्ततेा येऽस्य 
भगास्यस्तं चिन्तयामीत्याहर्बह्यवादिनेऽय धिया योा 
नः प्रचोदयादिति बुद्धये वे धियस्ता येाऽस्नाकं प्रचो- 





~ -"~-----~---~--~~------~-~---------- ~~ --~--~- ~ = --~--~~- - ---------------- ध 
~~~ ------ ---~----~ ~~~ कनान्‌ 


^ £ = 


दति च्रादौा मन्लप्रतीकान्यादाच वाचषे तत्स दितु्वरेष्य- 
मिलति प्रथमः पादस्तस्यायाऽसयौा वा इत्यादिनाच्यते। तच 
सवितुस्तत्छरूपं उ गे यमत्यन्यये सवितुरिति ष्टौ पुरुषस्य 
चेतन्यसितिवद दिवचितस्वायति मला सविटप्दाथमादामोा 
वा द{ति। श्रसा चं प्रसिद्धा जगद्‌ वभामकलेन विभाव्यमानः 
सतिता सवितुरिति मन्लपद्‌नाक्त इत्यथः, वरण्यणनब्दामाद् 
सवादू{ति। सवम एव सविता, एवं यथाक्तात्मखषूपण 
प्रवरणोयः प्रकषण तद्‌कनिषटतया प्रास्नौयस्तद्‌ात्मभावना 
काय{ति यावत्‌, केन आत्मकामेन, काम्यत दति काम आत्मेव 
वमः प्रया यस्य स आत्मकामस्तेन च्रात्मनः खाभापिक- 
सरूपा विभावकामरनति यावत्‌ । दत्याद्धत्रह्यवादिनेा ब्रह्मव- 
दनशेला वेद्‌ाथविद इत्ययः दितीयपाद्‌प्रतीकारम्भाय्ा- 
यण्रन्द्‌:। भगा देवस्य धौमरीति प्रतोकग्रदणं । तच द्‌वपद्‌- 
स्या्थमाद सविता वे देवः! सवितेव देदशनब्दा्थैः, सएवद्या- 
तनाद्‌व उच्यते चापि षष्ठा न विवक्वितः। ततस्तस्मात्‌ 
द्यातनखभावलादयाऽस्य सवितु्भमाख्या याख्याखमानभगशब्द- 
वाच्य श्रात्मा तं चिन्तयामीति धीमदोत्यस्यायेमाङ्नरेद्यवा- 


६8 मेन्युपनिषत्‌। [ € प्रपाठकः । 


दयादित्याह्रद्यवादिनः। अथ भगा इतिय 
वा अमुप्पिन्नादित्ये निहितस्तारकाऽश्िणि वेष भ- 
मास्या भाभिर्गतिरस्य दीति भर्गा भर्जयतीति वेष 
भगा इति रुद्रो बद्यवादिनाऽथ म दति भासयती- 


-- ------ ---~ ------~------~--------~--~_-~~----~-~-~_-~--~-~~~~~ 


दिन दति) पूववत्‌ चिन्तयामोत्येकवचनम्थतः पयायनिदेशन- 
परंन तु धोमदीत्युक्तव्धवचनस्यैकवचनान्तलेने प्रद भनार, 
“वयं स्याम पतये रयीणां? दतिवत्‌ कर्चक्येऽपि मन्त्रेषु बज्न- 
व चनप्रयेगस्य साघधलात्‌ चललृरादिकरणापाधिमेदनेकस्मिन्नपि 
बद्धतवमम्भवाटेति द्रष्टव्यं) अय दतोयपादग्रदा धियायोानः 
प्रचोदयादिति) धघोशब्दायंः प्रसिद्ध एवत्याद बुद्धया वै 
धिय दरति। श्रन्तःकरणटत्तय दत्यथंः। ताः बुद्धौरखाक- 
मस्मदीयाः यः प्रचोदयात्‌ प्रष्टं प्ररचवित्याशिषि लिडः 
दत्याङरिल्यक्राथं । तथा चेत्थं मन्तयाजना, यो देवः सविता 
तस्य सवितुर्दवस्य तदरण्यं भगास्यं वयं घौमहि सना धिया 
धीः प्रचादयादिति। यदुक्तं मन्लव्याख्यानेऽमा वा आदित्यः 
सविता, सविता वै देवः, यस्य भर्गाख्य इति च तचारित्य- 
सविदटभगंशव्दान सष्टाया ईति तान्‌ व्यास्यातुमारभमाणा 
ऽतिगदनार्थवाद्वर्मशन्दायं तावदा “त्रय भमा ० भमः 
दति। श्रय पदविभेषारं उच्यते भगंडति, काऽथाऽयमेवयोा 
चय एववे य आदित्ये तिष्ठन्‌ यश्चचषि तिष्ठन्निति च 


ह्‌ प्रपाठकः।| दीपिकासहिता। ९१५ 


मान्‌ लोकान्‌ र इति रच्यतीमानि भूतानि ग इति 
गच्छन्त्यसिमिन्नागच्छन््यस्मादिमाः प्रजास्तस्माद्धरग- 
त्वाद्धगंः। शश्वत्‌ खयमानात्‌ ञ्यः सवनात्‌ सविताऽऽ- 


यत्यन्तर प्रसिद्धाऽमृग्िन्नादित्ये मण्डलात्मनि निहितः सननि- 
दितस्तयान्निणि चक्तमण्ड्ले वा यस्तारकः छृष्णतार कोापल- 
लिताऽन्तयामे देवं एष मगास्य इति। भगत्मस्य कथयमि- 
त्यपेच्चायां तन्नाम निवक्ति भाभिरित्यतदिना। भाभिः कि- 
ररोरयिष्ठानघभमैरस्य गतिर्गमनं विषयव्या्िरस्येति व्यत्पन्ते- 
भगं इत्येकं निव॑तनमित्यथः। निवेचनान्तरमाद भजयतो- 
ति। वा श्रयवा भजंयति जगत्‌ संदरतोति रुद्र भगं इति 
ब्रह्मवादिन आहरति याजना दद्‌ानीं भकाररफगका- 
राणणं प्रत्येकनिवचनं ब्नवन्नम्य भगाषख्यां मरीकरोति श्रय 
भ दृत्यादिना। भासयति तजामण्डलान्तगतचितप्रकागेनेमान 
सवानेव लाकानिति भ इत्युच्यत इत्ययं;। दूमानि शतानि 
स्थावर जङ्गमात्मकानि प्राणानुगतचिद्‌ानन्दात्मना रज्यति 
प्रीएयति सुखासक्रं करातोति र उच्यत दत्यथः। अस्मिन 
सवकारणात्मनि सुषुप्िप्रलयदोाः सवाः दमाः प्रजा गच्छन्ति 
लयं प्राप्नुवन्ति तथा प्रबोधष्क्छोरस्माद्‌वागच्छन्तयाविभव- 
न्तोति ग दल्युच्यत इत्यथः। तस्माद्धासनाद्र्‌्रेनान्नमनाच 
भरगव्ाद्भगे इति सवाद्योच्यत दत्यथः। इईद्‌ानीमादित्या- 


८९ मेन्यपनिषत्‌ । [ € प्रपाठकः। 


दानादादित्यः पवनात्‌ पावनेऽथापा प्यायनादि- 
त्येवं दाइ । खल्वात्मना त्मा नेताखताख्यश्चेता मन्ता 
गन्तात्लष्टानन्दयिता कता वक्ता रसयिता घाता द्रष्टा 
श्रोता स्छश्ति च विभूर्विग्रहे सन्निविष्टा इत्येवं च्या ह। 


दिनामनितंचनं क्ुवस्तत्पयायशब्दानपि कांशिन्निवक्ति ^शय्त्‌ 
° द्या" दति । श्यत्‌ पुनः पनः दछयमानात्‌ सवनकरणात्‌ 
सख्यः, छया दि प्रातरादिसवनकता प्रसिद्ध इत्यर्थः सवना- 
दन्नादिनिष्पाद्नेन प्राणिनां प्रसवनात्‌ सविता । आद्‌ाना- 
द्ैमरसानां प्रा्छायुषां वा ऋरित्यः। पवनात्‌ पवित्रीकरणएते 
पाठने वाव्दा्माप्येष दत्ययंः। चरथ चपि छापा जलमय 
मित्यर्थः । कतः पायनाञ्जगद्‌ाप्यायनादित्ययथेः। दृल्येवं हि 
नएमनिवैचनान्यभिप्रेत्यादाचाये दत्ययः एवे मन्तपादद्योा- 
क्रमाधिरदरवकं तत्वं निर्च्य दतीयपाद्‌ाक्तमाधष्यात्िकं त्वं 
निर्वक्ति “खल्वात्मना ° द्या" दति। अण्टतास्यः प्राणरूपः 
प्राणा वा अब्टतमिति गरुत्यन्तरात्‌ अण्टताख्यः खल्‌ प्राणद्ह्प 
परात्मनः कायकारणसद्नातस्य नता प्रणोपाधिक आत्मा 
मर्त्यसद्गातमेटलेन तता विलच्णलत्वादग्तास्य दूत्य्थः। वचित्त- 
टन्युपाधिक श्वेता, मनोदत््युपाधिना मन्ता, पादापाधिप्रधाना 
गन्ता, पायुपाधिनोत्लष्टा, उपस्छापाधिनाऽऽनन्द चिता, दस्ता- 
पाधिकः; क्ता, वागिद्धियेपाधिको वक्ता, रसापाधिक्रा रस- 


ट पपरःठकः।| दी पिक्सदहिता। ९७ 


अथ यच देतीभ्रतं विक्नानं तच हि णोति पश्यति 
जिभरति रसयति चेव स्यश्रयति सर्वसात्मा जानीतेति 


-- -~ ---~- ~--------------~ - --- -----~--- = 


यिता प्राणोपाधित्राता चक्तरूपाधिक द्रष्टा ख्राचोपाधिः ओआ- 
ता त्वगिद्धियापाधिः स्युश्ति स्युटा मवतीव्यथः, चकारादृद्या- 
ध्यवसितादङ्कारेणाभिमन्ता चच्यते । काऽयमेवं व्यपदिश्यत 
दूत्यत राद विभुव्धापका विग्ररे ददे सनिविष्टः सम्यगभि- 
मानितया निविष्टः खष्टेवेश्वरोा देदमनुप्रविष्टः प्राणन्तःकर- 
णेन्ियापाधिभिनानाव्यपदेश्भारभवति स एकः सवनृद्धि- 
परेरक श्रात्मापास्य दत्यभिप्रायः। दत्येवं द्यादेति पूञवत्‌। 
नन्वेकस्यात्मनोाऽनेकापाधिकतः संज्ञाभद्‌ इत्ययक्तं प्रतीय- 
मानप्रातिखिककायंभदनात्ममेरस्य प्रामाणिकलादिति प्रास- 
ङ्गिकं राद्यं परिदतुमात्मानात्मतच्वं निषटपयति “श्रयचत्र ° 
तदवाच्यं” दति। श्रयेवं सति शआ्रत्मभेद्‌ शद्धा न कायति 
यषः! यच दईतीश्रतं मेदमापन्नं विज्ञानं चित्मरकाशस्तच हि 
तस्यामवस्थायां जाग्रदादौ प्रणति पश्वतोत्यादिव्यपदेश- 
मागात्ा भवति न खभावत इत्ययः । कथमेतद्‌वगम्यत दति 
तचरा सर्वमात्मा जानोतेतीति सवं सव॑द्धियदारं व्यवदार- 
जातमात्मा -एक एव जानोते खात्मकनिष्टव्न प्रत्यभिजा- 
नाति, दइतिदेतानं परमाय भेद दत्यथंः। तथाच अत्यन्तर 
नच्क्तत्येवापासोताच दधेते सवै एकं भवन्तिः दल्युपाध्युप- 
रागपरित्यागेन संवैपष्येपलल्ितमेकमात्मानं निरुपपद नात्म- 


॥१। 


६८ मेव्यपनिषत्‌ | [ € प्रपाठकः | 


यचादैतीभूतं विज्ञानं कार्यकारणक्मनिमुं्तं निवे- 
चनमनेपम्यं निरुपाख्यं किं तद्‌ वाच्यं ॥७॥ 


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.._....___---~------~-----~---~--~-----------~--------- ~ -------~ ---------- -~----~----~---~---~--~ 


शब्देन निर्दिशति, लेके च यशचच्तषा रूपमद्रात्तं साऽहमिदानों 
रसनेन रसमन्‌भवामीति प्रत्यभिज्ञानुभवः प्रसिद्धाऽता नात्म- 
मेदरशद्धति भावः उपाश्यन्वये भेद्दशंनं दखपदेश्भेदञ्चोपपाद्य 
तद्यातिरेके तद्मतिरेकम्‌पपाद यति यत्रां तौश्चतमिति। यत्र 
यस्यामवम्धायां सुषुष्यादै संवैपाध्यपरमाददेतोभ्चतं विज्ञानं 
ततरे्यध्यादारः तदा कार्यकारणकमंभिविंषयकरणक्रिया- 
भिर वच्छेद कौ निंसक्तममंस्यषटं अतएव निवचनं विगेषसञज्ञा- 
वचनद्न्धं च्ननुपममेवानेापम्यमृपमार दितं खता निर्विषमि- 
त्यर्थः श्रतणएव निरूपाख्यमप्रमेयमिदं तदित्य॒सेखायोग्धमि- 
स्यथः । किमेवं निषेधम्‌खेनाच्यते, इदं तदिति कस््मानेाच्यत 
दूति शङ्कते, किं तदिति। श्रश्क्यं तथा वक्नमित्युत्तरमाद 
च्रवाच्यममिति। सर्ववाग््यापारोापरमे यदवशिव्यते सवापर- 
मसाचित्रेन तददैतं विज्ञानं खाभाविकमात्मरूपमिति भावः, 
तया च हदचदारण्यकं यच दि दैतमिव भवति तदि- 
तर इतरं पश्छति' दत्यादिना दैतदभर॑नसखयाभासतामक्ता "यत 
त्वस्य सवैमात्मेवाच्छत्‌ तत्‌ कन कं पश्येत्‌" दरत्यादिनाऽ्द्रेतमात्म- 
तत्वमृपपाद्‌ यति ्रतिः। तस््मादनामरूपक्रियस्यात्मना नाम- 
रूपक्रिया श्रविद्याकल्तितप्रपद्चापाधिनिवन्धमा एवेति परमार्थं 
दति) ऽ॥ 


९ प्रपाठकः || दोपिकासददिता। € 


रप ह खल्ात्मे्यनः शम्पमभवा रुद्रः प्रजापतिवि- 
असक्‌ दिरण्यगभः सत्यं प्राणा हंसः शस्ता विष्णनो- 
रायणेऽकः सविता धाता विधाता सबराडिन्द्र इन्द्‌ 
रिति। य रुष तपत्यश्चिरिवाग्रिना पिहितः सदखा- 


यद्यप्येवं शारोरस्यात्मना न भेदः पारमार्थिकस्तयाप्यधि- 
टवाद्‌ादित्यात्मन ईश्राद्यं भिन्न दति शद्धा वारयन्‌ ररव 
नद्धाएदयाऽपि विश्धतय इत्येतमेव मदौकराति “एष [दि खस्वा- 
त्मेशानः ° इन्द्रिति' इति। य ईैशानादिभिः श्नब्देव्यप- 
दिश्यते श्रुतिरूतिपुरेषु स एष दि खल्‌ यः पृवानुवाकान्ते 
निदिष्ट एष एव नान्य इत्यथः । तच रुद्रान्तस्तमःप्रघानमाया- 
पाधिकः, दंसान्ता रजःप्रधानमायापाधिकः। शास्ता विष्ण- 
नारायण इति ब्रषद्धमन्वप्रघानमायोापाधिकः। जगत्संदारष्- 
छ स्वितिदतुतयाभिव्यक्रविशेषास्तत्तव्छञ्ज्ञाभाजा ये जायन्ते 
ते स्वैऽप्ययमात््ेव्यभिप्रायः। श्रयमेवाकेाऽच्यः युज्यः सवेतत्पर- 
लाश्रयत्वात्‌, तथाच श्रुति; “एष वा च्रश्चमधा य एष तपति 
तस्य संवत्सर अत्मायमश्िरकंः (छृददा०श्रग्े) दति। सविट- 
शब्दा व्याख्यातः। चअयमवात्मा ए्रथिव्यादिरूपेण घाता सर्वस 
धारयिता, विधाता पिचादिखूपेण पचादोनां निमाता, समाय्‌ 
मावभोमे राजा,दन्द्रः खराट्‌ खगाधिपतिः.द्रन्दुखद्माःप्रमि- 
द्धः, एते खवेऽेष एवात्मेति । किञ्च न केवलमेतावत्‌ “च एष ° 


¢ 2 


१९८ मच्यपनिषत्‌ | | < प्रपाठकः) 


छषेण हिरण्मयेनाण्डेन । रष वा जिन्ञासितव्या- 
ऽन्वेष्टव्यः सर्वभतेभ्यऽभयं दत्वारण्यं गत्वाथ बदहिःस- 


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[दिरणडयेनाण्डनः' इति यस्तपति जगद्मभितपति सविता 
साऽयेष -एवेति येजना । कथं तदि स आत्मरूपेण न विभा- 
व्यत इत्यत आदाद्चिरिवेति। यथा मदता ज्वालाजरिलेना- 
न्चिनाऽग्चिः दीपो मन्दः पिहित आच्छन्नो भवति एवं सद- 
खाक्तेणानेकच्छद्रिवता हिरण्मयेन तेजामयेनाण्डेन मण्डला- 
त्येन ब्रह्याण्डेन वा पिद्धित श्राच्छादितः, रता नात्मरूपेण 
दृश्छत दत्यर्यः। तथाच मन्तवः, “दिरण्सयेन पात्रेण सत्य- 
स्थापितं मखं" दति 1 यस्माद यमात काऽप्येकरूपाऽप्युपाधि- 
मिरमेकोाऽनकरूप इव च विभाव्यमान उपाध्याटृतनिजखरू- 
पस्तस्मात्‌ म॒मृचुभिरावरणएनिराकरणेन तद्‌ भ॑ने यत्न च्रास्छेय 
दत्युपदि शति “एष वा ° उपलभेतनमितिःः इति। एष एवा- 
च्या्माधिद्ैवरूपण विभाव्यमान च्रात्मा किंखरूप दति 
जिज्ञामितये ज्ञातुमेष्टव्ः, तत्तच्ज्ञानं सम्पादयितु गरूप- 
स्तिः कारखत्यर्थः । विज्ञानसम्पादनप्रकारमादाऽन्वे्टव्या गुरू- 
पदिषटवाक्यम्चद्‌माञ्चित्यान्देषणेन मननेनावधारणोय इत्य- 
यं;। तच "वेद्‌ान्तरिज्ञानसुनिखितायाः सन्चासयोागाद्यतयः 
रद्ध सत्वाः" दति आतिमाञ्चित्य सच्याषमात्मज्ञानाङ्गमुपदि- 
ति सर्वभूतेभ्य दति सवश्ताभयद्‌ानं स्न्याषः सच कमं 


द्‌ प्रपाठकः।| दीपिकासहिता) १०१. 


त्वेन्दरियाथीन्‌ *सखवाञ्शरीरादुपलभेतेनमिति । विश्च- 
रूपं हरिणं जातवेदसं परायणं ज्योतिरेकं तपन्तं | 


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परित्यागलक्तणः तं सवेत्यर्थः. स्न्यस्य गरुभ्यः सत्रह्मचा- 
रिभ्यश अवणमनने सम्पाद्यानन्तरमरण्यं विजनं दशं मनः- 
प्रसाद्करं गत्वाय तदा इद्धियायान्‌ वाच्यान्‌ दूरतः रवा- 
न्तःशरीर एवात्मानमन्वियय निदिध्यासनं कुवन्‌ खाच्छरीन्‌ात्‌ 
म्यृलदूच्छलचणाद्‌नमात्मानमुपलभेत साक्तात्कारवान्‌ भवे- 
दित्यर्थः। इतिशब्दः म्रासङ्गिकापदश्वम्र्यः दृदा्नीं 
प्रते प्रणादित्ययारेकवे प्रन्नापनिषद्रतं रन्मुदादरति 
““विश्वद्पं ° यः इति। पृढा्चं द्वितोयान्तानि पदानि 
प्रथमान्तवेन विपरिरेयानि, उद्यतोति क्रियायोागायें। 
विश्वानि नीलपौीतारोनि रूपाणि यस्य सष विश्वरूपः शश्रसो 
वाश्रादित्यः पिङ्गल एष प्रएक्त एष नील एष पोत एष लादि- 
तः इति श्ुतेः। दरति सवेषां प्राणिनिमायृषि भमान्‌ वा 
रसानिति दरिणणः। जातं जातं वेत्ति सवप्रृत्तिसाचितयेति वा 
जाते जाते विद्यते सव॑देहगताप्ररूपेण सतचक्तरधिष्ठाटले- 
नेति वा जातवेदाः परमयनं परायणं सवभासामाश्रयदति 
यावत्‌ ज्योतिरेकं च्योतिरात्मना एक इत्यथः, वद्धा ज्यातिः 
प्रकाशसखभावः एकाऽदितौयः खयं एकाक चरतीति श्रतेः 
तपति सँ सन्तापयति शेाषयतीति तपन्‌ । सदस्तरम्मिरपरि- 





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 »* खाच्छरोसादिति टौकापाठः। 


१०२ मग्यपनिषत्‌। | € प्रपाठकः। 


सदक्रश्िः शतधा वर्तमानः प्राणः प्रजानासुद्‌ यत्येष 
हयंः॥ ८॥ 

तस्मादा रष उभयात्मेवंविद्‌ात्मन्नेवामिष्यायत्या - 
त्मन्नेव यजतीति ध्यान प्रयागस्धं मनो विद्दद्धिष्टतं 
मनःपूतिमुच्छिषापहतमित्यनेन तत्पावयेत्‌ । मन्तं 


= - "^~ ~ -~----------~------ 
~~~ ---------^~~------- 


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मितकिरणः शतधा अनेकधा प्रति प्राणिनां प्रतिमां म्रतो- 
त्यभिमुखतया वतमान एष सन्दग्यमानमण्डलश्ः खयः 
सविता प्रजानां प्राणेऽन्तरात्मा उद यत्युद्च्छन्युदयाचलादि- 
ति मन््पदानामथः। तथाच मन्लवणंः; ख्य ्रात्मा जगत- 
स्तस्थुष' शति ॥ ८॥ 

तदेवं प्राणादि ल्यात्मनोाऽन्तबदिश्च विचरतः प्रजापते; कार्य- 
ब्रह्मणाऽनेकगणविशिष्टस्यादंग्दए प्रत्यगात््मतयापासनं प्रणव- 
व्याहतिसा विच्यनुबन्धमपदिश्य तनिष्टस्यापासक्स्योपस्यितान्न- 
भेजने कतेव्यविभरेषमुपदि शति ““तस्नाद्वा ° तत्पावयेत्‌" इति। 
एष प्वक्तः प्रत्यगात्मा यस्मादुभयात्मा प्राणादित्यष्हपः 
तस्माद तस्माद्‌ वंवित्‌ पूवाक्तग्रकारेण प्राणादित्यात्मविद्‌ात्मने- 
वात्मनि खखरूपाभेदेन वाभिष्यायल्याभिमुष्ेन प्रत्यक्तया 
्रणादित्यो ष्यायतोत्ययैः। तता यद्यजति पूजयति तन््- 
हिमानमाविष्करोति तदप्यात्मन्नेवेत्यथः। दति एवंप्रका- 
रण ध्यानं विद्रद्धिष्टुतं स्हुतं प्रणएरमित्यन्यः। किं तद्यानं 


६ प्रपाठकः |. दौीपिकासहिता। १०६ 


पटति । उच्छिशाच्छिशटापदतं यच्च पापेन दन्त 
सतखतकादा वसेः पविचमर्चिः सवितुश्च रष्मयः 
पुनन्त्वन्नं मम दुष्कृतञ्च यद्‌न्यत्‌। ऋद्धिः पुरस्ता- 


~~~ ~~~ - - ~ " ~~-------------- -- ------- ~~~ ~ - --~ 


प्रयोगस्थं उपासनाप्रयोगे खितं व्यातं मनः तेलधारा- 
घण्टानादादि वद्‌ विच्छेदेन दोघंकालादरनेरन्तस॑मुपास्स त्त 
निविष्टं मनारूपं च्छानमित्यथः। एवं ध्यायतः पुमो यो 
मनःपतिमंनसे, दुगन्धा दुवासनेत्येतत्‌ तन्मनः पूतिमुच्छिषटाप- 
तमित्यनेन वच्छम।रेन मन्ते तत्‌ तस्मिन्‌ काले पावयेत्‌ 
पपिच्रसेत्‌ 'एतन््रन्लामिमन्तितान्नप्राश्नेन प्राणाद्चिदाचवि- 
धिना च शघयदित्यथेः। “मन्त्रं पठति ° यदन्यत्‌"” 
दति। श्रन्याच्छिष्टं खाच्छिष्टं चाच्छिटाच्छिष्टम्‌ च्यते तेना- 
पहतं, यदा उच्छिष्टं च उच्छिष्टापरतच्चव्युच्छिष्टाच्छिष्टाप- 
दतमन्नं भोज्यं । पापेन पापात्मना पतितेन दत्तं यच्चान्नं, सटत- 
खतकाद्वा उपदतं ग्टतखतकिस्पषटं तत्खानमिकं दवा यदन्‌- 
मित्यर्थः । वसार्वसुनामना रेवस्य पवितं पावय, श्रग्मिर्वशा- 
नरः सवितुञख्च रश्मयो मम मद्भाज्यं तदन्नं पुनन्त्‌ पविचरयन्तु 
यदन्यद् मम दुष्कतं पापाचरणं तद्च पुनन्तित्यथेः। श्रनेन 
मन्तेण खभाज्यमन्नमभिमव्य पञ्चात्‌ “श्रद्धिः ° दधाति" 
दति। परस्तात्‌ प्राणाङत्यारम्भात्‌ पूर्वे याः रूतिप्राप्ना श्रापो- 
ऽशानाङ्श्रता ्रापस्ताभिः परिदधाति प्राणदित्यरूपस्य खा- 
त्यम: परिधानं वस्राच्छादनमिदं क्रियत इति ताञ्छिन्तये- 


१०४ मेन्युपरनिषत्‌ | [द्‌ प्रपाठकः । 


त्परिदधाति। प्राणाय खाहापानाय स्वाहा व्यानाय 
स्वाहा समानाय सखाहादानाय स्वाहेति पञ्चभि 
रभिजहाति। अथावश्ण्टं यतवागञ्नात्यतेऽद्धिभूय 
रवापरिष्टात्परिदधात्याचान्ता भूत्वात्मेच्छानः प्रा 
राऽग्रिर्विश्ेाऽसीति च दाभ्यामात्मानमभिध्यायेत्‌ | 





दित्यर्थः भ्रनन्तरकतेव्यं प्राणाद्मिदाचं मन्लविनियागन वि- 
धत्ते “प्राणाय ° चभिजदातिः'दइति | प्राणाय खादेत्यादिभिः 
पञ्चभिरम॑न्तरययापाटक्रमं माज्यान्रूपं सिद्धं द्रयमादायामि- 
सस्येनास्याग्री जुदेति जुङ्यादित्ययंः। “्रथावश्ष्टं ° 
श्रभिध्यायेत्‌'' दति। अथय पच्चप्राणाडत्यनन्तरमवभिष्टं ठत्नि- 
पय॑न्तमन्ने यतवाक मैनी सन्नस्माति यद्‌वश््टिमस्माति 
तनीःनो सन्निति मैीनमच विधोयते नाशनं, तस्य निमित्ता- 
न्तरत एव प्रा्रलादित्यथंः । अताऽवशिष्टसवानभाजनानन्त- 
रमद्धिरुत्तरापेाऽशानाङ्गभ्डताभिभ्टिय एव पनरपि रूवेवदुपरि- 
टादुपरिभागे परिदधाति ताख्ष्मुपरि परिधानदृष्ट क या- 
दित्यर्थः । तथा च श्रुत्यन्तरं तस्राद्वा एतदशिष्यन्तः पुरस्तारा- 
परिष्टाद्याद्धिः परिदधति" ( कान्दोण््र०५ ) दति पञ्चादुत्था- 
याऽऽचान्तः श्रत्वा करमृखपादष्रुद्धं विधाय विधिवद्‌ाचम्य 
प्रद्धा ग्त्ाऽऽत्मेज्यान अात्मानमीजान च्रात्मयजनं करुवच्नपासकं 
दति चावत्‌ प्रणाऽभ्रिरित्यादिवच्छमाणाभ्यां मन्ल्ाभ्यामात्मा- 
नमभिध्यायेत । मन्त्रद्ययं पठति "श्राणाऽद्चिः परमात्मा वं 


ह्‌ प्रपाठकः || दीधिकासडहितः,, १०५ 


प्राणेाऽग्रिः परमात्मा वे पच्चवायुः समािितः। स प्रीतः 
प्रोणतु विश्वं विश्वभुक्‌ विश्वोऽसि वेश्वानशाऽसि विशं 
त्वया धायते जायमानं । विशन्तु त्वामादहतयश्च सवः 


निय 1 ~~~--~-~-*-------= +न | 
-~~-----~-~---~*-~--~-----------~ ~--- श 


° श्रख्टतेऽसोति"° दूति । पञ्चवायुः प्राणापानादिपञ्चवायरूपः 
प्राणः प्रणेता शरीरेद्ियव्यावारयितायः सपरमात्मावेपरमा- 
त्मैव श्रभ्निरन्नम्यात्तः जाठरा देहं समाश्रित इति धृवीद्धंयोज- 
ना। यदा परमात्मैव्रदेदं समाञ्चितः सन्‌ पञ्चवायुः प्राणाऽ्ि- 
ख नान्य दतियाजना। च्रं वैश्वानरो शूला प्राणिनां दद 
मारितः प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतविधमिति भगवत्‌- 
सरणात्‌) स परमात्माऽत्ता प्रोतस्तुपतः सन्‌ विश्वं सवेमव भाक्त 
वगं प्रीणातु प्रोणयतु यतः स विश्भुक विश्यं मुनक्ति पालयति 
दति विश्यश्गिति प्रयममन्ायः। दे प्राणान्यात्मन्‌ ववं वि- 
श्ाऽसि सवाऽसि चैश्ानरे विश्यनरनयनादोश्वरस्वमसोत्यथेः। 
करूता विश्ात्मलं व्श्धनियन्तुवं चेत्यत श्राद, विश्यं जाय- 
मानं लया धायते ल्मे खलत्मनोा विग्यमृत्पाद्य पालयसि 
दत्यर्थः। सवा आहतः आ समन्ताद्धुयन्त दत्या्तया 
खवोंषि सवाणि त्वां विशन्त लग्या{इदिता भवन्तु किञ्च तच 
सवाः प्रजाः यच लं विश्राखछताऽसि विश्रमम्डतयसि जोव- 
यसोति विश्राख्तस्सं यच तैव सवाः प्रजा; लन्जोवना इत्यथः, 
द्तिश्ब्द मन्तममाक्षिद्यातनायेः इद्‌ानोमवंविधं विद्- 


९०६ मेच्टुपनिषत्‌ | [द्‌ पपाठकः। 


प्रजास्तच यच विश्राताऽसोति । एवं न विधिना 
खल्वनेनात्तश्नत्वं पनरूपति ॥ € ॥ 

अथापरं वेदितव्यमुत्तरा विकारेाऽस्यात्मयन्नस्य 
यथान्रमन्राद्‌ खेत्यस्येपव्याख्यानं । पुरुषश्चेता प्रधा- 
नान्तमस्यः स खव मोक्ता प्राक्ततमन भृङ्गा इति। 


--~+----~-------“----~--- 








द्धाजनं फलवचनेन प्रशंसति “एवं न विधिना < पनर्‌- 
ति" दति। एवसमक्तप्रकारणानेन विधिनाऽन्ता विद्धान्‌ पन- 
रन्नतं न खलुपेतीत्यन्यः। सख्यं सवंस्यात्ता भवति नान्ये 
नाद्यत इत्यथः ॥ <€ ॥ 

पनरस्यैव विद्षञ्चिन्तनीयान्तरं विग्रेषमाख्यातुमारभते 
""श्यापरं ° व्याख्यानः दति। श्रथेत्यथान्तरोापक्रमायः। 
अपरं एवाक्तात्‌ कममन्तरूपादन्यदेदितव्यं चिन्तयितव्यमस्दी- 
व्यथः। किं तदिद्युच्यते अरस्धात्मयज्ञस्यात्मयजनरूपस्य भाजनस्य 
सम्बन्धी उत्तरा विकारा विकरणं गरेष्ठं विभजनं के{ऽभा 
यथान्नमन्नादख॒ श्रदरनीयमन्ता चति विभजनं कथमित्यत 
अरर, तस्यापव्याख्यार्नामिति। तस्छन्रविकारस्य स्पषटवयया- 
ख्यानं क्रियत इति शेषः वच्छमाणविभागेनानमनादं चा- 
द्मानं चिन्तसेदिति तात्यया्थैः। तच किमन्नं किमननादमि- 
त्येतत्‌ तावत्छरूपतेा निदिंशति “पर्षेता ° युद्का दति" 
दति। रधानं प्ररतिजंगद्रजमव्यारतादि शब्दवाच्यं तस्वा- 
न्त म्ये तन्छन्ता प्रदत्वेन श्त चश्यता चेतनः परुषः स एव 


ह्‌ प्रपाठकः || दीपिकासदधिता। १०७ 


तस्यायं भूतात्मा छयनमस्य कता प्रधानः। तसात्‌ 
चिगुणं भेज्यं भाक्ता पुरूषेाऽन्तःस्थः। अच दष्टं 
नाम प्रत्ययं । यस्मादोजसम्भवा हि पणशवस्तस्मादीजं 
भोज्यमनेनैव प्रधानस्य >!ज्यत्वं व्याख्यातं । तस्मा- 





भक्ता प्राक्तं प्ररुतिका्यमन्नं सुद्धूः टदृत्यखत्‌ प्रशतितदि- 
कारावन्नसित्यन्नानाद्‌खरूपमुक्रमित्यथंः । च्र्ादुक्तमन्नरखरूपं 
विभजते "तवायं शतात्मा ° कतौ प्रधानः" ईइति। तस्य 
पुवाक्तस्य भेक्तरयं श्टूतात्मा साभामः क्यकर्‌णएसङ्गात- 
रूपाऽन्नं माज्यं हि प्रसिद्धं, अरस्य ्डतात्मनः कता प्रधानः 
पुवाक्रः, सऽपि मेशन्य इत्यथः । उक्राथपरारमपमंदारव्याजे- 
नाद (तस्मात्‌ चिगणं ° पुरुषोाऽन्तःस्यः'' दृति । चिगृणं प्रधान- 
तत्का्रूपं मोच्य भक्ता परुषः प्रघानान्तःस्यः सवतरेत्ययः। 
उक्तव्यवस्यायां प्रमाणमाद “खत दृष्ट ° प्रत्यय" दति। 
ट्ष दभन प्रत्यत्तं नाम प्रसिद्धं प्रत्ययं प्रमाणमच विद्यत इति 
शेषः। उक्रमथ्मुदाहरणेन वुद्धिमारोचयति “यस्मनाद्ोज- 
समवा ° भेज्यलं व्याख्यातं" दति) पश्रद डि गवाश 
मद्दिषपरूषाद यः कुटुन्विकस्य मेाज्यल्ेन प्रसिद्धा यस्माद्ोज- 
सम्भवाः खबोजश्तान्नरसपरिणामादिसम्भवास्तस्माद्रोजं भेन्यो- 
पादानवाद्धाज्यं प्रसिद्धुमित्ययैः। बीजस्य भोज्यलप्रदशनफल्त- 
माद, श्रनेनति) कायषु भेच्यतवस्य सिद्धत्वात्‌ कारणस्यापि 
तत्सिद्धं कायकारण्यारभेदादित्ययः | प्रमाणनेपफादित- 


*) 


1 ~ 


१०८ मेव्यपनिषत्‌ । [ € प्रपाठकः। 


क्ता पुरुषा भोज्या प्रछतिस्तत्स्य सुक्क इति। 
प्राकृतमन्नं चिगुणभेदपरि णमत्वान्महदाद्ं विशे- 
पान्तं लिङ्ग । अनेनैव चतुर्दशविधस्य मागस्य व्या- 


न न = ~ ~~-~~ ----~---- ~~~ - ~ - ~ ----- ------~ ~ ~~~ - ~= ~= --------~-- ` ~~ 





मथंमपमंदरति “तस्माद्भोक्ता ° प्ररुतिस्तत्सयो सुद्का इतिः 
दति। व्ाख्याताथाऽयं ग्रन्यः। एवं प्रङतेमाज्यवं प्रसाध्य तत्का- 
य॑स्य भोज्यलं प्रपञ्चयति “प्राकतमनं ° विशषान्तं लिङ्ग" 
दति। यत्‌ प्रातं प्रकतिप्रभवं का्यरूपमन्नं तत्‌ चिगणमद प- 
रिणणमत्रात्‌ सत्वादिगणविश्पपरिणामलान््हदाद्यं मदान्‌ 
प्ररतेराद्या विकारो ज्ञानक्रियाग्रक्तिसम्बूच्छितः स श्राद्यो यस्य 
तन्द्रहदाद्ं। विग्रषाः विकारशब्दवाच्याः एथिव्यादिमदाग्रत- 
लक्षणा श्रस्म्मदादिप्रन्यत्तयाग्णा अन्ता यस्य तदिशषान्तं। तत्‌ 
कोदृशं, लिङ्गं लिलते ज्ञायते देतनसद्धावाऽननेति व्यत्यत्तः 
श्रचेतनं भेज्यमित्ययः | विषयाणां विशरेषाविशेषरूपा विभागः 
साह्येरूक्रः °तन्प्ाचाण्यविशेषास्तेभ्यो श्रूतानि पञ्च पञ्चभ्यः । एते 
रखता विषाः शान्ता घाराख मूढाः (मांग्का०) दति) वि- 
रेषाविश्षरूपएणं विषयाणां भेज्यलं सामान्येनोक्तं प्रत्यक 
मिदट्दियाय॑षु याजयति “जअननंव चतुर्दश ° व्याख्या छता 
भवतिः दति | बाद्येद्धियप्रटत्तिमाभेण दशविधाऽन्तःकरणए- 
टन्तेखातु विध्यात्तस्याश्तुविधा मामं दति चतु्दश्विधा मा- 
गेस्तस्याऽपि भोाच्यलेन व्याख्या कता भवतीत्यथैः। प्रतिपा- 


ट प्पाठटकः || दौोपिकासहिता, ९०९ 


स्या कता भवति । सुखदुःखमो दसन चनभूतमिदं 
जगत्‌ नहि वीजस्य स्वादुपरिग्रहेएऽस्तीति यावन्न प्र- 
खतिः। तस्याप्येवं तिरूष्टवस्थास्वन्त्वं भवति कोमारं 
यवनं जराः परिणामत्वात्‌ तेदन्रत्वं। र्वं प्रधा- 
मस्य व्यक्ततां गतस्यापलेय्िभवति तच वद्यादीनि 


-~-----~ *-~ ~~~ ~ ~~~ ~ ~---- ------~-*- ---~ = 5 = 1 =-=. ~ ~ ---- = म "न =, ड 


दितायें स्ाकन संग्रह्यात “सुखदुः खम दमञज्ञ ° या- 
वन्न प्रखतिः'' दति। सुखदुःखमेादकरलात्‌ चिर्गुण्णत्मकमिदं 
जगत्ृखा दि सज्ज्ञितमन्नष्तं दि प्रसद्धमित्यः;। बीजस्य 
यत्छाद्‌ स्वादनं तस्य परि ग्रदस्तावन्न भवति चावत्कायाकारेण 
न प्रतिः प्रसवः। तस्प्ात्कायं चरिगणाद्यकं भाज्य दृष्टा 
कारणं प्रधानमपि चिगृणात्मकं भाज्यमनुमेयसित्यनिप्रायः। 
यदुक्तं पूवं ्ररतिकाय॑स्य श्वतात्मनाऽन्नलं तस्याष्यवस्थावन्वा- 
त्परिणामित्रमस्तीति चिगुणात्मकत्वमन्नवच्च सिद्धमित्याद 
""तस्वाघयेवं ° जरा परिणामलात्तदन्नलं'ः दूति श्रवस्था- 
चयमेव विभजते कौमारमित्यादिना। श्रवस्धाचयस्य कायल 
साध्यति, परिणणानलादिति। तदन्नवे तस्य न्तात्सनोाऽनल्व 
सिद्धमित्यथ;ः। कार्यदाराक्तं प्रधानमेाज्यलं प्रपञ्चयति 
"<एवं प्रधानस्य ° प्रसिद्धं तस्य" इति। एवं वच्यमाणेन 
प्रकारण प्रधानस्य व्यक्ततां गतस्य कायतामापन्नस्येपलयि- 
भवति, कथं तदाद तच व्यक्तषु प्रधानकायषु यत्छखाद्‌ खाद्न- 


११० मव्युपनिषत्‌। [ € प्रपाठकः। 


स्वादुनि भवन्त्यभ्यवसायसङ्कल्याभिमाना इत्यथेन्दरि- 
यायान्‌ पञ्च स्वादुनि भवन्त्येवं सवाणीन्दरियकमी- 
णि प्राणएकमाण्येवं व्यक्तमनमव्यक्तमन्नमस्य निर्गुणे 


न ~ ~= ~ ------- 
=-= ~~~ == (2 ---- ~ ---~ ~ ---- ---~ 


मास्वादनं ग्रहणमिति यावत्‌ तस्मिन्‌ खादुनि तन्निमित्तं व्‌- 
द्यादीनि करणानि भवन्ति प्रवर्तन्ते, बुद्यादिभिः प्रधानकायं 
ग्टह्यत इत्यथैः । बुद्यादि खरूपं मध्ये यपदिश्ति, अध्यवसाय 
दति! निश्चयात्मिका वुद्धरध्यवसायः, सद्ुल्पनव्यापार्‌वद्‌- 
न्तःकरणं मनः मद्धन्यः, अरदद्धारात्सिकान्तःकरण़न्ति- 
रभिमान दत्येते वुद्यादिशब्दाथा दरत्यथंः। श्रय वृद्याद्य- 
इवे जाद्दूभायामिति वावत्‌ दद्द्ियायीान्‌ शब्दरपशरूपरम- 
गन्धास्यान्‌ विषयान्‌ प्रति पञ्च ज्ञानेद्ियाणि भा तक्‌ चच 
जिंद्धाघ्राणाख्यानि पूर्वत्‌ स्तादुनि भवन्ति उक्तान्‌ विषचान्‌ 
सद यतुं करणानि भवन्तीत्यर्थः । उक्तमर्थं कमन्द्रियेषु मस्य- 
पराणे वाऽतिदिशति, एवमिति } स्वाणि वाक्पाणिपाद्‌पायू- 
पस्थाख्यानामिद्धियाणां कमणि प्राणस्य मुख्यस्य कमाण 
प्राएनापाननादौनि वचनादानगमनविसगानन्दान शरीर्‌- 
चालनादीन प्रति स्वादुनि भवन्तीति याजना। प्रपञ्चि- 
तमयम्‌पसंदरति, एवमिति । एवमुक्तप्रकारेण व्यक्तमन् 
सिद्धं, व्क्ररूपान्नकारणत्वाद्व्यक्तस्य व्यक्तवदेवाव्यक्तमप्यन्नमन्‌- 
मेयमित्य्थः । अस्य व्यक्राव्यक्तरूयस्यान्नस्य निगगणा भाक्ता 


ह प्रपाठकः। | दोपिकासह्हितः। १९१ 


भाक्ता भेक्तेत्वाचचतन्यं प्रसिहं तस्य । यथाऽ दे 
वानामन्नादः सामेऽनमभ्रिनैवानमित्येवंवित्‌' सेाम- 


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निर्विकार श्रात्मा भाक्रत्य्यः। अत्तःकरणगतचिद्‌ाभासा- 
व्विकाद्धाक्रव प्रतीयमानेक्ऽपि न सखभावक्ता भाक्ता कूरस्यं 
एव सदेति भावः । तस्यात्मना भाक्रलाद्‌ दतनख सर्व॑स्य कायं- 
कारणात्मकस्य व्यक्राव्यक्तवाच्यस्य सन्निधिसन्तामाचेणए ख- 
चेतन्याभासेन व्याध लाद्वैतन्यं चेतनत्वं प्रसिद्धं प्रकधेण सिद्धं 
ज्ञातं भवतोत्यथः। दट्‌ानोमन्नाच्चारूक्याः प्रकुतियरूषयोः 
रेमलमद्मिलं च ध्यायेदिति गृणान्तरमुपदिशदि “यया 
° श्रात्मयाजी चेलिःदति। द्वानां मध्येऽरिरनादोाऽन्नरस्वान्ला 
तरै प्रसिद्धा यया तथा सामाऽन्नमदनीयं प्रसिद्ध दति याजना, 
तया च अुत्यन्तरं श्रय यत्किञ्चेदमाद्रः तद्रेतसेाऽषटजत तदु 
माम एतावद इदं स्वंमन्नं चेउान्नादओथ साम एवान्नमयिर- 
नादः" (छृद्द्‌ा०्श्रन्द) दूति। तथा चैतंवित्‌ यदा यद्ये 
नादयते सेऽद्रिर्चदद्यते स षाम 1एवेत्यवान्नरूपमद्मौषोामात्मकें 
जगदिव्येवंविद्‌ श्मिनेवान्ात्मनेव सामरूपमन्रमलत्ति, अताऽन्न- 
द पैर्चिवन्न लिप्यत इत्यभिप्रायः श्रन्नमित्येवमितिपाटः 
प्रामादिकः यद्ययं पाठः सव्यस्तदेत्थं याजना श्रग्रिरन्नादः 
सामेाऽन्नमिति चथा प्रसिद्धं शरत्यन्तरो तथयेवाऽभ्निनेव सेम- 
# च्न्रमन्येवंविदिति टीकायां सम्मतःपाठः। 
+ रवेत्यचद्ररूपमिति समीचीनः पाटः 


९१२ मेन्युपनिषत्‌ | [ € प्रपाठकः। 


संन्नाऽयं भृतात्माऽभ्रिसंज्ञाऽप्यव्यक्तमुखा इति वचना- 
त्पुरुषे चछयव्यक्तमुखेन विगुणं भुङ्ख इति ये हेवं वेद्‌ 
सन्यासो यागौ चात्मयाजी चेत्यथ यदन्न कञचिच्छुन्या- 


2 य थ 





-------~ ~~~ 


रूपमन्नमद्यते न मयेत्यव॑विदन्नदोपेनं लिप्यत दति। आधि- 
भेतिकान्नान्रादयोरुक्रं विरेषमाध्यात्मिकयोरपि तयोर्दशंय- 
ति, सामेति रयं श्रूतात्मा प्रातः केवलः सेामसंन्ञाऽनमि- 
त्यथः, च्रव्यक्तं प्रधानं म॒खं भेक्रुलादिप्रटत्तिद्धारं यस्य स 
वचिदात्माऽव्यक्तमखस्तेन व्याप्तवाद्भूतात्माष्यव्यक्रमृखः सन्नप्मि- 
संज्ञाऽपि भवति। तया चायमथः, चिदाभासव्याप्रतया चि- 
दात्माभेद्‌नाव्यक्तमुखतया बादहाविपयभेक्तलेनाग्रिमज्ज्ञाऽप्य- 
यं ग्धतात्मा विदात्मापेच्या सामसंज्ञाऽन्नमेवेति प्ररुत्यनु- 
गतञ्िदात्माऽत्ताभ्चिः प्राता ्तसद्राताऽन्नसिति चिन्तये- 
दिति। एवमुक्तविभागे प्रमाणमाह, वचनात्परुष दइति। 
भुद्धः इति वचनादित्यन्वयः। एवमनान्नादविदं प्रशण्सन्नरस्मिन्‌ 
दशने पुसः प्रटन्तिमुपनयति, ये हेवमिति। या द कञ्िदेव- 
म॒क्तप्रकारोणान्नान्नाद्विभागं वेद्‌, स दत्यथ्यादायें, स सन्यासो 
अ्रकनत्य्रदभों, न कवलं कमंत्यामौो सच्यासी किन्तयसेवेति 
विद्या स्तयते, यागी चाष्टाङ्गयागनिरतोा<प्ययमेव, न केवसं 
गदासु निविष्टः, ्रात्मयाजो श्रात्मसंस्काराथें ये यजते स 
अत्मयाजो, तथा चशातपथयौ शतिः सदवाश्रात्मयाजोया 
वेदेदं मेऽनेनाङ्गं संस्कत इदं मेऽनेनाङ्गमपधघोयतेः इति, 


€ प्रपाठकः|| दौपिक्राकष{हिता। ९१६९ 


गारे कामिन्यः प्रविष्टाः स्मृश्न्तीद्दियाथांस्तददयोा न 
स्पृशति प्रविष्टःन्‌ सन्यासी यामी चात्मयाजी चेति॥ 
॥ १० ॥ 

पर वा रतदात्मना रूपं यद्‌ नमन्नमये दयं प्रासा 
थ न यदयश्नात्यमन्ताऽश्ेःताऽस्पृ्टा{द्रष्टाऽवक्ताऽ्राता- 


-----~---"~~-*-~---~- ~----------- - ~------~--*~------~----------~-~-----~--~' 
~+ ~ = ~---~-~-~-~---------------->--* म क 


प्रत्ययाजो चायम्ब न यलमाचनिरत इत्यथः केवा सन्या 
सी यागो चात्मयाजी चेति प्रसिद्धा यदात्मनायं विद्वान्‌ 
स्यत दृत्यपक्तायां तत्खरूपमा द, श्रय यददिति। अ्रयेदं नि- 
द्‌ भ॑नमृच्यते। अरुन्यागारे जनग्रएन्यान्तभेने प्रविष्टाः कामिन्यः 
कालिनोः कामातुरा; स्तोः कञिदतिधोरो न स्पुण्ति यद्त्‌ 
किन्तु ताः परिदरत्येव तदद्या विद्ानिद्धियाथीन्‌ प्रविष्टान्‌ 
दवाद्‌एगत्यापस्थितान्न स्पुशति श्रनुरागेणन स्वीकरोतिस एव 
सग्यासो यागौ चात्मयाजो चेति यास्यातं। इतिशब्दः प्रदशं- 
नाः विषयनिस्पृदाः सनच्यास्यादिशब्दवाच्या दत्यथः॥ १० ॥ 

तदेवं दण्मिरनवाकेरध्यात्ममधिदैवच्च प्राणादित्येपाधि- 
दाराऽ<त्मापासनं सेतिकतेच्यताक्रममुक्रिफलमपदिण्य तत्परि- 
समाप्येद्ानीं पृवप्रकृतस्यैव प्रत्यगब्रह्मणशिद्‌त्मनेऽभ्युद्‌ यफल - 
कमनकविधमृपासनभेदं वक्तु प्रकरणान्तरं प्रवतेते। तत्रा- 
नाधोनलात्‌ सवंप्राणिखितेन्रह्यदुश्यान्नापासनं विधातुं तन्- 
दिमानमाद "परं वा ° यन्त्यन्ततः, इति । परमक्छष्टं वै 


१९४ मेच्यपनिषत्‌। [ € प्रपाठकः । 


रसयिता भवति प्राणंश्ात्‌सजतीत्येवं दाथ 
यद्‌ खख्वश्राति प्राणसष्द्धा भूत्वा मन्ता भवति 
खता भवति स्पृष्टा भवति वक्ता भवति रसयिता 
भवति घ्राता भवति द्रष्टा भवतीत्येवं चाह अनादे 


म ~ "न "नाता ना ० 


प्रसिद्धमेतद्रच्छमाणमात्मनः परमात्मना रूपं मूतिविगरेषः। 
किं तद्यन्न ष्दप्राणिजोवनं प्रसिद्धमादनादिरूप्रं कथमस्य 
परल, दि यस्मादयं प्राणे मुख्यप्राणप्रधानोऽयं सद्धाताऽनम- 
येएऽनननजोवन इति यावत्‌) एतदेवान्वयव्तिरेकाभ्यामुपपाद- 
यति श्रयेतम्रपच्यते, यद्ययं नाम्नाति नान्मृपजीवति तदा 
रमन्ता मननासमया भवतो्यन्वयः। एवमभ्राता भवतोत्या- 
दि योचज्यं। न केवलं मननाद्यशक्तिमाचमेवानखतः किन्त जो- 
वनमपि दुलंभमित्याद, प्राणांसोत्सृजति परित्यजति सिचत 
दत्येवं दाद शतिः । तथा च कान्दाग्ये (श्र०७)श्रन्नं वाव बला- 
द यस्तस्पद्यद्यपि दश्ररानोनास्नौवाद्यद्यु इ जीवेद्‌ थवाऽद्र्‌ एटऽ- 
श्राता' दत्याद्यन्नाभावे शक्रिजोवनयोारभाव इति वयतिरेकमक्रा 
ततरैवान्वयमा द, रथेति । चदि श्र्नाति तदा खन्न प्राणएसण्टद्धः 
प्राणेन बलेन सब्टद्ध उरपचताग्चला मन्ता भवतीत्यादि स्पष्टं, 
्रतरेव ्रत्यन्तरमदादरति, एवं द्यारेति। अन्नाद्रताबीजरूप- 
परिणताद्रै प्रजाः सथावरजङ्गमात्मिकाः प्रजायन्ते उत्पद्यन्ते 
याः काञिदविश्ेषिताः एयिवौिताः पयिवीमासरिता श्रत 


हं प्रपाठकः।| दीपिकासह्िता। २९५ 


प्रजाः प्रजायन्ते याः काित्‌ एथिवोखिताः अतेऽने- 

नैव जीवन्त्ययेतदपि यन्त्यन्ततः ॥ १९ ॥ 
अथान्धचाप्यु्तं सक्रणि ह वा इमानि भूतान्यद- 

रहः प्रपतन्त्यनरमभिजिषटक्षनाणानि सया रश्छिभिरा- 


नकाया, ~ ~ = ~~~ --- --------------~ ~ - ~~~ “ --- -- -----~ -- --~ ------- -~--~-~*- ~~-~------- -----~--~- =-= ~ य 


उत्पत्यनन्तर म्यनेनेव स्स्जात्युचतेनादनीयेनैव जोवन्ति 
प्राणान्‌ धारयन्ति) श्रथ जौवितच्ये अन्तताऽन्ते शरीरा- 
वमानऽप्येतदनमेवायप यन्ति अन्नात्मिकायां प्ययं लीयन्त 
दत्य्थंः॥ ९९ ॥ 

एनरष्यन्नस्ठतिं करोति तस्य वच्छभाणात्मद्‌ एटवदंलाय 
“श्रयान्यचाण्युक्तं ° ब्रह्मणा?' दति। वरै दति प्रसिद्धा नि- 
पाता | सवणेमानि शतानि पष्रपच्छादिपिपोलिकान्तानि 
श्रनमभिजिघृत्तमाणएानि श्रहरदनित्यं प्रपतन्तीतस्ततः परि- 
भ्रमन्तोति प्रसिद्धमेतदित्य्थः। किञ्च॒ खयाऽपि रग्मिभिः 
किरणेरन्नं मामं रसरूपमादद्‌ाति स्वोकराति, तनान्नाद्‌ा- 
नेनासा खयंस्तपति समिद्धा मवतोत्ययः। तया च श्रत्यन्तर्‌ 
"खया मरोचिमादत्ते सवस्माद्वुवनादधिः दति । मरोचिंमरौ- 
चिग्रस्तमृदकमित्ययेः। दम प्राणा सख्यप्राणमइिता वागादयः 
प्राणाः श्रन्नेनाभिषिक्ताः मंक्रिन्नाः सन्तपिंताः सन्तः पचन्ति 
वणव्यत्ययेन पतन्ति खखव्यापारं कुवन्तीत्य्ंः । यदा पचन्ति 


भाक्विषयानपन यन्तोत्यथः । तथयाऽग्मिका आन्न समि- 
५ 


९१६ मेव्युपनिघत । [ € प्रपाठकः। 


ददात्यन्नं तेनास तपत्यनेनाभिपिक्ताः पचन्तीमे 
प्राण अवा अन्नेनेाज्वन्लत्यनरकामनेदं प्रकल्पितं 
ब्रह्मणा । अतेऽन्नमात्मेल्टुपासोतेत्येवं चाह । अना- 
ज्ञतानि जायन्त जातान्यन्नेन वधन्ते अद्यतेऽत्ति च 
भूतानि तस्माद्‌ न तदुच्यते ॥ १२॥ 

अथान्यचाप्युक्गं विश्वशदे नामेषा तनूर्भगवतेा वि- 


"ननन" ------------ ---------~-~~~ ~~~ --~---~ *~---------~ ~~ --------- ~----~--------~--------------------- ८ ~ --------- 


दाज्यादिनाऽभिज्वलति दीप्यते। एवं देवतानामप्यपजोव्य- 
नमिदमन्नमन्नकामेन ब्रह्मणा प्रजापतिना प्रकल्पितमत्पादित- 
मित्यथः । यद्‌ थमेवमन्नं सहतं तदिदानोसुपासनं विदधाति 
““अताऽन्नं ° दयाद'' इति। यत एवम्महिमेदमन्नमताऽन्नरमा- 
त्मेव्यपासोत ध्यायेदि त्यथः । अच ब्रह्मद ष्टिरत्कषाद्‌तिन्याये- 
नान्ने ्रात्मदृष्टिविधीयते, न चाचादय्रदाऽस्ति न गएतोकेन 
दि षः" (ब्रह्मखण०्य०४।पा०२।खघ्‌ु०४)) दति खन प्रतीकेष्वर्‌- 
यदस्यापादितत्रादिति द्रष्टयं। एवं द्यादेत्युद्‌ाडरति शा- 
खान्तरौीयं मन्त्रमन्नस्यात्ममाम्यद्योतनेन तत्मतोकतं द्रटयितं 
““श्रन्नाद्भूतानि ° तदुच्यते इति ग्डतोत्यत्यादिनिभित्तलमा- 
त्मसाम्यमतेाक्तं। अरत्तराथेः स्पष्टः ॥९२॥ 

ददानोमनने पवाक्ते विग्रख्वं गणं प्रतिष्य विष्णशरीर- 
दृष्छोपासनान्तरमपदिगश्रति “श्रथान्यचाण्युक्तं ° भिषक्‌ रतं” 
दति। विश्वखक्मन्नख साधयति, प्रणा वा दत्यादिना। 


ह्‌ पपाठकः।| द्ौपिकासह्िता। ११७ 


ष्णायदिदमननं प्राणा वा अनरस्यरसा मनः प्राणस्य 
विज्ञानं मनसं आनन्दं विन्नानस्येत्यन्नवान्‌ प्राण- 
वान्‌ मनस्वान्‌ विज्ञानवानानन्दवांश्च भवति ये हवं 
वेद्‌ यावन्तीह वे भूतान्यन्नमदन्ति तावत्छन्तःस्थाऽन्- 
मत्तियेा रवं वेद्‌ । अन्नमेव विजरन्नमनं संवनन 


„__ , _ _ « „~ ~ --~-~~--~------*~-~--------~--~---~--- ---~------ ~= -~- --- 01 १ 
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रसः सारः कायंमित्यथः। प्राणे भ्थिरे सति मनम उपच- 
यान््रनः प्राणश च रसः! मनसा विवेकसास्य्यै सति विन्ना- 
नात्यन्त विज्ञानं मनसा रसः, विषय(ध्यवमः्यं सत्यानन्दा- 
दयादिज्ञानस्यानन्दा रपदतियो दैवे वेदति सम्बन्धः न्सा 
भवान प्राणएवानित्यादिफलवचनं। दृं फलमक्राऽदृष्टं च 
फलमा, यावन्तीदति) यावन्तीद लाकर शतान्यन्नमद्‌न्ति 
भक्तयन्ति तावत्सु सवेषु तेषु श्तात्मा सन्नन्तःस्यो श्तान्तःस्यो- 
ऽन्नमच्युपसकः । 1 तावत्छन्तदस्य इति पाठे तेषु श्तेष्वस्थितस्ते- 
स्वभिमानग्रएन्यः सन्नन्नमत्तोत्ययः । कः, या देवं विश्वष्टहुणं 
विष्णतन मन्नं वेदापास्ते इत्यथः । उक्तमुपास्यमन्नं विष्णुतनत्व- 
दृचचरदलाय स्तुत्यथें ज्राकमदादरति, अन्नमेवेति। अन्नमेव विज- 
रत विजरच्लं नयतोति विजरन्नं विजरमेव वा विजरन्नं। 
तया च श्रुत्यन्तरं आ्रन्नं ब्रह्माएाऽजरं वद्‌न्तोति। तथा अन्न 
संवननं सम्भजनौयं स्मतं ज्ञातं। आरन बह्न कुर्वत तद्तमिति 





= नानक 


# साऽच्नवान्‌ इति समीचीनः पाठः| 
{ तावत्खन्तस्स्यदति भवितुमर्हति) 


१९१८ ` नैयुपनिषत्‌ | [९ प्रपाठकः। 


स्मृतं । अनं पश्रूनां प्राणोऽन्नं ज्येष्ठमन्नं भिषक्‌ स्मृतं 
॥ १२ ॥ 
अथान्यचायप्युक्तमन्नं वा अस्य सवस्य यानिः का- 


0 


अत्यन्तरात्‌। श्रन्नं पश्रएनां प्राणिनां प्राणः, अ्रन्नात्‌ प्राण भव- 
न्तोति भ्ुतेः। अन्नं ज्येष्टं प्रथमजं रसा द्पेचया पृव॑सिद्भूलात्‌ । 
्रन्नं डदि तानां च्येष्ठमिति अ्॒त्यन्तरात्‌। अन्नं भिषक्‌ 
भेषजं क्द्याधिनिवर्तकं सूतं, तस्मात्‌ सर्वेैपधमृच्यत दत्तं 
प्रत्य श्रवणादिति श्चाका्यंः॥९२॥ 

पुनरस्थेवात्मनः कालात्मकादित्ये दृटिं विधातुमन्तरमन- 
वाकच्रयंप्रवतते, तचान्नस्य कालाधीनल्ात्‌ कालस्य चादित्या- 
घौोनताद्न्नोपामसनानन्तरं कालादिव्यापासनविधाननिति सं- 
गतिं विवक्तन्‌ कललात्यानं स्तेति ““च्रयान्यचाणयक्तमन्नं ° 
द्त्येवं दाद” दति । च्रयेल्युपासनान्तरोपक्रमाथः । च्रन्यच्ापि 
कालविषये इदम॒क्त, श्रन्यचाष्युक्तमिति वा) अन्नंवे प्रसिद्ध 
मस्य प्राणिजातस्य सवस्यागशेषस्य यानि; कारणं, कालश्चान्नस्य 
यानिरित्यनवतते, कालेन दयन्न प्रद्धयते, र्यः सविता कालस 
यानिः, तस्य दि कालनिमाटठलं प्रसिद्धं। तच कालस्रूप- 
तत्रमाणयोारभावात्कथं कालेऽन्नख यानिरित्यत च्राद, तस्ये 
तदिल्यादिना। त्य कालययेतद्ूपं रूयत इति रूपं खरूपं, 
कि तत्‌ यन्निमषादेनिमेषकलाक्ाष्ठाद्यवयवप्रचयात्‌ संग्डतं 


९ प्रपाठकः || दीपिकासदिता। ११९ 


लथान्नस्य खया योानिः कालस्य तस्येतद्रूपं यन्नि- 
मेषादिकालात्‌ सम्भृतं दाद्‌ शत्मकं वत्सरमेतस्याम्र- 
यम्व॑मर्' वारुणं मघाद्यं खरविष्ठाह्वमाप्रेयं कमेणा- 


णी प ~~ ~ ० = (~ ~ -- ~> ~~ ------ > ~ 
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घरितं द्वादशमासात्मकलात्‌ दादरशत्मक वत्सर सवतसररूप- 
मस्ति, एतत्‌ तस्य रूपसिपि सम्बन्धः । तया चाक्तं श्रीभागवते 
"याऽयं कालस्तस्ट तेऽख्क्बन्धोश्चष्टामाड्येष्टते येन विश्यं । 
निमेषादिर्वत्सरान्ता मरोयांस्तं वेशानं रमधाम प्रपदये'इति। 
निमेषा दि संवत्सरान्तव्यवदहाराश्रयः काल दति कालसखरूप- 
म॒क्तं भवति) दद्‌गनौमुक्रलक्तणः संवत्सराख्यः कालस्तद्‌वय- 
वैरेव प्रमेय दूति विवच॑स्तावत्कालावयवान्‌ स्यूलतमादिकर- 
मेण व्यत्पाद यति, एतस्ेत्यादिना । एतस्य संवत्सरात्मनः का- 
लस्य द्वादश मासाः संवत्सर इति श्रतेद्धादशमामात्मकस्या- 
द्ंम॒त्तरायणषण्मासरूपमाग्रेयम्चिदेवन्यमेष्ए्यप्रधानलाद्‌स् 

षणए्ामस्य । श्रद्ध वारुणं वरूणदे वत्यं दक्षिणायनषण्मासरूपं 
जलप्रधानलादरस्य षण्मासस्येत्ययः। तथा च तापादक्योाः 
काययोाः पयायेण नियतप्रटत्यन्ययानपपत्वा यस्तद्धेतुग्दता- 
ऽथ॑; कस्प्यते स काल उभयायनानगतः संवत्छरात्मा मिद्ध 
द्त्यथः। ददानीमयनावयवग्तान्‌ मासान्‌ व्यृत्पाद्‌यिख्स्तद्‌- 
पाद्राततया नाक्तचमचनदयं प्रकल्प्य तद्रारा कालसद्धावकल्प- 
नामाद, मचाद्यमिति। मघानच्चमारभ्य अविष्टाख्यनच्च- 


१२० मेन्य प निषत्‌ | [ द प्रपाठकः | 


<~ 6, + ^ + ॐ, + { ॐ ॐ । 
त्कमेण सापाद्य अविष्ठाद्वान्तं साम्यं तचेकंकमात्- 
ना नवांशकं सचारकविधं सोषम्यत्वादेतत््रमाणमने- 
नैव प्रमोयते हि कालान विना प्रमाणेन प्रमेयस्योप- 


गिरी रीषि 


स्याद्धंमद्धावमानं यावत्‌ सविता क्रमेण नीचैः क्रमणेन सख- 
्ारगत्या सुद्ध तावदाग्रेयमश्िदेवल्यं, तच दि कालेऽधिदव 
द्रव श्रीतारन्तेम॑नब्येरुपास्यते। तथा सापाद्यं सपेदवत्यमद्धेषा- 
नचत्रं साप, तत्मतिश्रविष्टात्तराद्धान्तं यावत्‌ सविता उत्रमे- 
तेद्धंमार्गक्रमणेन खचारगत्या सुद्ध तावत्‌ साम्यं सोमदेवत 
तिन्‌ दि कासे चन्रस्तापार्तेमनुषेदेव इवापास्त दति। 
रच अविष्टाद्धाद्यं सापान्तमिति यद्यपि वक्तमचितं तथापि 
यथया विभक्तया: समयया: खभाववेलचण्रस्पष्टोकरणाथं सा- 
पाद्यमित्युक्तं अविष्टायां सवितरि वतमाने श्रोतानुदन्तेस्तदाद्य- 
ग्रदणे दिन चखष्टः खभावभदे निदिष्टःस्यादितरचतु स्पषटस्तच 
तापप्राचयं विवादाभावात्‌, तया च खमावभद्‌प्रकटीकर- 
णायाऽऽ्ं एव क्रमा विवत्िता न नक्तचपारटक्रम दति भावः) 
अरचापि शोताष्एयानियतप्रटत्तिदेतुकालकन्यना पूल्वत्‌ द्रष्ट 
व्या। ददानीम्‌क्रीः सप्तविंशतिनचतेदाद शराण्यवच्छंदेन मास- 
लिमा, तचेति । तच तेषु नक्ततचेषु नव च्रंण यस्िंसलन्न- 
वांशकं, यदेकैकं नवांशकं तदात्मनः संवत्सरात्मन एकंका- 
ऽवयव इति योाज्यं। रंश पाद्‌; नर्वांशा नव पादाः सपा- 


ई प्रपाठकः || दौपिकासदहिता। ९२१ 


लंब्िः प्रमेयोऽपि प्रमाणतां थक्तादुपेत्यात्मसम्बो- 
धना्थमित्येवं द्याह । यावत्यो वे कालस्य कला- 


स्तावतोपु चरत्यसोा यः कालं ब्रह्मेत्युपासीत काल- 
स्तस्यातिदूरमपसरतीत्येवं चाह । 


दनक्तचद्यावच्छिन्न एका राशिः खयंगत्यनुसारेरका मामः 
संवत्सरात्मनः कान्तल्यैकाऽवयव दल्गृक्तं भयति। तया च 
तत्तन्मामस्वभावमेद्‌ {नखमेनापि कालकन्पनम्‌न्नेयं। एतत्स 
स्चारञविचं, चारण्ुद्कमरं नसचादिषु परिभ्रमण, तच विधा 
प्रका, तया विधया सहितं सचारकविधं। एतच्च ज्यातिः- 
भःस्तात्‌ कलादिकालावयवगणनया खयेचारमालाच्य मर्व 
मवेयमिति तात्पयाः । उक्तोरोवावयवेः कालाऽन्‌मेय दत्य च 
तुमा साद्धयलादिति खच्मलतादित्यथेः। इन्दरियागाचर- 
त्वात्‌ कालस्येतत्‌ पुवाक्तमयनादिषटपं प्रमाणं कालास्तिलि, 
तत्रानभवं संवादयति, चननेव दि पूवाक्तप्रकारेण कालः 
प्रमोयते सम्यगवघायंते न प्रत्यक्तादिनेत्ययः। किमवं प्रमा- 
णेापन्यासेनास्ति चेत्‌ कालः सयमेव दृ श्यतेति मन्दाशङ्ा- 
यामाद नेति, अनादिमायार्वाच्शन्निचिटिलासषरूपस्य कान्तस्य 
जडलात्‌ प्रमेयान्तरवन्मानाघौनमिद्धिकलमित्य्थंः । यदि 
कालस्य प्रमेयत्वं तद्दि निमषादीनामपि कालावयवानां का- 
लत्वाविशेषादमभेदे सति कथं कालन कालप्रमेत्यत आद 


414 


१२२ मेन्यपरनिषत्‌ | [ ९ प्रपाठकः। 


कालात्‌ खवन्ति भूतानि कालादुच्धं प्रयान्ति च। ` 
काले चास्तं नियच्छन्ति काला मतिर मृति मान्‌॥ १४॥ 

दे वाव ब्रह्मणा रूपे कालश्चाकालश्चाथ यःप्रागा- 
दित्यात्‌ सेऽकालाऽकलाऽथ य आदित्याद्यःस कालः 


प्रमेयाऽपोति। एयक्तादवयवावयविभावेन भेदात्‌ प्रमेयाऽपि 
अमाणत्वमुपैति प्राप्नाति, किमथे, ्रात्मनः खम्य सम्बगवाध- 
नार्थमवधारणाथे दौपप्रकागेन दौपानमानवदित्यथैः । एवं 
याह, एवंविधः कालः खूयाधोन दत्यचाद्‌ादरणमादेत्यर्थः। 
“यावत्यो वै ° अमूतिंमान्‌* दति । यावत्यो वैं प्रसिद्धाः 
कालस्य कला अभरास्तावतीव्वधेा सविता चरति तत्प्रव्तकत्वेन 
विचरतिताः सम्पादयतीत्य्थः। श्रता यः कालं कलयितारं 
कालरूपमादित्यं ्रद्येद्युपासौत तस्वापासकस्यातिदूरं काले- 
ऽपमरति सछृन््रला पनमरणाय न जायते कालव्याप्यो न 
भवतोत्य्थः \ तत्र कालस्य ब्रद्वादृच्छदंताय पनरुद7रणएमेवं 
द्याह कालात्‌ खवन्तीत्यादि, पादत्रयं स्यष्टाथं। काले मूति- 
मूतिंमानादित्यरूपेण, ्रमूतिमांख॒॒ निमेषादिमंवत्सरान्तेन 
रूपेणेति चतुयपादाथंः॥९४॥ 

कालनिवत॑कलादादित्यः कालात्मका ब्रह्यदुष्योपासख 
इत्युक्त, तत कि ब्रह्म निमेषादिकालेषु किमात्मकश्चादरित्य 
ब्रह्मदृष्छोपाखख दृति वीच्रायामाद वाव ° स वेदवित? 


ह्‌ प्रपाठकः।| दीपिकासहिता। ९९द्‌ 


सकलः सकलस्य वा रुतद्रूपं यत्‌ संवत्सरः संवत्सरत्‌ 
खल्वेवेमाः प्रजाः प्रजायन्ते संवत्सरेणेह वे जाता 
विवधन्ते संवत्सरे प्रत्मस्तं यन्ति तस्मात्‌ संवत्सरा वे 
प्रजापतिः कालान ब्ह्मरोडमात्मा चेत्येवं चाड । 
कालः पचति भूताति सवाश्येव मदात्मनि । 
यस्मिंस्त॒ पच्यते काला यस्तं वेद्‌ स वेद वित्‌॥ १५॥ 


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ति। प्रायः स्पष्टाथाऽयमनुवाकः। प्रागारित्यादिति ्रा- 
दित्योत्पत्तेः प्राग्‌ यद्रणे रूपं सोाऽकालः, सन कस्यापि कल- 
यिता यताऽकलः कलारदित दृत्ययः। य य आादित्याद्य 
रादित्य श्राद्यः म्रबत्केा यस्य स तया, ख कालः सकलः 
कलाभिः सडदित इत्य्यः। सकलस्य वे दति, संवत्सरः सकलस्य 
कालस्य खरूपं । तस्यापास्यत्ाय ब्रह्यसाम्यमाद संवत्सरादिति। 
यस्ाद्वं संवत्सरः सवेकारणं तस्मात्‌ संवत्सरा वे प्रसिद्धः 
प्रजापनिर्दिरण्छगभः यात्मा स कालः, सेऽन्नमन्नदतुलात्‌, 
ब्रह्मण नीडमालम्बनं ब्रह्मदृटयाग्य प्रतोकमित्यथः। आत्मा 
च प्राणिनां ख्य आत्माः इति मन्लवण्त्‌ । एवं याद मरां 
खामावात््ेति मदात्मा कालात्मक इईन्यरः, तस्मिन्रदात्मनि 
सव॑ण्येव शतानि कालः एचति जरयति परमात्मन्यधिष्ठाने 
तदा यत्तः काले शतानि पचन्‌ परिवतत दत्यथैः। तथा 


च ्रत्यन्तरं ^एतस्छ वा श्रक्तरस्य प्रशासने गामि निमेषा मृद्ता 
1 2 


१२४ मेन्य॒पनिषत्‌ | [ € प्रपाठकः । 


विग्रहवानेष कालः सिन्धुराजः प्रजानां । रुष तत्स्थः 
सवितास्या यस्मादेवेमे चन्द्रकश्षग्रहसंवत्सरादयः 
खयन्तेऽथेभ्यः सर्वमिदमत्र वा यत्किच्ित्‌ शुभाशुभं 
द्यन्ते लाये तदे तेभ्यस्तस्माद्‌ादित्यात्मा द्या 


----- ~-------------- ----~ र क स =-= = ~~ -----=*--~-- ~ 


अदाराचाण्यचमासा मासा खतवः संवत्सरा दति विघता- 
स्तिष्ठन्ति' (हृ ददा०अ०५।ब्रा०८) द ति। यस्िस्त्‌ कालात्मा सविता 
पच्यते लोयतेतया वेदस वेद्ररस्यविदित्ययैः॥ १५ ॥ 
पनरपि सकलं कालं स्तौति ^विग्रदवानेष ° भाति 
मण्डले" दरति। विग्रहवान्‌ मूतिमानेष कालः पूविाक्तः प्र 
जानां सिन्धुराजः समुद्रः समद्र वत्‌ दुस्तर इति यावत्‌, एष 
सविताख्यो यशात्‌ तत्स्यस्तस्सिन्‌ काले निमित्ततया खितः) 
कोाऽमा सविताख्यः, यस्ममादव सवितुरिमे चन्द्रादयः खयन्त 
श्रभिषुयन्ते श्राप्यायन्ते खतेजःप्रवभरनेनेत्यथः । अय प्रसिद्ध- 
मग्यञन्रादिभ्य;ः सवमिदं कि, यत्किञ्चित्‌ प्एभाग्ुभमिद 
लेके दृग्धते खुखदुःखादीत्ययः) तद्‌तेभ्यः ्ादित्यादिग्रदेभ्या 
निमित्तश्चतेभ्य इत्यथः) यस्माद्‌ वमादित्यनिमित्ता जगतख्ि- 
तिस्तस्मादादित्यात्मा ब्रह्म । यत एवम्पुभाव आदित्योऽय 
तस्मात्‌ कालसज्ज्ञमादित्यमृपासोतेत्यतद्विधिवाक्यं, कालस- 
ञ्ज्ञमादित्यं ब्रह्मेव्यपासोतेत्ययः। एकं शाखिनः कालसञ्ज्ञा- 
लक्षणं गणमनादृत्यादित्या ब्रद्धेत्यादिव्योपासनं ब्रह्मयदृष्या बि- 





# उभवदस्तक र्व मूलपाडः| 


ह्‌ पपाठकः || दीपिकासह्हिता। १२५ 


कालसञ्ज्नमादित्यमपासीतादित्यो बह्ेत्येकेऽथ रवं 
द्या ह । - 
हाता मक्ता हविमन्त्नो यन्ना विष्णुः प्रजापतिः। 
सवः कथित्‌ प्रभुःसाक्षौ याभ्मुखिन्‌ भाति मण्डले॥१६॥ 
ब्रह्म ह वा इदमग्र खासीौरेकेाऽनन्तः प्रागनन्ता 
दकछिणतेऽनन्तः प्रतीच्यनन्त उदौच्यनन्त ऊड्व्वा- 


स 


4.०० ~ न ~ "= = 


दधति, आदित्या ब्रह्येत्यादेश इत्यरत्यथंः। सवयाप्यादित्यो 
न्रहोत्येवं दाद मम्त्ः। दाता दविषः प्रक्तेप्ता ख्जमान खछलिग्‌ 
वा, भक्ता दविषः सोक्ता द्‌वताविशषः, दविश्गादिद्रवयै, 
मन्तस्ततप्रस्तेपसाघनवन विदितः, एतेः सर्वैः साध्याया यन्नः स 
का विष्णः, यज्ञो वे विष्णुरिति श्रतेः। प्रजापतिः प्रजानां पाल- 
यिता इईश्यरः; कमंफ़लदाता, एवंविधा वा जगद्भूतुकलापः स 
मवं एष एवत्यध्यादहारः, कः येोऽमृभ्भिन्‌ दूरस्थे मण्डलं भाति 
प्रकाशते, किलक्तणः कथिदेकः यः; किदिति वा सम्बन्धः, 
प्रभुः खतन्त ईैश्रः, साक्तौ मा्तात्‌ सवेद ेत्ययः॥९६॥ 
ददानोमादित्यप्रतीकोापासनप्रसङ्गनादित्यान्तया{मिणे त्र 
दमण उपासना विशेषं विधित्छन्नाद “ब्रह्म दइ वा ० य एवं 
वेदः दति। ब्रह्म द परमात्मा वे एव दद्‌ कालद्धयान्या- 
दिकं जगदगरे ष्टः पवेमासीत्‌ बरह्मणेाऽविभक्तमेव सवे वर- 
बोज दव मदान्‌ द श्रासोदिल्य्यः। श्रत एवस परमात््येकः 


९२९ मेच्युपनिषत्‌ | [द्‌ परमाठकः। 


ऽवाडः च सवतेाऽनन्ता न छस्य प्राच्यादिदिश 
कल्यन्तेऽथ तियग्वाडः चाद्ध' वानृद्य रष परमात्माऽ- 
परिमितेऽजाऽतक्याऽचिन्त्य रप आकाशात्मेवेष छत्स- 


सजातीयविजातीयवस्न्तर श्एन््ः तदं किं वट बोजवत्सन्मा ने- 
त्यादानन्ताऽपरि च्छिन्नो देशतः कालता वस्ततश्ासद्कःचित 
इत्यर्थः। उक्रमानन््यमृपपाद यति प्रागनन्त इत्यादिना, प्रा- 
च्यादिषु दश्सखपि दिक्त परिच्छंदरद्ितलात्‌ सवेताऽनन्त 
दत्य्थः। तदं यासु दिच्छस्यापरिच्छंदस्ता दिगशाऽन्याः 
सन्तीति तत एव वस्तुपरि च्छद ऽस्य स्वादिति कुता निरङ्कुश 
मा नन्त्यमित्यत अरा, न द्धयस्येति । च्रस्याश्रयतया प्राच्यादि- 
दिशे नदि कन्पन्तेन वस्ततः सन्तोत्यथंः। रय तथा तिङ्‌ः 
वाऽवाडः चेद्ध वा दिग्भेदोऽस्य न कन्त इत्यथैः । देशे वा 
दे शसम्बन्धि वा वस्त॒ किमष्यस्य परिच्छेदकं नास्तोत्यभिप्रायः। 
यतेाऽनृन्य एष परमात्मान कनाण्युद्यत धायत इत्यनुद्य न क- 
चिद्ाश्रित इत्यथः । तथा च ्रत्यन्तरं 'स॒भगवः क्सिन्‌ प्रति- 
षित द्तिस्वे महिनि" (च्छा उ°)दति।च्रन्या दन्यस्मिन प्रतिष्ठितः' 
दति च। अनुद्यत देत्वथं विगरेषणं, अपरिमित इति) यद्रसर- 
दयते तत्परिमितं दृष्ट, रयं परमात्मा न परिमितः, पृण पर- 
षेण सवेमिति सवातिशा[यलश्रवणात्‌, अताऽनृद्य इत्यथः । 
अजदृत्यप{रमितलतवदेतुः, यज्जन््रयत्‌ तत्पररिमितं तद्धि कचित्‌ 


६ प्रपाठकः] दीपिकासदइदिता। १२७ 


छय रका जागतं त्येतस्मादाकाशदेष खल्विदं चेता- 
माचं बेाधयत्यनेनैव चेदं ध्यायतेऽस्मिंश्च प्रत्यस्तं या- 


~~ ~, + -~----*~-~---- ~ ~~~ <~ ~~~ ~ ~ - - -----~-- - ----~- 





कदाचित्‌ किञ्चिदित्युज्ञख्यते, त्रयं तु "न जायते भयते वा 
दूति अ्॒तेरजाऽता न परिमित दत्यथः। परमात्मापि जन्मवान्‌ 
कारणत्वात्‌ श्टद्‌ादिवदित्यत आद, श्रतक्यं दरति। न तकंगभ्य 
दत्य्थः। न सामान्यते दृष्टानमानादिरूपेणए तकणायमीदग्‌- 
धमक दति प्यवग्थापयितुं शक्यते नावेद विन््मरनते तं हृदन्तः 
नेषा तकण मतिरापनेया दृत्यादि्रतिभस्तकागाचेरलप्रति- 
पादनात्‌, श्रत्यैकगम्येऽयं श्रतिविरद्धस्यानमानस्वानदयाच्ेति 
भावः) श्रतक्व॑तवे ₹तुरचिन्त्य दृति। यत्‌ तदयते तन्मनसा गाचरे 
वर्तते खयञ्च मनागेाचरो नायं। तथा "न तस्य कायं करण 
विद्यतेन चास्य कश्िल्ननिता न चाधिपः" (्ये०।उ°) "यता वाचो 
निवतंन्ते श्रप्राप्य मनसा सदः दति श्रुतेरित्यथः। तच्ामङ्गलं 
देतु माद एष आराकाश्ात्मेति श्राकाशवदमङ्गःश्रात्मा खरूपं यस्य 
सतथा। न हि मनमाऽसम्पद्धं मनावेद्यं भवेदतिप्रसङ्गान्‌, श्रमङ्गा 
द्ययं परुषः" (रृददा ०) इति भ्रुतेनास्य मनःसंसम इत्ययः । तत 
एवंविघस्यानन्त्ये न काऽपि विघ्न इति सद्धं! दताऽष्ययमनन्त 
एष्टव्य इत्य {भिप्रेत्याद एवेष इति। एष एवनत्यनचयः, छत्र चये सवे- 
जगत्मलये एक एवैष परमात्मा जागतिं ्रप्रच्यतखभावे वर्तत, 
श्रन्यत्‌ किमपि तदा नाष्डदित्यथः) तथा चश्रत्यन्तर्‌ श्रात्मा 
वाद्दमेकणएवाग्रश्रासोन्नान्यत्‌ किञ्चन मिषत्‌'(एेतरेयाप०,द्ूति। 


१२९८ मेन्यपनिषत | ६ प्रपाठटकः। 


त्यस्येतद्धाखरं रूपं यदमप्मिनादित्ये तपत्यद्ना चा- 
भूमकं यञ्ज्यातिथिचतरमुद्रस्थाऽय वा यः पचत्यन्न- 
मित्येवं चाद । 


नन) ~~ ~ ~--------~~ ---~+~-~--- ~ 


एतदेव स्वैविकारकारण्लेन स्वाधिष्टानतया स्ष्ीकगेाति 
दत्येतसूादिति। इतिशब्द उक्तविश्षणसमाप्ययत्ेन पूवण वा- 
ऽन्वेति । एतस्मादित्येव प्रतौकमिद 1 एष एव छृत्छ खय एका 
जागर्तोति यतेाऽत एतस्मादित्यादये प्रतीके याजना। एतस्मा 
दाकाशात्‌ प्रसिद्धूाद्धूताकाशाद्‌ारभ्य यदिदं जगचेतामाच- 
च्चेत्यमाचमिति यावत्‌, चेतन्याभामव्याप्तवेनापलन्यमानला- 
ध्चेत्यमपि चेतामाचम्‌च्यत दति द्रषटव्यं। च्राकाशा{दमवं जग- 
देष खल परमात्मा बाघयति बेाधव्याप्तं करोति पालयती- 
त्ययः । किञ्चाननेव परमात्मनेदं ध्यायते ध्यानमाचेणात्पाद्यते 
सोऽकामयत बहसयां प्रजायेय दति दृद सवम्खूजतः दति च 
श्रतेः। श्रसिंञ्चास्मिनेव प्रत्यस्तं प्रलयं याति एकात्मतां गच्छ- 
तोत्यथः। तस्मादेक एवैष रत्छरक्तये जागर्तीत्यपपन्नमस्य सवै- 
देवानन्तचमिति भावः, एवमपास्यस्य परमात्मनः खाभा- 
विकं खरूपमुपवण्यं तस्यापासनाधिष्ठानं निर्दिशननादास्येति। 
रस्य परमात्मन एतद्यथाक्तं भाखर सखप्रकाशं जगद्‌ वभासकं 
ख्यं सरूपं यद्रःपममृद्िननादित्ये प्रसिद्धे तपति ्रादित्ये 
स्थितं स जगत तापयति प्रकाशयति च, एतदस्य रूपमिति) 
किञ्चाधूमकेऽग्नो यज्ज्योतिसतदप्यरैव रूपमिति सम्बन्धः। 


द्‌ प्रपाठकः दोपिकासह्िता। १२८ 


यश्चेषोाऽग्रा यश्चायं हदये यथासा आदित्ये स रष 
रका इत्येकस्य हे कत्वमेति य रवं वेद्‌ ॥ १७ ॥ 

तथा तत्प्रयागकल्यः प्राणयामः प्रत्याहार ध्यानं 
धारणा तकः समाधिः षडङ्गः इत्युच्यते यागः। अनेन 


कोदृणं ज्योतिः चिच्रतर्‌नतिविचिच्रं तत्तदिन्धनभेद्वशात्‌ 
छशस्णुलवक्रत्वाद्याकःरणावभासमानमित्ययंः। च्रयवा योाऽन्या- 
ऽप्युदरखया जाठरमज्जाऽप्रिरन्नं भुक्तं पचति सेाऽप्यस्धेव रूप- 
मिति सम्बन्धः । दत्येतदव प्रशंखन्नेवं दयादाऽचाण्ल्तितं विशेष- 
मिति शेषः यञ्चषाऽ्ै च्यातीषूपेा यारु दये साचिरूपा 
यासावादित्ये तप्रनप्रकाश्रनस्वभावः एष परमात्मैव स 
एका नान्य दति एवम्प्रकारेणात्मन्यादित्यादौ च परमादीव 
ज्योतिरिति य एवं वेद उपस्ति स एकस्य परमात्मनः हि 
स्पुटमेकत्वमेति प्राश्नाति परमात्मसायुन्यं गच्छति तस्मात्‌ 
सर्वच प्रकाश्खरूपं परमत््वरादमित्युपासौत इति वाक्यायः॥ 
॥ ९७ ॥ 

पवानुवाकं ध्येयं रूपं ध्यानविधिच्च दश्चयिलेदानीं ध्येये 
चिन्तस्िरीकरण्लत्तणस्य ध्यानस्य सिद्धये चित्तवश्षका- 
रापायं यागं साङ्गमृपदिश्लति “(तथा तत्प्रयोगकल्पः ° 
इत्यच्यते योगः" दति । यथा प्रागक्तपासनासाघनचि- 
न्मैकाग्यसिद्धिस्तया तत्प्रयेागकन्यस्तस्य चिन्तेकाग्यसाधनस्य 


1 


१३० मेव्यपनिषत्‌ । [€ प्रपाठकः 


यदा पश्यन्‌ पश्यति रुक्मवणं कतारमीशं पुरषं 
ब्रह्य येानिं। तदा विदान्‌ पुणपापे विदाय परेऽव्यये 
सवमेकोकरेत्येवं द्याह । 





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प्रयोगकल्योऽनष्ठानविधिरयमुच्यत दति वाक्यशेषः। तमे- 
वाद, प्राणायामः पूरककुम्भकर चकभेदन प्राणवायारायमनं 
वशीकरणं प्राणायामः दद्ियाणएणं विषयेभ्यः प्रत्यादरणं 
प्रतिनिवतनं प्रत्यादारः। पराक्स्ातःपरावतनेनेद्धिवाणां 
प्रत्यक्स्ातःप्रवतनं प्रत्याद्ार द्रत्यर्थः। स्येये वस्तुन्यन्तःक- 
रणस्य प्रयत्नेन तदाकारतया निवेशनं ध्यानं । तस्मिन्नेव 
तस्य तेलधारादि वद्‌ विच्छदेन स्थिरोकरणं धारणं धारणा। 
मना ध्येये वस्तुनि तदाकारतया सम्यक मन्यन्नंन वेति परौ- 
त्णं तकः, ध्यानधारणासामण्यादु पख्ितक्तद्र सिद्धीनां योगा- 
न्तरायतेादनं वा तकः, सविकल्यकसमाधिवा तकंः। चि- 
त्तस्य ज्ञेयवस््ाकारतामापननस्य नितातदेशस्यप्रदोपश्िखा- 
वद चलतयावस्यानं समाधिः | दत्येवं षद्भिघेरङ्रुपता यागः 
षडङ्ग उच्यत इत्यर्थः। उक्तस्यास्य यागस्य मर्वाथध्याना- 
पकारकतां विवन्तन्नाद “चनन यदा ° कदाचनः इति। 
श्रनेन यागेन सम्यगभ्यस्तेन पश्यन्‌ खध्येयं वस्तु समालेाचयन्‌ 
सन्‌ यदा यद्पिन्‌ समये रुकापरणं पुरुषं पश्यत साक्तादनु- 
भवति तदा तस्मिन्नेव समये विद्धान्‌ परिप तत्तवं जानानः 
पुण्यपापे श्रनारभ्फले विहाय त्यक्ता प्रारस्यापि कमण 


द् प्रपाठकः] दीपिकासह्हिता। ९३९. 


यथा पवंतमादीत्तं नाश्रयन्ति खगदिजाः । 
तदद्रह्यविदा दाषा नाश्रयन्ति कद्‌ाचन॥ १८ ॥ 
अथान्यचाप्युत्तं यद्‌ वे बदहिविंदान्‌ मने नियम्ये- 
न्ियाथांश प्राणा निवेशयित्वा निःसङ्कल्यस्ततस्ि- 


उभयविधस्य मागेन विनागओे सति सवं प्राणेद्धियदेदादिरूप- 
म॒पाधि परो परमात्मन्यव्ययं कूटस्य प्रत्यगात्मनि ब्रह्म्येकोक- 
राति, तप्चायःपोतेःदकविन्दुवत्‌ प्रकाशमाने श्रात्मन्युपसंहरति 
दृत्यथः। रुब्डवणंमित्या दि पृरुषविशेषणजातस्यायमथः, रूक्म- 
वर्णेमिति सखतःसिद्धप्रकाश्तत्मताद्यो तनाद्‌ विषयलतं परुषस्य वि- 
वच्यते, कलतारमिति परूषविशेषणं श्रतपूवगत्यो च्यते, दशं यो- 
निसिति च ब्रह्मविशषणे निभित्तापादानपरेते श्रपि तपूव 
गत्यानुद्येते । पुरुपषनत्रह्यभन्देा त्वन्तत्पद ल च्यविषये, तथा च 
कतार परुषमीशं यानिं ब्रह्म रूक्वणं यदा पश्यति दति 
सयाजनोयोा यन्यदति। एवं दयारत्यारि विद्यामाडाव्यस्यापन- 
परोा ग्रन्थः स्ष्टायेः॥९८॥ 

ददानो पृटाक्तयागे परिजिष्ठितस्य अष्टं पदं सवे ददि 
धारणायाः म्रवतेते वक्तमनन्तरेण खण्डन ठदोाऽलिरदस्यवादो 
““चअयान्यचाष्यक्तं ° निराश्रयं इति। यदा वे यस्मिन्नेव 
काले विद्धान्‌ यागोप्राणः प्राणोापाधिं प्रविष्टा मना निचम्येकच 
स्थिरं रला इद्धियाथाश्च शब्दादोन्‌ विषयान्‌ बदि्निवेशयिला 


दूरतस्तयक्गा ततस्तदनन्तरं निःसद्धल्यो निविंकारमनालस्ि- 
ह) 


१३२ मेन्यपनिषत्‌ | [६ प्रपाठकः। 


षरेदप्राणादिदह यस्मात्‌ सम्भूतः प्राणसञ्ज्ञका जीव- 
स्तस्मात्‌ प्राणे वे तुयास् धारयेत्‌ प्राणमित्येवं चाद । 
अचित्तं चित्तमध्यस्थमचिन्त्यं गुद्यमुत्तमं । 
तच चित्तं निधायेत तच्च लिङ्ग निराश्रयं ॥ १९ ॥ 


दिति पदान्वयानरूएा व्याख्या । कथं विद्धान्‌ प्राणः कथं 
वा तिष्ठेदित्याकाङ्कायामाद, त्रप्राणादिति। श्रप्राणणत्‌ प्राणा- 
दिविशेषरद्िताचिदात्मन एवेद ददे यस्मात्‌ प्राणसज्ज्ञकोा 
जीवः सम्भूतः प्राणएधारणापाधिना प्राणसज्ज्ञां प्राय जोव 
जात दूति यावत्‌ तस्मात्‌ प्राणा वै सखभावतेःप्राणाऽपि प्राण 
दति प्रसिद्धः, स तयास्सेऽवस्थाचयातोतेऽप्राणे प्राणमात्मानं 
धारयेत्‌ प्राणात्मभावनां दित्वाऽप्राणचिद्‌त्मभावनां कुया- 
दित्यथः। एवं द्याद्ाच कञिन्मन््ः। अचित्तं चित्तरदितं 
वित्तमध्यस्थमन्तमनस्यभिव्यक्तं चित्तखितमपि तेनाचिन्त्ं 
चिन्तनानदं, श्रत एवेात्तमं गद्यमतिगृच्यं, सवे न्द्रया विषय 
दत्यथेः । तताचिन्ये गद्ये तत्त्वे चित्तं निधायेत तदाकारीक- 
रणेन तन्मयं चन्तं कुयात्‌, तच्च प्राणस्यं लिङ्ग लिङ्गापाधिकं 
जीवरूपं निराश्रयमभिमन्तुराश्रयस्याभावात्‌ तदा न एय- 
गवभासत दृत्यथः। यद्वा आश्रयणशब्दा विषयपरः, तया 
च तच्च चित्ताख्यं लिद्धं निराश्रयं निविषयं सम्पद्यते तदेति 
शेष; | ९९ ॥ 


द्‌ प्रपाठकः। ] दीपिकासद्िता। १२२ 


अथान्यताप्युक्तमतः परास्य धारण तालुरस- 
नाग्रनिपोडनादाद्नःप्राणनिरा धनाद्‌ ब्रह्म तकण 
पश्यति यदात्मनात्मानमणारणीयांसं चयातमानं मनः- 
सयात्‌ पश्यति तद्‌ात्ममात्मानं दृष्ट्रा निरात्मा भव- 
ति निरात्मकत्वादसद्धयोाऽयानिशिन््यो मेाश्लक्ण- 
मित्यतत्पर र दस्यमित्यवं चाद । 


~~~ -~-------~-----~--~~------~-~---- ~ ~~ ~---- =---------- 





त 


एवं ज्ञानमागणात्यनोाऽवस्थाचयातोतखषरूपे धारणणप्र- 
कारमभिधाययोागमागणापि धारणाविगेषं कौवच्छं सम्मतम्‌ - 
पदिश्रति “च्रथान्यचाष्यक्तं ° सुखमव्ययमस्नुता दति? इति। 
्ताऽनन्तरमस्य तुयात्मनि स्थितस्यात्मनः परा उत्छष्ा घा- 
रणा परा अन्येति वा क्य्यत दति वाक्यशेषः, यद्‌ाऽयं खा- 
गागभ्यासवशोरुतचित्तः सनुन्मनोभावं जिगमिषति तद्‌ाऽयम्‌- 
पायः कायं;। कथं, तालकण्ठद्‌ गें जिद्कोद्गमनम्धानं, तस्मिंस्ता- 
लुनि रसनाग्रस्य निपीडनमन्तःप्रवेशन, तस्मात्‌ तालुरसना- 
यनिपोोडनात लम्िकायोागकरणादिति यावत्‌, तच च वा- 
डयनःप्राणानां निरोाघनात्‌ सद्धन्पोच्ारणस्यन्दनानां परि 
वजैनात ब्रह्म पारमश्वरं तल्लं तकण धारणानन्तरभाविना 
निखितरूपेण ज्ञानेन पश्यति । यद्‌ वंप्रकारोण मनःचयात्‌ मन- 
सा मनस्वनाशात्‌ चरणाः खन्मादष्यणोयां ख्मतिदखन्ममिद्धिया- 
गाचर द्योतमानं खयमेव प्रकाशमानमात्मानं प्रत्यञ्चमात्मना 


१२७ मेन्युपनिषत्‌ | [६ प्रपाठकः। 


चित्तस्य हि प्रसादेन दन्ति कमं शुभाशयं । 

प्रसन्नात्मात्मनि खित्वा सुखमव्ययमश्चुता इति॥ २०॥ 
अथान्यतचाप्युक्तमूद्धगा नाडी सुष॒म्रास्या प्राणएस- 

च्वारिणी तास्वन्तविच्छिन्ना तया प्राशोङ्ारमनेो- 


न्न ~---~-~------- -- - ~~ -------- - - क. -- --- ------~~-----~--------- ~~------- ----- ----- ~~ ~---~~---------- --~---------~--- 


परमात्मना, दत्यंभावे ठतोयाः, परमात्मरूपेण पश्यति सा- 
चाद्नभवति। तद्‌ाऽऽत्मनात्मानं दृषा निरात्मा भवति निर्म 
नस्क भवति जौोवभावान्निवतंते, एषावस्धा योागिभिरुन्यमनो- 
त्युच्यते । निरात्मकलाद्‌क्ररूपेणेन्मनोभावात्‌ परिच्छेदक- 
विरदादमद्याऽपरिच्छिन्नाऽयोानिराख्रयरादिति च्रात्मा चन्दः, 
चिन्तनं नामाच तदात्मनावस्थानमात्रं, एवंविध आ्रात्मा तदा 
स्फुरति दृल्युकतं भवति। न पुनरव विधिरसम्भवात्‌ तस्ये 
दति भावः दत्येतन््ोात्लक्षणं माकसरूपं पर रदस्यमति- 
शयन गेा्यमित्यसिन्नये एवं याद मन्तरमुद्‌ादरति, चित्तस्य 
दोति। प्रवादा निवासनतापत्तिः, आत्मनि स्थितिखलस्मिनेको- 
भावः, स्पष्टमन्यत्‌ 1 ९०॥ 
ददानोमृपासकस्छापरासनापरमफलमप्राघ्यथं देदादुत्कमण- 
मागेमृप{द्शति ““शच्रयान्यचा्ुक्तं ° पञ्चाद्युञ्नोत मद्धनि""द्ति। 
चा सुवुन्नास्या नाडो दद्चान्मूद्खं त्रह्मरन्नपयंन्तमूद्धगा प्रा- 
णएसश्चारिणी प्राणएख ब्रह्मलाकप्यन्तं खयर श्सिदारा सञ्चा- 
रयचो प्रसिद्धा। तथा च अरत्यन्तरं “श्तद्चका च द्यस्य 


द प्रपाठकः || दी पिकासद्िता। १३५ 


युक्तया मुत्क्रमेत्‌ ताल्वध्यग्रं परि वर्यं चेन्दरियाण्यसं- 
याज्य महिमा महिमानं निरीक्षेत तता निरात्मकत्व- 
मेति . निग्त्मकत्वात्र सुखदुःखभाग्भवति कंवलत्वं 
लभता इत्येवं चय।ह । 


नाद्यस्तासां माद्धःनमभिनिःखतेका | तयेादधुसमायन्नष्डतलमेति' 
(कटठोाप०) इति। सा पनष्द्धं गच्छन्तो ताल्लन्तर मध्ये विच्छ 
न्ना कुण्ठिता भवति। तया च तच यन्नतस्तया प्राणाङ्ा- 
रमनायुक्रया च्रभ्यासव्रशोकतन प्राणेन ध्येयत्रह्माकाराका- 
रितेन मनमा ऊकारध्वनिना च युक्तया कऋञ्चोरतयेदधं 
तालूपरि स्तनाकारेण लम्बमान्मांान्तःप्रवेशनेनोात॒क्रमेदु परि 
गच्छरदित्यथः। तथा च श्मत्यन्तरं “अन्तरेण तालक्रे य एष 
स्तन दवावलम्बत सेद्रयानियवासा केशान्ता विवतते पादा 
पोषक पाले" (तैत्तिरोयेाप०) दति। तच्राद्धं नाडोनयनप्रकारमाद 
ताल्वध्यग्रं परि वल्टेति । ताल्वधि उपरि रसनाया श्रग्रं परिवर्य 
सञ्चाय, यद्वा तालनोऽग्रादुपरि ताल्वन्तः रसनाग्र निवेश्ापरि 
स्तनाकारमभिगश्यति यावत्‌। इद्ियाणि संयाज्य प्राणमनोा- 
ग्या मेकोछत्योत्रमदिति पु॑णनचयः। एवमुत्कमणे या मडहि- 
मा परिच्छेदनिटत्या पूणतारूपस्तं महिमानं निरोचेतानुभ- 
वेत्‌, ततस्तस्मान्निरोचणएात्‌ निरात्मकलं निरिद्धियमनस्कलं 


१३ मेन्युपनिषत्‌ | [€ प्रपाठकः 


परः पूवे प्रतिष्ठाप्य निखदीतानिलं ततः। 
तीत्वी पारमपारेण पश्चायुन्जीत मूद्धनि ॥ २१॥ 


निलिंङ्गत्मेति प्राप्नाति, निरात्यकलात्‌ न सुखदुः खभारभ- 
वति केवलत्वं कवन्धं मेाक्तं लभत दत्येवम्थं दद्याद मन्त 
दृत्यथः। इद्दरियाण्धसंयान्येति पाटे इद्द्ियायतनानां शरो- 
रावयवानां मनःप्राणाग्याममन्बन्धनमुपद् श्त दति वास्या । 
एतदुक्तं भवति, प्रागक्तप्रकारेणए योगधारणया युक्ता ब्रद्मोपा- 
सोना यदा योगसामण्णत्‌ त्वतः सद्चारितसुषु्रानाडीक- 
स्तत्रैव कथञ्चित्‌ परमात्मतत्वमवगच्छति तद्‌न्मनीभावेन पर- 
ममृक्तेरयनलभ्यतव जानं स्तचेव यावज्जीवं ब्रह्यमयाऽवतिदेत। 
ततः प्रारब्धच्ये देदविगमे परमं मदिमानं परममृक्रिलक्तणं 
गच्छछति। यदा पनः प्रागुक्त स्थानं यागमद्िना प्रात्रात 
नाद्यलाकिके य विद्ाराभिलाषस्तद्‌ा मृकत प्रकारे णेात्कुम् म- 
दहिमानं ब्राह्मलाकिकं निरीक्तेत, ततः क्रमेण केवलत्वं का- 
रेन लभत इति। परः पूदमिति पूत्रमभ्यासदग्रायां निन्ट- 
दयैतानिलं वशीक्ृतप्राणं परः परस्तात्‌ तालदशे प्रतिष्टाप्य 
स्िरौरुत्य ततः पखात्पार परि च्छिन्नं जीवभावं तीवा उल्लद्न्‌ 
पञचादपारणापरिच्छिन्िन ब्रह्मण तद्रूपेणात्मानं मू्ध॑नि 
ब्रह्मरन्भे युञ्जीत याजयेत्‌ मूद्दारा ब्रह्मभावे नयेदित्ययः॥ 
॥ २९ ॥ 


द् प्रपाठकः |] दीपिकासहिता। १३७ 


` अथान्यचाष्यक्तं दे वाव ब्रह्मणी अभिध्येये श- 
ब्दश्चाशब्द राथ शब्दे नवाशब्द माविष्कियतेऽथ "तचरा 
आओमितिशन्द्‌ऽनेनोर्खधमत्कान्ताऽशब्द निधनमेत्यथा- 
हेषा गतिरेतद तमेतत्‌ सायुज्यत्वं निरेतत्वं तथा 

ददानों प्रकारान्तरेण ब्रह्मप्राघ्युपायमुपदेटरुमृपक्रमते 
'शश्रथान्यचाण्यक्रं दे ° चअरधिगच्छतिः' दरति । इ वाव एव 
ब्रह्मणो श्रभिष्यये, के ते शब्दस्ैकं ब्रह्म ्रणन्द्श्च दितोयं, 
किन्ते दवे रपि खतन्तेन किन्तूपायापेयरूपे इत्याद, च्रया- 
नया न्रदह्मणा्य; शब्दस्तन शब्दन ब्रह्मणाऽशब्दं न्रद्याविष्कि- 
यते प्रकरी क्रियतेऽननिव्यक्तितिरोधानमाचेणेत्य्थः। किं अन्द 
नह्य कथं वा तेनाश्न्दं ब्रह्माविष्क्यित इति तदाद, श्रे 
सति तज तयेदयामष्ये ्मितिशन्दः श्राङ्घारः शब्दाख्यं ब्रह्य, 
चरनेन सवार्यवाचकसर्वशब्दव्यापकतया पूणंलेनोङ्कत्याभ्यस्तेन 
साधनेनानेन शब्दब्रद्मणेद्धं प्रपञ्चादुपरि उत्क्रान्त उद्गते 
वाच्यवाचकरूपं सवं वेद्यजातमतिक्रान्तः सन्नण्न्दे परे ब्रह्म 
णि निधनं नद्य दव समुद्रो लयमेति प्राप्नाति। येवमशन्दे 
वाचामगाचरे ब्रद्मष्येकतापत्तिरथ तदा एषा डि गतिः 
परमं फलं, एतदेवाग्टतमणग्डतलं माच्च, एतत्‌ सायज्यं सायुज्यं 
सयगभावस्ताद्‌ात्यमिति यावत्‌, निदटेतलं परमानन्द्‌ाविभावः 
क्रतङृत्य्वमित्यथेः। इतिशब्दः गन्दा णब्दनत्रद्योपदेशसमाष्ययः, 











ध ---------- त चाना ० अधिक ~ 


* यचा इति पाठन्त्र। 


१द८ मेन्यपनिषत्‌ | [ ६ प्रपाठकः) 


चेत्यथ यथाणेनाभिस्तन्त॒ना्धमुत्करान्ताऽवकाशं लभ- 
तीत्येवं वाव खल्वसा अभिध्याता आओमित्यनेनेाद्ख- 
मुत्करान्तः सखातन्त्य॒' लभतेऽन्यथा परे शब्दवादिनः 
अवणाङ्षटयागेनान्तहद्‌ याकाशश्ब्द माकगयन्ति स- 


० माम्म [र 


उक्रोऽथ दुष्टान्तमादा्यति। अ्रयास्मिन्रथ दृष्टान्त यथयेोर्ण- 
नाभिर्लूुताकौरस्तन्तुना खमखाल्लालानिमिंतेना विच्छिन्नेन ख- 
चणोद्मपरिदेशं मप्रदत्करान्ताऽवकाश्रं निरङःशविद्ारस्यानं 
लभति लभते दति प्रसिद्धं जन्लन्तरसाधारणएदेशशावस्यं 
यरित्यज्यासाधारणं निर्भयमवकाशं प्राप्नातोत्यर्थः। एवं वाव 
एवमेव खल यथायं दृष्टान्तस्तथा श्रसावभिध्याता ्रामि- 
त्यनेन शब्दब्रह्म साधनेनाद्खम्‌त्कान्ताऽदंममतास्पदश्राव- 
ल्याद्धिमृक्रः खातन्त्यृ कंवल्यासख्यं लभत दत्यर्यः। एवं प्रण- 
वा ख्यशन्द ब्रदह्याग्यासाऽशब्द परन्रह्माविभावसाघनमिति सखमत- 
मुक्ता मतान्तरमादान्यथति, परो शब्दवादिनः णन्दव्रद्म 
वादिनः शब्दमाकणयन्तोत्यन्वयः) कथमिति तर्‌ादइ अव- 
रेति कणयोारङ्खष्टं याजयिला कण्योरङ्गुष्टाभ्यां पिघाने- 
नान्तरईदये य श्राकाशेाऽवकाशस्ततरत्यं शब्दमाकर्णयन्ति तं 
शब्दं शब्दब्रह्मेति मन्यन्त दरत्यथः । तस्य ्रयमाणस्यान्त द चा- 
काशस्ययाषस्येयं वच्यमाणा सप्तविधघधापमेापमानं भवति) 
तामेवाद ययेति, नये नदीनां चाषः, किद्िणो घण्टाचाषः, 


ई प्रपाठकः।| दौपिक्षासह्िता। १३९ 


पतविधेयं तस्यापमा यथा नद्यः किङ्किणी कांस्यचक्रक- 
भेकविःकछन्धिका दशटिनिवाते वदतीति तं प्रथग्‌- 
लकछषणमतोत्य परेऽशब्द्‌ऽव्क्ते ब्रह्य ण्यस्तं गतास्तच ते 
ऽएथग्‌धमिणेाऽषटथग्‌विवेक्या यथा सम्पन्ना मधुत्वं 
नानारसा इत्येवं द्याह । 
दे ब्रह्मणो वेदितव्ये शब्दब्रह्यं परञ्च यत्‌ । 
शब्दब्रह्मणि निष्णातः पर ब्रह्माधिगच्छति ॥ २२॥ 


~ ~~~ - ~ ~~~ ------- ~ --- -- ~~~ ---------~-~=-- --- ~~~ ----- ~न --- ~ ~ ----------------- 


कांस्ये तत्पाचघाषः; चक्रकं रथयचक्रघ्वनिः, भेकविःरभ्धिका 
मण्ड्करवः, ष्टिवेषणश्रन्दः, निवाते गदायां क्पे वा वदति 
वदनमुपरिख्ितेन श्रूयमाणं सेाऽपयेकः प्रकारः। एतेष्वनिभिः 
सदृशा याऽन्तराकाशशब्दस्तं शब्द्‌ ब्रह्म\परे वदन्तोत्ययः। 
द्रतिशन्द उपमेत्यनेन पूवेण सम्बध्यते । तमेवमन्तददये भरू 
यमाणं एय गलन्षणमनेकापमानेरनेकधा विभाव्यमानं शब्द- 
मतोत्य परोऽशब्देऽव्यक्ते वाचामगोचरे ब्रह्मणि ्षद्धेऽस्तं गर्ता 
अदश्रनं प्राप्तास्ते शन्दब्रहमवादिन इत्य्यः। तच परे ब्रह्मणि 
तेऽप्रयग्घमिंषणा ब्रह्योकसवभावा अत एवाप्यग्वितेक्याः 
एयग्ििवेक्तुमशक्याः यूववद्धंराख्ेखायेाग्या दृत्यथैः। तत्रायं 
दृष्टान्ता यथा नानारमाः ष्रयकस्वभावकुसुमरसा यथा मधुं 
मध्वात्मतं सम्पन्नाः सन्ता न एयग्विवेक्यास्तददित्यथंः। एवं 
चतादादरणमाद शतिः दे ब्रह्मणो इति, द्याकः स्पष्टायेः॥ 
॥ ९२२॥ 


१ 


९४० मेय पनिषत्‌ । [ € प्रपाठकः । 


अथान्यकचाप्युक्त यः शब्दस्तदोासित्येतद्‌श्षरं यद- 
स्याग्रं तच्छान्तमश्ब्दमभयमशाकमानन्दं ठ त्तं स्िर- 
मचलमणशतमच्युतं भुवं विष्णएसञ्न्नितं सवापरत्वाय 
तदेता उपासीतेत्येवं द्याह ¦ 
याऽस परापरा देवा ्राङ्गारा नामनामतः। 
निःशब्दः शरन्यभरूतस्तु मृन्खं स्थाने ततेाऽभ्यसेत्‌॥ २२॥ 


१... न ~~ --------न ~~~ ---~---~-~----------- ---~------ ~ ------------~-~-~-~-------- 


उक्रमेव शब्दाश्ब्दब्रह्मरूपं विभच्याशब्दब्रह्यसररूप वि- 
शद यति “रथान्यचाण्युक्तं यः ° ततेाऽग्यसेत्‌” इति। यदोा- 
मित्येतद चरं तच्छब्दः शब्दाख्यं ब्रह्मेति योजना! यदस्य 
प्रणवाख्याचरस्याग्रं नाद्‌ावसानम्थानं तच्छान्तं निविशेषमभ्र- 
ब्द मशब्दास्यं परं न्द्ध, अभयमित्यादौनि तस्य खरूपलक्त- 
णायानि विशेषणानि स्यष्टायानि। सवापरलाय सवेस्मादरप- 
र॑लाय मेच्ताय तदेता एते उक्रलचणे ब्रद्धाणो उपासीते- 
त्येवमस्िन्नर्य दाद । योऽसा प्रसिद्धः परश्चापरख् परापर- 
ब्रद्मदु्य द॑लादटवः परं ब्रह्म! कः, ख्राङ्ारो नामनामतः, याऽयं 
प्रसिद्धः स शब्दब्रद्मोत्यथंः। यस्तु निःशब्दः पर ब्रह्माशनब्दाख्यं 
श्एन्यभ्रता निराकारलान्निरविंशेषः, तत एवविघधमात्मानं ब्रह्म 
मूष्धं स्थाने सवाक ददययाने, श्रयवा भपुवि्राणस्य च 
य: सन्धिः सेाऽविमुक्तास्यः श्रुत्यन्तरे प्रसिद्धसलस्िनद्धि खाने 
ऽम्धसेत ध्यायीतेत्ययः ॥ २२ ॥ 


द्‌ प्रपाठकः |] दीपिकासदिता। १४१ 


अथान्यचाप्युक्तं धनुः शरीरमेामित्येतच्छरः शि- 
खास्य मनस्तमालक्षणं भित्वा नमेाऽतमाविष्टमाग- 
च्छत्यथाविष्टं भि्वाऽलातचकमिव स्फुरन्तमादित्य- 
वशेमूजंस्वन्तं बरह्म तमसः पर्यमपश्ययदमुष्मिनादित्ये 


ननन ~~~ ----~--------------------~----~---------------~-------~- 


पुवाक्तप्रकारेण यथानिदिं्टं न्रह्धोपासितवता गतिं सा- 
धनविग्ेषोपदेशपृतरकमाद, यद्वा दे वाव ब्रह्मण श्रभिष्येये' 
दृत्यस्मिन्नन॒ वाकं सखमतेन शब्दब्रह्म प्रणवाख्यसुक्तं तन्निष्टायां 
प्रकारविश्षमुपदिशरन्ुपासनाफलप्रकारमाद्‌ शच्रयान्यचाप्यकत 
धनुः ° कं एव सः" दति। धनुः काद्ण्डः प्रसिद्धं शरीरं, 
रामित्येतदचरं शरः, अरस्य शरस्य श्खिा श्रग्रं शत्यस्थानोयं 
मनः, तमे भ्रान्तिज्ञानं लचणं सद्धावज्ञापकं यस्य तत तमोा- 
लच्चणं, तमा मूलान्ञानं भिता शरप्रयोगेण लच्छतमामेदनं 
छलाऽतमा विष्टं सन्धिः छान्दसः, अतमश्राविष्टं तमश्रावेशन 
रदितं सद्गातादिविक्रमात्मानमागच्छति, मनोरूपं शरागर 
तस्जिन्निवेश्यतीत्य्थैः। एतदुक्तं भवति 'सम रासन आ्रसोनः 
सममूद्धं तं शरीरं धनुरिव किञ्चिदच्तसि विवृकारोपणेना- 
यम्य तस्मिन्‌ प्रणवं घोषवन्तं एरमिवाविष्कुत्य तस्य नादल- 
यस्थाने मनः; शरशच्यमिव बद्धा तन प्रणवशराग्रण मनसा 
श्रावरणं सविच्रेपमन्नानं विदां तद्‌ाश्रयविषयतयापलल्ि- 
तमात्मानं प्रवेशयेत्‌ तन््नः› दति । श्रयानन्तरमाविष्टं पूवेम- 


९४२ मेन्युपनिषत्‌ । [€ प्रपाठकः । 


ऽथ सेमेऽप्ना विद्युति विभात्यथ खल्वेनं ह ्राऽगटतत्वं 
गच्छतोत्येवं दाइ । 
ध्यानमन्तः परे तत्वे लश्येषु च निधीयते । 
अताऽविशेषविन्ानं विशेषमुपगच्छति ॥ 


~~~ == 8, क ~~~ ----~~~-~ -- ~ ~~~ ~ ---------- -- ~ ~~~ 
=-= = == ------~~ > 


लानाविष्टमात्मानमदद्धारास्यदं भित्वा द्रण्रुरूपं दृ ष्यमापेकतं 
विदायं ब्रह्मापण्यदिति सम्बन्धः। तस्व ब्रह्मण श्रात्माभेदत- 
ख्यापनाय पंलिङ्गर्विंभेषणेस्तदिशिन्टि, अलातेत्यादिना। श्रव- 
र्डाकारस्फुरणेऽलातचक्रदृष्टान्तः। च्रादित्यवणमिति सवदृश्वा- 
भिभावकप्रकाशात्मलमादित्यरूपसा दृ शधमुच्यते। ऊजसखन्तमूजा 
रसस्तदन्तं, ्रानन्द्रसमिति यावत्‌, तया च अरतिः रसावेमः। 
रसं दये वाचं लन्छानन्द्‌ो भवति (ते त्तिरोया०) दति। तमसः पर्य- 
मिति परेतं पयं पाग तमसः परस्ताद्‌तमसकमित्य्थैः । एवं 
तमात्मानं नद्मयापश्यत्‌ पश्यतीत्ययः। यदादित्यगतं तेजा 
जगद्धासुयतऽखिलं । यचन्द्रमसि यच्ाग्रै तत्तेजा विद्धि माम- 
कं" (गोर) दति खूतेमूलग्दतेन वाक्येन प्रकाशमाचमस्य खाभा- 
किकं खरूपं सव तरापलक्तणोयमित्यभिप्रेत्या द, यद मृञ्मिननिति। 
थेवं ब्रद्मात्मदशेनसमये खल्वेनमात्मानं दृषा ब्रह्मामेदोन 
साच्तात्‌रत्याऽग्टतलं गच्छति मुक्ता भवतीत्येवं द्याइ दति प॒व- 
वत्‌ । ्रन्तःप्रतीचि सदवान्तरे परे तत्वे परे ब्रह्मणि ध्यानं घौयते 
लच्छेषु च प्रथमं शरौरप्रणवमनस्तललयस्थानषु च ध्यानं धौ 


€ प्रपाठकः || दीपिकासददिता। १४३ 


। मानसे च विलीने तु यत्‌ सुखं चात्मसाश्िकं । 

 तद्रह्य चाश्ठतं शुक्रं सा गतिर्लीक रव सः ॥ २४ ॥ 
अथान्यवाप्युक्तं निद्र वान्तहितेन्दरियः शुडितमया 

धिया स्वप्र इव यः पश्यतीन्द्रियबिलेऽवि वशः प्रणवाख्यं 


` ० ~~~ ~~ --- 
~> ~~न 


यते क्रियते कुयादित्य्थः। रता ध्यानाद्‌विशषविन्ञानम- 
स्फटोाऽनुभवा विश्रषं स्पुटत्वमुपगच्छति। स्फटतर्मात्तान्कारो- 
दये सति यद्‌ात्मनावम्धानं सा मक्तिरित्येतदाड, मानस दति) 
मानसे मनःपरिणामरूपऽदङ्ार ग्रन्थो विलीने प्रलयङ्गते, च- 
कारात्‌ तद्ासनायां च विलोना्यां, तुशब्दः सुपुपर्विंशेषणा- 
थैः! यत्‌ सुखं, चकाराद्धेतुमच्वशङ्गा व्यावत्यंते, नित्यं यत्‌ 
सुखमात्मसाचिकं खयमेव स्फुरत्‌, न वेद्यमिति यावत्‌, तदेव 
नर्म चकारादात्माच, कीौदुशमम्टतमविनश्वर, प्रकरं दीत्तिमत्‌ 
ज्ञानस्वभाव, यदेवंविधं ब्रह्मात्मतत्वं सा गतिः परूषाथः, स एव 
लाकः फलं सवसाधनानामित्यथः ॥ २४॥ 

द्दानीमुक्तां विद्यामनृद्य तदन्तं प्रशंसन्‌ विद्यामेव मदीक- 
राति “श्रयान्यत्राप्यृक्तं ° दत्यभिधोयतः' दति। निद्रव नि- 
द्वित इव सुपुत्र दव चान्तह्ितेद्धियः प्रविलोनेन्रियद्रन्तिर्नं 
निद्रावानित्यथेः। तया खन्न दव खप्रदृगिव इन्दरियविले 
दृन्द्ियाणणं निवासस्थाने ददे ्रविवशः म्युलदे दामि मान्य 
दरति यावत्‌ न लयं खभ्नदृगेवेत्यथः। श्रनेनेव देदाभिमान- 


१४४ मेन्युपनिषत । [ € प्रपाठकः। 


प्रणेतारं भारूपं विगतनिद्रं विजरं विष्टत्यु विशे- 
कञ्च सोऽपि प्रणवाख्यः प्रणेता भारूप विगतनिदट्रा 
विजया विग्डत्यविश्केा भवतोत्येवं दाइ । 


--- ~ ~~~ ~~ ---~-~--~~ ~~~ ---------~---- -------~-- ~ -~-~--------~~---~--- === ननि 





रादित्येन नाग्रदष्ययं नेत्युक्घप्रायं द्रष्टव्यं, तया चेवमवस्थातचया- 
तोता लयविक्तेपरद्ितया प्टद्भितमयाऽतिशयेन प्रएद्धिमत्या 
धिया प्रसन्नवद्यायः प्रणवाख्यं प्रएवेकात्मतामापन्नं प्रणेतारं 
पश्यति साऽपि तदात्मा भवतोति याजना, तं यया यथापा- 
सते तदेव भवति! दति श्रतेः प्रणेताऽन्तयामीश्वरः तं प्रणेतार- 
मन्तयामिवेनापलक्ितमित्य्थंः। भारूपं ज्ञानप्रकाशखरूप- 
मित्यनेन खरूपलच्णमक्तं, विगतनिद्र्‌भित्यविद्यातत्कायं- 
रूपावरणएतिक्तेपाज्ञानरदिततया कूटस्लमुच्यते। विजरं वि- 
ग्दत्युमिति स्यृलसद्घातघमवत्चनिरासेन तता विविक्रलमुच्यते। 
विशाकमिति श्रन्तःकरणधमेर्‌ादित्यं, चकारात्‌ प्राणघमकच्तु- 
त्पिपासारादित्यं गद्यते, एतेन खद्मसहगताद पि बिविक्तताक्ता। 
तया च कायकारणप्रपञ्चातौतं यथाक्रविशेषणं लयविक्तेप- 
रदिततयाऽवस्थाचचातौोतया बुद्धा याऽनुभवति साऽपि प्रण- 
वाख्य इत्याद्ुक्रात्मका भवतीद्यवं याद । कि, एवं ययोक्रप्र- 
कारेण प्राणप्रणेतारमत्मानं, च्रय तथा शच्राङ्ारमाङ्ारा- 
त्मनेकोकतं त्वं प्रति यस्मादनकघाऽनेकमप्रकार स्यूलखच्ल- 
कारणात्प्कं सवे जगद्युनक्रि योजयति मरविलापयति कञ्चित्‌, 
यज्ञते वाऽपि स्रयमेव वा विदीयमानं यञ्ञते याजयन्तिवा 


ह्‌ प्रपाठकः || दौीिकासहिता। १४५ 


` रवं प्राणमथोङ्ारं यक्मात्‌ सवेमनेकधा । 
युनक्ति युच्जते वापि तस्माद्योग इति स्मतः ॥ 
 रकत्वं प्राणमनसोरन्द्रियाणं तथेव च । 
सवभावपरित्यागो याग इत्यभिधोयते ॥ २५ ॥ 
अथान्यचाप्युक्तं यथा वाषखु चारिणः णकुनिकः 
ह चयन्त्रेणोडत्याद्‌रेऽया जुहेत्येवं वाव खल्विमान्‌ 


~~न --------- -------------- ~ ~ 2 श 


कंचित्‌, तस्मादियं निष्टा याग दृति इतः कता येग्ञेरि- 
त्यथः । सिद्धूनिष्ठां फलूपं यागमुपलच्छ तत्खाधकनिष्ट 
साघधनरूपं योगं लच्यत्येकलमिति, प्राणादीनामेकलं, एक- 
विषयप्रवणएतया प्रत्यक्‌प्रवाहकरणं । सवभावपरित्यागः स्वेषु 
क्रियाकारकफरीषु भावपरित्यागः सत्ववद्धित्यागः, श्रयता 
सव॑विषयकोा या भावा भावनासंस्कारस्तस्य परित्यागः, 
अ्रविषयात्मतत्वज्ञानाभ्यासेन वाद्यविषयवासनाभिभव इत्यर्यः 
॥ २५॥ 

पमः प्रकारान्तरेण प्रणवनिष्ठायां भावनाविगेषं योगा- 
न्तरमार “शच्रयान्यत्राधयुक्तं ° यथया क्रमेण दति। यथा 
वा लाके कञ्चिच्छाकुनिकः श्कुनापजोवौ किरातकेवतारि- 
रप चारिणा मच्यादीन्‌ खत्यन्त्ेण जालच्णाद्ूत्योद्र 
उदरस्येऽग्ै जरेति जाटराञ्चिमात्करोति एवे वाव एव- 
मेव खल इमान्‌ प्राणान्‌ जलचरम्थानोयान देदान्तविंच- 


१४६ मेव्युपनिषत्‌ । [€ प्रपाठकः 


प्राणनामित्यनेनेाद्ुत्यानामयेःम्नो जुदात्यतस्तप्ोर्वीव 
साऽथ यथा तघ्नोवि सपिस्तणकाष्टसंस्पनाज्च- 
लतीत्यवं वाव खस्वसावप्राणस्यः प्राणसंस्यशनेाज्च- 
लत्यथ यदृज्चलत्येत ब्रह्मणा रू पच्चेतद्िष्णाः परमं 


.------.--.. -------- --------~-- --~~--~~~~-~----- भ 4 
---ˆ -* ~-----*- --~~~~ ~ ---~------“----- 


रतः सवौनेव मृख्यामुख्यरूपानामिव्यनेनाक्तरेण जालखचम्था- 
नीयेन सवाथंसङ्गदसमर्येनेद्धृत्य एथक्कृत्याना मये निदेषे 
ब्रह्मात्माग्नी जुदोति तदात्मसात्करोति इत्यथैः । उद्धत्य 
दामे दृष्टान्तमुक्रा ङतस्याऽग्रियस्ततयाग्िमयले दृष्टान्तमाह 
शरतस्त्नोर्वोव स इति अता हामानन्तरं स श्रात्मरूपाऽनाम- 
योाऽभ्रिसतप्तवोव उवींशनब्देनार्वाजं भाण्डमुच्यते यथा घमं 
मदावोराख्यें भाण्डं तप्तं तादृशः सदत्यथंः । दृष्टान्तं विद्र 
णाति, य ययेति। तत्ता उर्वी आधारो यस्य तत्‌ तप्नाविं 
तच्च तत्‌ सर्पि्येति विग्रदः। तद्यथा दणादिसंस्य नाज्ज्वल- 
व्यूडज्वालं जायते एवमित्यादि दष्टा न्तिकाक्तिः, एवं वावैव- 
मेव खल्वसावप्राणाख्यः प्राणादिसद्ातादिविक्रतया प्राणा- 
ख्यामलभमान श्रात्माश्चिः मराणएसंस्पग्रनेाज््वलति प्रकरोभव- 
तत्य: । एतदुक्तं भवति यथा सन्तप्रे भाण्ड विद्यमानोाऽप्य- 
भ्रिन सखरूपंण संदृण्ठते घतेनोादटौपितः संस्तद्‌क्रदणा दि सम्बन्धे 
यथावहृश्ते एवमसावात्मा टरेदसंस्यो न यथावद्वभासते 
प्राणादिप्रपञ्चप्रविलापने सति विलीयमानप्रपञ्चानगतचि- 


द्‌ प्रप्राठटकः।| दौीपिकासस्ता। १९७ 


पदञ्चेतदर द्रस्य रुद्रत्वमेतत्तद्‌ परिमितधा चात्मानं वि- 

भज्य पूरयतीमान्‌ लाकानित्येवं द्याद । ` 
` वड्धे ख यदत्‌ खलु विष्फुलिङ्गाः 
सयान्मयुखाश्च तथेव तस्व । 
प्राणाद्या वे पुनरेव तस्मा- 

द्भ्यचरन्तोह यथाक्रमण ॥ २६ ॥ 





नाज 


दाभामद्ारा यथावद्दभास्त इति) अरय पृवक्तखात्मनेा 
यद्चिरूपकत्वम्‌क्तं तदृष्टान्तेण प्रपञ्चयति, तेप्रोवींव स दत्या- 
दिना। तपराविंशब्देन तत्स्थं घतं ल च्यते, तद्यथा खेव्यौ सद 
तप्यमानं खसंसगिं सवं टणादिकं सन्तपदभिज्चल[त एव- 
मयमप्राणाख्य श्रात्मा चिदाभास्यापघ्रं टरेददयं सन्तपंस्तत्‌- 
संटष्टं सवमेव जगदभिज्वलयति प्रकाश्यतोव्यग्मिवेन रूपक- 
मक्तमिति । अस्यैव सवात्पत्तिस्थितिलयकारणत्वेन सवोत्मल- 
माविष्करोति, श्रय यदुज््वलतेति। एतद्रद्मणे दिर ण्यगभ॑स्य 
सष: रूपं खर”, विष्णा: पालकस्छ परमं पदं खरूपं, एतदेव च 
रुद्रस्य संहतः रुद्रलं खरूपं, एतदेव तदात्मखपं ब्रद्माऽपरि- 
मितधा चात्मानं विभज्य देवतिय॑ड्नव्यादिभेदेनाविद्ययात्मा- 
नमनेकधा विभच्येमान्‌ लेाकान पूरयतोत्येवं दाद, व्धेख य- 
ददति) पूीद्धं स्यष्टा्थे। प्राणाद्या तै प्रसिद्धाः पमरेवेति 
सुपुश्निप्रलययेः प्रलीनाः पृनः पुनस्तसमादभ्यवरन्तीड प्रनो- 


ध्य यथाक्रमेण पूवंखृषिक्रमेणत्ययंः । तथा च चुत्यन्तर 
४८: 


१४८ मेन्यपनिषत्‌ । [€ प्रपाठकः। 


अथान्यचाष्युक्तं ब्रह्मणा वावेतत्तेजः पर स्याशत- 
स्याशरीरस्य *यच्छरीर स्येएष्ण्यमस्येतत्‌ धुतमथाविः- 


स ~~~ "~ -----~---~ 


यथाग्नेः चद्रा विस्फुलिङ्गा व्युचचरन््येवमेवासमाद्‌ात्मनः सव 
प्राणाः सवं लोकाः सवं देवाः स्वणि श्लानि दचरन्तिः 
(हृददा०्श्र०४) दइति।॥२६॥ 

ददानों प्रकारान्तरेण दयन्तज्यातिषमात्मानम्‌पलम- 
यन्‌ सफलामत्मनिष्ठामुपदिश्ति 'अथान्यचाणुक्तं ° तेज- 
सै वाथ्िद्धव॑याः दति। ब्रह्मणा वाव परमात्मन एवैतद- 
यमाणं तेजः, किंलचणएस्य परस्य सवेदुश्थखभावातोतस्यात 
एवाम्टतस जन्मादि मरणान्तविक्रियारदितसछेति यावत्‌। खतः 
परमम्डतमपि ब्रह्मतेजः शरोरसम्बन्धात्‌ विपरौतं स्वादित्यतेा 
विग्न, श्रशर)रस्येति। शरीरसम्बन्धरदितस्य, न डि निर- 
वयवस्यासङ्स्य जतुकाष्टवत्‌ शरीरसंङषाऽस्तीति भावः। एवं- 
विधस्य ब्रह्मणा वावेतन्तेज दति सम्बन्धः। किं तदित्याद। 
चच्छरौरस्याष्ण्ये शरीर सम्बन्ध्याग्रेयं यदष्ए्यमपलभ्यते स्पशनेन 
म्रत्यचेण तद्रृद्मणएस्तज दत्ययंः। तया च क्ान्दाग्येष्यदतः परा 
दिवे च्योतिर्दीष्यते दृत्युपक्रम्य दृद वाव तद्यदिदमसिन्नन्तः- 
परुषे व्यातिस्तसयेषा दृष्टिस्चेतदस्मिच्छरनेरे संस्पभ्रनाष्णिमानं 
विजानाति इनि। शरस्य तेजस एतत्‌ प्रसिद्धं शरोर घतं, 
श्नेन डि तद्रृद्यतेजाऽन्यचाप्रकाश्मानमश्चिरिव घृतन दौप्यते। 


* यजश्रोरस्येति लिखितं । 


ह प्रपाठकः।]  दीपिकासहता। १४६ 


सन्नभसि निहितं वेतदेकाग्रेणेवमन्तहदयाकाशं वि- 
नुदन्ति यत्तस्य ज्योतिरिव सम्पद्यतोत्छतस्तद्वावम- 
चिरेशेति भूमावयस्पिण्डं निदितं यथाऽचिरेणेति 


एवं सामान्येन देदगताष््यात्मना ब्रहातेजः सस्ावनापदं नो- 
तमिद्‌ानों तस्य साच्चात्कारपदवीरपदिश्रति, च्रयाविः सन्नि- 
ति। श्रयेवं समभावितं तत्तेजः आविः प्रकरं सन्नभसि दद- 
याका निदितं स्थितं वे निखिलं सवश्रतिष्वेतदेत्य्यः । तथा 
च मृण्डकं श्रविः सन्निहितं गद्ाचरं नाम मदत्पद्‌' दति) 
तत्तेज एवमृक्तप्रकारमदिग्वान्तहदये ददयपुण्डरोकं दा- 
काशं तदेकागरेण वचित्तसमाधानन विनदन्ति विशेषेण नुद्‌- 
न्ति ददयपृण्डरौकविकासनेन तत्‌स्यमाकाश्रमाविष्क्वन्ती- 
त्यथः! -एवं क्रियमाणे तस्याकाशस्य सम्बन्धि यज्ज्यातिरिव 
प्रकाश दव नित्यमिद्धूमप्यावरणतिरोाधानमान्ापेक्योद्रूत- 
प्रकाशर दव सन्यद्यति सम्पद्यते श्रभियक्तं जायत इत्यं; । 
दति यतः सखतः सिद्धं तजाऽभिव्ज्यतेऽतस्तद्भावं तस्य तेजसा 
भावं सखभावमविरणान्यकालेन सद्य एव एति प्राप्राद्युपा- 
सकः। तस म्रत्ययूपत्रेन नित्यप्राप्नलात्‌, तद्‌ावरणतिरोा- 
घानमाचमपेच्य प्रा्िरुपदयत दति भावः! तच्रापाध्याका- 
र प्रतिबन्धनिदरच्याऽचिरेण सखखरूपापन्ता दृष्टान्तमार, भ 
माविति। श्भा निदितमन्तश्डेमोा निलिक्नमयस्पिण्डं पिण्डो- 


१५०  म्न्यपरिषत्‌। [€ प्रपाठकः| 


भूमित्वं रदत्सस्थमयस्यिण्डं यथाग्न्ययस्काराद्येा 
नाभिभर्वात्ति प्रणश्यति चित्तं तथाश्रयेण सदहैवमि- 
त्येवं चया । 

ग्लमये यथाऽचिगेण शमितं खद्भावमुपेति गच्छति षदेव 
भवतीत्यर्थः, तथा सम्यक्‌ सखरूपापननेम्य पनरनुत्धानमेवेति, 
शअरचापि दृषटान्तमाद, ग्टदटत्टसम्थमिति। ग्टद्त्‌ सात्तात ब्टत्ति- 
केव संस्था स्थितियस्य तन्डदत॒संस्ये, श्र वतिप्रयोग उक्ति- 
भङ्ोमाचा ग्डदात्मना स्थितमित्ययः। यथया गद्‌ात्मतां गत- 
मयस्पिण्डमग्ययस्कारादया नाभिभवन्ति श्रग्चिना प्रागयस्पिण्ड 
दव तस्मिन्नरभिवयक्रप्रकाभगेन न दद्यते न वाऽयस्वारलाद- 
कारैकिंकारीक्रियत दृत्यथं;ः। दाष्टान्तिकमाह, प्रणश्यति 
दूति, यथेमे दृष्टान्तौ तया वित्तं दित्तस्यञ्धिद्‌ाभासे जोवास्य 
श्रा्रयेषणापाधिना चित्तेन सद प्रणण्यति निराभासनज्यातौरू- 
पमापद्यते दृत्ययः। यदा वित्तं साभासमन्तःकरणं श्चा्रयेण 
वासनात्मकलिङ्खेन मद प्रणश्यति प्रकषण नश्यति उच्छिन्न 
संस्कारः भवति प॒नने7त्पत्यदं भवतीत्ययंः। एवमेत्रैतन्नान्यये- 
त्येवमर्यमाद द्चाक दत्ययः। दद्याकाशमयं श्राकाशवद्‌ सङ्क यदा 
हदये यद्‌ाएकाशं तत्खरूपं दद्या काशमयं, काशा भाण्डाकारस्त- 
दत्‌ सववस्लाश्रयलात्‌ कोशमिव काशं, लिङ्गव्यत्ययः कान्द सः। 
त्या च दाद्‌काशं प्रत्य श्रुत्यन्तरं “उभ ्रस्मिन्‌ द्यावा- 
यवो च्रन्तरव समाद्िति उभावश्मिख्च वायुश्च खया चन्द्रममा- 


९ घपाठकः || दीपिकासहइिता। १५९. 


हद्ाकाशमयं काशमानन्दं परमालयं । 

स्वं यागश्च ततेऽस्माकं तेजश्चेवाग्रिख्ययाः ॥ २७ ॥ 

थान्यचाप्युक्तं मरूतेन्दरियाथानतिक्रम्य ततः प्रत्र- 
ज्याज्यं टतिद्‌ण्ठं धनुखहत्वाऽनभिमानमयेन चेवे- 


वुमे विद्युन्रचत्राणि यद्वा सेदहास्ति यच्च नास्ति सवं तदस्सिन्‌ 
समादितः (क्ा०अ०८) दति आनन्दयतोन्धयानन्द्‌ “एष दयेवा- 
नन्दयातिः इति श्रुतेः। परमालयं च्रासमन्ताल्लीयतेऽस्मिन्‌ 
सवमित्यालयं परमं च तद्ालयं च परमालयं म॒क्तिरूपमि- 
त्यथः। एवम्भूतं यद्रृद्यरूपं तेजस्तदस्माकं सं खरूपं यागश्च, 
युञ्यत इति यागः, फलं पुरूषाः मेाऽप्येतदेवेति याजना । 
यत -एवमताऽसख सवात्मकलाद्ग्रिखययाश्च तज एतदेतेत्ययंः। 
तया च भगवद्चनं। 

अविभक्तञ्च शरतयषु विभक्तमिव च स्यितं। 

ग्तभद्ट च तज्च्नेयं यसिष्ण॒ प्रभविष्ण च ॥ 

ज्योतिषामपि तत्‌ ज्योतिस्तमसः परमुच्यते इति ॥२७॥ 

ददानीमुक्स्य ब्रह्मतेजस उपलम्भे योगविशेषमुपदिशति 
“शच्रयान्यत्ताप्यक्तं ° न कद्‌ाचन्ःः इति श्छतपद्‌न ततस- 
इनता ददा ग्य्द्यते, दद्धियाणि प्रसिद्धानि, श्रयाः शब्दादया 
विषयाः । देदरदन्धियविषयानतिक्रम्य तेव्वदंममाभिमानं त्यक्ता 
ततोऽनन्तर प्रव्रज्या सन्यास एव ज्या यस्य तम्रतरज्याज्ये, शतिध्े 


१५२ मेन्युपमिषत्‌ | [€ प्रपाटकः। 


घणा तं बरह्मदारपारं निहत्याद्य सम्माहमोली ठष्णे- 
व्याकृण्डली तन्द्रौराघवेव्यभिमानाध्यछषः कोाधन्यं प्र 
लाभदण्डं धनुरहोत्वेच्छामयेन चैवेषुणेमानि खलु 





1 


दण्डः काण्डं यस्य तद्धृतिदण्डं, एवंविधं धनग्हीता धे्य- 
मास्थाय तस्मिन्नमङ्गतालकत्षण्णं ज्यामारोष्येत्यथः। तस्मिन्‌ 
धनषि संद्ितिनानभिमानमयेन चकारादिवेकशितेन चेषु- 
रैव विद्याचारकुलादिनिमित्ताभिमानपरित्यागात्मकेन दू- 
गदु ण्यविरेकापरुतेन च यथयाक्रानभिमानमयन यथयोाक्तविवेक- 
तीच््ोनषणेति यावत्‌ । तमाद्यमिति सम्बन्धः| तं प्रसि- 
माद्यं सर्वानयकारणएमरद्ाराख्ये ब्रह्मदारपार द्ार्दस्य 
ब्रह्मणः प्राप्तदटारस्य पारं पालं, रलयारभदात्‌, द्रारनिरोाध- 
करमित्यथः | एवन्भूतं नित्य दला ब्रह्मशालां विभेदित्यृत्त- 
रच सम्बन्धः । सङ्गदणाक्तं विद्ष्वती अ्रतिरदद्ारस्य न्त- 
व्यते दतुं खचयति, सम्मादेत्यादिना। ममाद मिथ्याज्ञानं 
मैलिरुष्णीोषमस्यास्तोति सम्माषमाली। टष्णा विषयचापलं, 
दैव्या परोत्कषासदनञ्च कुण्डले यस्य॒ विद्येते स टष्णेग्धाकू- 
ष्डलो । तन्द्र सत्कमंसखालस्यं, दरा निद्रा, अधं पापं चेत्ये- 
तानि वेचं यषटिविश्रेषो यस्य स तन््रोराघवेच्ी। च्रभिमानः 
सात्कषाभिनिवेशस्तस्याध्यक्लाऽधिष्ठाय प्रवतयिता प्रागक्ताऽद- 
ङारः साभासः सः। क्राघज्याकं प्रलाभदण्डं धनग्टेदीला 


ह्‌ प्रपाठकः || दीपिकासहिता। १५३ 


५ 


भूतानि दन्ति तं इत्वोाङ्गारलवेनान्त हंद याकाशस्य 
पारं तीत्वाविभूतेऽन्तराकागरो एन केर वटेवावरल्ङा- 
तुकामः संविशत्येवं उद्यष्णलां विशेत्‌ ततश्चतुजालं 
ब्रह्मकोशं प्रणुद इ वागमेनेत्यतः शद्धः पूतः श्र न्यः शान्ता - 
प्राणा निरात्माऽनन्तेाऽश्चय्यः स्थिरः गश्चतेाऽजः स- 


द्‌च्छामयन स्वच्छनम्दाध्ग्पयायवाच्यस्पेण चकाराद्‌ विवेक- 
निशितेन चैवेषुणेमानि प्रसिद्धानि खल शतानि स्थावरज- 
द्रमात्मकानि दन्ति पीड्यत, तमेनं सर्वपाडाकर्‌त्ताद््‌न्तव्यं 
दत्वा उन्द्न्धाद्धारश्षवेन तरणमाघनेनान्तदयाकाशस्य सर्व 
गद ाश्रयत्याऽव्याकृतास्यस्य पारः परतोरं तदधिष्ठानं स्व 
माचिग्टितं तोत्वा प्राप्य, श्राविश्चंतेऽन्तराकाभं ब्रच्छाकारेऽि- 
व्यक्त मरति भनकः णनेरसंभ्रमेण ब्रह्मशालां विशदि{ति सम्ब. 
न्धः । णनेम्तदनुप्रवेश दृष्टान्तमाद, श्रवरेवेति। सन्धिद्द् 
कान्दमं। श्रवट दवत्येतत्‌। यया कश्िद्धातुकामः सुवणा- 
दिघादगन्तस्ठुमा निदितान्‌ कामयमानाऽवटद्लद्गतकताऽवर 
तस्िच्छनेः संविशति प्रकरीश्छतं घातु पण्यन्नवं प्रादुग्धत- 
ब्रह्मशालां ब्रह्धाप्रकाशस्थानं सा [्तत्वेनावशर षितं प्रत्यगकरम- 
मात्मानं विभेत्‌, ततस्तप्मरवेशानन्तरं चलारि जालान्युपचेपरि 
वेष्टन य्मिस्तचतु जलं ब्रह्रकेाशं ब्रह्मणः कौाशवद्‌ाच्छाद- 
कमन्नमयप्राणएमयमनामयविज्ञानमयास्येञ्चतुभिः केः परि 


वेश्टितिमानन्द्मयकाशं प्रणदत्‌ प्ररयेद्धिन्य. (दति यावत्‌ कन 
9.९ 


१५९ | मेव्युपनिषत्‌ । [€ प्रपाठकः। 


तन्लः स्वे महिनि तिध्त्यतः स्वे महिनि तिष्ठमानं 
दष्ाऽऽखत्तचक्रमिव सञ्चार चक्रमालाकयतीत्येवं छयाद। 
षडभिमासेस्तु युक्तस्य नित्यमुक्तस्य देहिनः, 
पनन्तः परमे गुदः सम्यग्येागः प्रवतेते ॥ 
रजस्तमेाभ्यां विद्धस्य सुसमिदस्य टेहिनः। 
पुचद्‌ार कुटम्बेषु सक्तस्य न कदाचन ॥ ₹८ ॥ 


----- - --- -~ ~ ~~ ~~~ -- 5 --- -------~ ~~~ ---~ ~~~ --- ---- ~~~ -~~--~~---~ ~~ ~ -~--~~~~---~-------------------~-~---- 





साधनेन गुवागमेन गरूपदिष्टेनागमन वेदान्तवाक्येनानन्द- 
मयकाशाश्रयं ब्रह्मीव प्रत्यगात्मत्यागमाचा्याभ्यां निखित्य कोा- 
शेव्वात्माभिमानं त्यजरित्येष क्रम इत्यर्यः। अताऽनन्तरमतः 
कारणात्‌ सवप्रतिबन्धनिद्त्तेरिति वा, श्रद्धः पूत इत्यादिः 
विशेषण स्वे मदिस्ि तिष्ठति, अरताऽनन्तर स्वे मददिज्ि खरूपे 
तिष्टमानमवतिष्टमानमात््ानं दृष्टा राटृत्तचक्रमिव परादटत्त- 
चक्रमिव संसारचक्रमालाकयति यथा रथादुत्तोणा रथय- 
्वक्र पराटृत्तवापार्‌ दूरत एवावचते कञ्चित्‌ तया विद्धान्‌ 
द्ममम्पन्नः संसारक्क्रं दूरादेवावलाकयति न पूववत्‌ स्वसम्ब- 
सितयत्यथेः । दत्येवं द्याह, शोाकाभ्यामुक्तमयजातमित्यथैः । 
नित्यमुक्तस्य जितेन्द्रियस्य अ्रभिमानश्रटन्यस्य षडङ्डमैपतस्तु युक्तस्य 
यागनिरतस्य प्रागक्रवत्मना प्रणवाभ्यासं करवत देडिनाऽनन्तः 
परमे गृद्धः सम्यग्यागः परमात्मसम्पन्तिलक्तणः प्रवतंते सिद्धू 
द्रत्यथैः। सुसमिद्धस्य विद्याविनयाचारेः सुदीप्नस्याऽपि देडिनो 


श पपाठकरः।] दपिजासहिता। १५१५ 


र्वमुक्ताऽन्तहदयः शकायन्यस्तस्मै नमस्कत्वाऽ- 
नया ब्रह्मविद्यया राजन बह्मणः पन्धानमारूढाः 
यु्लाः प्रजापदेरिति सन्तापं दन्दतितिक्षां शन्तत्वं 
यागाभ्यासादवाप्रातोत्येत्द्य तमं नापु्लाय नाशि- 


रजस्तमोभ्यां गणान्यां विद्धस्य परवणस्य तावमुद्चतः पच्चा- 
दिस्वत एवं सक्तस्य न कदाचन सम्यग्योगः प्रवतत दत्यर्थः॥ 
॥ ८ ॥ 

इदानीं वालखिच्यास्सायिकालृपरूदररेक्रयाः सगणनि- 
गणविद्ययाः मम्प्रदानविश्रेषमपदिशति श्राकायन्य इत्याद । 
“एवमु काऽन्तहदयः ° सन्पन्नाय दद्यात्‌" दति। एवममुना 
प्रकारेण ब्रह्मविद्यामनेकप्रकारां हृदद्रयायाक्तान्तरेव प्रत्यक्त- 
त्वे हदयं बुद्धियंस्य माऽन्तदंदयः शाकायन्यः खछषिम्तसं ब्रह्मणे 
स्वगरवे वा नमश्छलाऽनया मया तुग्यसृक्तया ब्रह्मविद्यया 
परापर ब्रह्मविषयया द राजन्‌ ब्रह्मणे यथयाक्रस्य पन्थानं 
जह्यप्राञ्चिमागेमारूढ: प्रजापतेः क्रलाख्यस्य पुत्ता वालखिन्य- 
सञ्ज्ञिता मुनय दृत्युवाचति येनज्यै। यागाभ्यासात्‌ मन्ता- 
षाद्यवाभ्नातोत्येवं चावाचेत्यध्यादारः। एतदुक्तं ब्रह्मज्ञानं 
गद्यतममतिगाष्यं रदस्यतममपन्नाय न कौतयेन्नोपददिगेत्‌, 
तथा अशिष्याय भिव्यदत्तिरितायन कोतयत्‌। शिव्यते पच्चलं 
च यद्यशान्तः साभिमानस्तसछे च्रगान्ताय न कीत॑येत्‌, तस््रा- 
च्छान्ताय शिवाय पच्लाय वा कीतंयेन्नान्यस करौचनत्यर्थः, 


+ 


११५६ मेव्युपनिषत्‌ । [€ प्रपाठकः, 


ष्याय नाशन्ताय कीर्तथेदित्यनन्धभक्ताय सबगुण- 
सम्यन्राय दद्यात्‌ \ २६ ॥ 

राम्‌ शुचो देशे शुचिः सत्वरः सदधीयानः सदा- 
दी स्यायो सद्याजो स्यादित्यतः सद्रह्मणि सत्यभिला- 


तया चाक्र श्रुत्यन्तरे वेद्‌ान्तं परमं गद्यं एराकन्प्रचादित्‌। 
नाप्रशान्ताय द्‌ानव्यं नापुच्चागिव्याय वा पनः (श्चे०) दति। 
फ़लितमाद। अनन्यभक्तायावचार्यकभजनपगाय सव्गणसम्प- 
नय दद्यादिदं ज्ञानमित्यथः। श््यिगृणाखच अतिरूलिप- 
राणसिद्धाः मंग्यद्य भगवत्पादैराचारयरुक्राः प्रशान्तचित्ताय 
जितेद्धियाय प्रद्मीएदाषाय यथेोक्तकारिण। गृणाजिता- 
यानुगताय सवेदा भरद्‌ यमेतत्‌ सततं मुमुकछवेः इति॥ २८ ॥ 
इद्‌ानीमभ्यायशषेण प्रकोणानि कानिचित्‌ साधनानि 
साधारणानि कचिदसाधारणानि चापदृष्टुं प्रवतते अतिः 
"न्तरम्‌ प्टचा दे9 ष्टुचिः° परमां मति" इति) एच दग गि- 
रिनदोपलिनगृद्धादिष्रषुद्धम्थानं उपवित यन्य, प्रटुचिः बा- 
द्याग्यन्तर्ररुद्धिसन्पन्नः, सत्वम्धः मत्वगणस्थः प्रसन्नचित्त दति 
यावत्‌ सद्घधाोयानः सर्ध्यात्मश्ास्तादनग्यसन्‌, सद्वादी सद्‌द्य- 
तददनशेलः। सदयाय ब्रह्मुध्यानपरायणः, सद्याजो नहा 
यजनश्रोलः, यजनं तस्येश्वर रूपस्य मानसेरुपचारेरभ्यचनं | एवं 
दुःवेन्‌ स्यात्‌ भवत्‌ म॒सू्तरिति शेषः दति खताऽतः सद्द 


द्‌ प्रपाठकः || दीपिकासद्िता। १५७ 


पिणि पण्ड्केऽन्धस्तत्फलच्छिननेपाशाऽनिराशः परेषा- 
त्मवदिमतभयेः निष्कामेऽशूय्यमपरि मितं सुखमाक्रम्य 
तिष्ठति परमं वं शेवधेरिव परस्येाद्रणं यत्‌ निष्कामत्वं 
स दि सवंकाममयः पुरुषेऽध्यवसायसङ्कल्याभिमान- 


णि निदत्ताऽपरिमितं सुखमाक्रम्य तिष्ठतीति सम्बन्धः । सदव 
सेम्टेदमिति ब्रश स~कब्दम्रवणात्‌ सदाष्थं ब्रह्म, तस्मिन्‌ 
सद्‌1च््ये ब्रह्मणि किंलक्षण, सति अ्रभिलाषिणि सति सद्भम॑निरते 
पुस्यभिलाषवति मदनगरदेच्छावतोति खावत्‌, निदत्त निष्यन्ना 
ब्रह्मणि सम्पन्ना ब्रह्मात्मभावसमपगताऽत एवान्यः सङ्कगाताभिमा- 
निना जोवषरूपादन्याऽपररिच्छनः, तत्फल च्छिन्नपाशस्तस्य ब्रह्म 
णा यत्फलं स्थति: प्रतिभासस्तेन किन्नसंसारवासनापाशाऽत एव 
निराशः प्राप्नव्यविषयाशाग्रटून्यः सवात्मब्रह्मरूपत्वात परेषु जौ वा- 
न्तरव्वात्मवद्‌व्मनीव विगतभयो निरातङ्कः न चास्य दितोय- 
दशंननिमित्तं भयं भवतीत्यथैः, अत्मा दयषां स भवतीति 
श्रुत्यन्तरात्‌ यता निच्कामः, कामवतेा हि तदुपघातनिभिन्तं 
भयं भवति, कामखद्‌दाद्यभिमानपुर.सरः, तद्र दिताऽयं नि- 
ष्कामत्वात्‌ निभय दृत्यं: । अताऽचचय्यं त्तेतूमशक्रचमविनाशोति 
यावत्‌, अपरिमितमपरिच्छिन्नं वेषयिकसुखविलक्षणमित्येतत्‌ः 
एवंविधं सुखमाक्रम्यात्मसात्‌कृता तिष्टति परमानन्दमस्ृत 


^~ £ 


दृत्यं; निम्कामतमक्तं साति तस्य सवमाधनेग्यः मष्ट दयोात- 


१५८ | मन्यु परनिषत्‌ | [€ प्रपाठकः। 


लिङ्गा ब्धाऽतस्तदिपरीतेा स॒क्ताऽचेका साहगणः प्र 
कछतिमेदवशदध्यवसायात्मबन्धमुपा गतेाऽध्यवसायस्य 
दाषश्षयाहवि माषा मनसा दयेव पश्यति मनसा खणा- 
ति कामः सङ्कल्य विचिकित्सा अह्नाञखज्ञा तिर शति. 


यितुं परमं वा दति। यत्‌ निष्कामलं तत्‌ शेवधनिधेरिव 
परस्य परमात्मनः परमं म्वात्तममुद्धरणं प्रकटीकरणं वे 
प्रसिद्धं विद्टव्ननेखित्यथंः । एतच दुघरटमिति दोतयन्‌ पुषः 
स्लभावं सङ्ोतयति, सरीत्यादिना। दि यस्मात्‌ स एरुषः 
स्वभावतः सर्वकाममयः सवेविषयकामाकूुलः यताऽध्यवसाय- 
सद्धःल्पादिलिङ्गस्तदत्तया काममयतवमवगम्यत त्यर्थः) अरत 
एवायं बद्धा यतः काममया बद्धाऽतस्तदिपर)ताऽकाममया 
म॒क्त एवेत्यकामात्मता सम्पाद्या सुमक्षणेति भावः| ददानीम 
मतान्तरं सा्यदुष्टिविषयमुत्धापयति खमतपरिष्रुद्धये, अरचैक 
श्राङ्धरिति। गणा गणकाय मद्द्‌ाख्यं बुद्धतत्त्व मरृतिभेद वशात्‌ 
पूवेवामनात्मकसखभावविशेषवशाद्ष्यवसायात्मबन्धं विषयाथ्य- 
वसायादिरूपं बन्धनम्‌ पातः, न चिदा्रेत्यथः। च्रध्यवसा- 
यस्य या देषा बह्िकिषयप्रवणता तस्य त्तयान्नाशाद्िषयवास- 
ना विच्छद्‌ाद्धि मेाच्तः पुवाक्स्य गणसयेवेत्य्ः। अरचेतिगशब्दा- 
ऽभ्यादाया मोत इति द्येक श्राङ्न{रिति सम्बन्धः, उत्थापितं 
मतं ब्युत्थापयति, मनसा दति। अन्तःकरणाभिमतसय बद्धि- 


ई प्रपाठकः ।| दीपिकासहिता। १५६ 


ह धीँभ रित्येतत्छरवं मन रव गुणाधेरुद्यमानः कलु 
पोरूतश्चास्थिर श्चच्यले लुप्यमानः सस्प॒दा व्यय्रश्चामि- 
मानित्वं प्रयाता इत्यं सा ममेदमित्येवं मन्यमान 
निवघ्नात्यात्मनात्मःनं जालेनेव ख चरेाऽतः पुरुषेाऽध्यव- 


--.----~-~--~~-~~----------~----~ -------~-~-~~--~---~ 


तत्वस्य करणविभत्या पटामणशात्‌ सवंश्तिषु न तस्य कटैत्रम- 
वगन्तु शकं, यता मनमेव {द पश्चति राकश्चक्तषा यद्रुपं पश्यति 
तन्मनसेव पश्यति, मनाव्यामङ्गे सति चलः सम्ब द्धस्याप्यप्रतिभा- 
सात्‌, "अन्यत्रमना अश्रवं नाद्शेमन्यचमना अश्वं नाञ्चाषमिति 
मनसा दयेव पश्यति" (हृदद्‌०) दत्यचययतिरेकाभ्धां ्रत्यन्तरे 
मना बद्यदङःार शब्द वाच्यस्यान्तरात्पमनः करणलत्वावघारणात्‌ न 
तस्य कटमिति तात्पयाथंः। विचिकित्छा संशयः, प्रसिद्धार्थं 
मन्यत्‌, एतत्‌ सवे मन एव मनो विकारत्रात्‌, सुवणं कुण्डन- 
मिलिवन्मनोाऽमेदन तद्धमवं कामाद्ीनामवधायंते, कल- 
घमलभ्रान्तियाट़ृत्तय दुत्यथंः। नन्‌ चद्यते कानादया न 
कटंघमाः कथं तहिं कचाश्रयतयाऽदं कामोत्यादिरूपेण प्रति- 
भासद्ति च्न्नायं द्‌षोऽन्तःकरणापाधिनिवन्धनलात्‌, करट 
लस्य चात्मना ताद्‌ाव्याथ्यासरासीनलार्‌व प्रतिभासापपत्तिः 
स्फटिकमण{रवेपाधिकोा लेहइित्यप्रतिभास दत्यभिप्रेत्याद, 
गशेचेरुद्यमान दृति। गुणानां स्वादीनां मायारुणाना- 
मेघाः प्रवादय देदद्यतद्ध्‌म॑रूपाः, तैरुद्यमानः परवशोक्रिय- 


१९० मेव्यपन्वित्‌ | [€ प्रपाठकः। 


सायसङ्कल्पाभिमानलिङ्गा बज्ाऽतस्तदिपरोते मक्त 
स्तस्मात्‌ निरध्यवसाया निःसङ्कल्या निरभिमानस्ति- 
षेदेतन्माष्लक्षणमेषाच ब्रह्मपद व्येषाऽच द्वारविवरेाऽ- 


[1 ---- 





-~ ~~ -~ -------~ + ~~ 


माणाऽभिमानिल्वं प्रयात इत्यन्वयः, जालनेव खचर इत्यन्तं 
दतोयप्रपाठके दितीौयानुवाकतं व्यास्यातं। यस्मादेवमचेतनस्य 
लुद्धि तत्रस्य सखसत्तास्पुत्यरखतन्तस्य कटं लबन्धमाक्तभाक्त- 
मनुपपन्नं, कूरटस्धस्याऽपि विदात्यमनः परापाच्विशात्‌ प्राति- 
भास्करं तत्‌ सत॑मुपपन्नमताऽस्म्ाद्धेताः पुरुषाऽध्यवमायेत्या- 
दिप्रासङ्गिकायापसंहारः स्पष्टाथः। प्रछृतमपसंदरति, तस्मात्‌ 
निरथ्यवसाय दति । सुमृदुख्यदकामः मन्‌ विषयाध्यवमाचादि- 
रदित: स्यादित्यथः। 'एतद्यद्‌कामादिलच्णमवस्यानमतन्द्र- 
चलचणं माचसाधनं यत एपान भ्रेयामागषु मध्ये ब्रह्मपद्वी 
सात्ताद्रद्यप्राश्चिमार्मः, एषाऽच द रविवरोा माचद्धारस्याद्राटन- 
मत्ययः । तिघधयाविष्टलिङभर निरध्यवमायाचात्मना च्रकामा- 
त्मलावम्थानं निर्दिश्यते, किंबङ्धनाऽननाकामात्मलावस्धाननास्य 
संमाररूपस्य तमसः पार परतोर {वष्णाः परमं पद्‌ गिख्लि 
श्रचिरेणेवात्मतच्चज्ञानेनापैग्यतोल्य्थः। एतां पदवीमधिगतस्य 
न पुनः प्राप्रव्यसवश्िष्यतदृत्यादः श्रचदीति। तथाच श्रतिसतो 
"या वेद्‌ निदितं गदायां परमे यमन्‌ साऽङ्ते सवान्‌ कागा- 
न्तद" (ते(्तरीयोा०) दति," यावानर्यं उदपानं सर्वतः संसृतादकं 
तावान्‌ स्वेयु पेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः, (गर) दति। अते क्रेऽय 


ट्‌ प्रपाठकः || द्‌) पिकासदिता। ९६६. 


नेनास्य तमसः पारं गमिष्यत्यच हि सवे कामाः समा 
हिता इत्यचोादाहरन्ति। 
यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। 
बद्धिञख न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिं॥ 
रतद्‌ कान्त द यः शकायन्यस्तस्सं नमस्कृत्वा यथा- 


0 ~ ----~ ~~~ 





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निरभिमानस्य ब्रह्मपद प्राक्षिरित्यच उद्‌ादरन्ति कटाः (कटोाप० 
६) दूति शेषः। यद्‌! यस्िन्‌ काले पञ्च ज्ञानानिनज्ञःनेद्धियाणि 
ओआच्ादीनि मनसा सद मनःसद्ितानि सवद्धियाणोति यावत्‌ 
्रवतिष्ठन्ते निञखलानि भवन्ति बुद्धिश्वाध्यवसायलचणा न 
विचेष्टते नेङ्गते, किन्त निवातदेशस्छप्रदीपवन्निश्चलोभवति 
दत्य्थः। येयमिन्दरियमनोनबद्धीनां निञ्चलावस्या तां परमां 
गतिं प्ररमं ब्रह्मप्रा्भिमाधनमाडत्रह्मविदर इत्यथः इदानीं 
शाकायन्यस्य इत्तान्तं कथयन्तो अतिः सगृणन्नद्मापासकानां 
ब्रह्मप्रा्चिद्धारमृपदिशति तचिन्तनाथं ““एतदुक्रान्तर्हदयः 
° रादित्य दतिः दृति। एतदुक्तं सवं दशंनं समाधनम॒क्ता- 
ऽन्तद याऽन्तरात्मनि हदयं बुद्धियस्य सोाऽन्तदंदयः शाका- 
यन्य उपररामेत्यध्याद्ारः। मरन्मरन्नामा हदद्रयस्तसे शा- 
कायन्याय नमक्छला ययावद्पचारौो यथाशास्तं ष्ट गृषापृजा- 
दापचारपरः क्रतक्रत्याऽवाप्रकाम उत्तरायणं ब्रद्भपयं गतः 
सगणनिगुणब्रह्मज्ञानमुपगत दूत्यः न दयचोाक्रत्वनिष्ठा- 
यामदर्त्मनान्मार्गण तियंगारिमागंण ग्तिंगमनमस्तीति ओेषः। 


शर्‌ मेग्यपनिषत्‌ | [ € प्रपाठकः। 


वदुपचारी रतकृत्योा मरुदुत्तरायणं गता न छकरा 
द्त्म॑ना गतिरेषाऽच ब्रह्मपथः सोरं दारं भिक्वाद्न 
विनिर्गता इत्यत्रादाहरन्ति। 


भः ~ 


यत एष उक्तविद्यारूपाऽयऽच श्रेयामागषु बह्यपये ब्रह्मप्रा्सि- 
माग दत्य्थः । श्रच "न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति श्रतचैव समवनो- 
यन्ते ब्रह्मीव सन्‌ ब्रद्मा्येति' (शतन््रा°का०९४।अ०७) दूति श्रते 
निं ्गणब्रद्मा त्म तत्नविदा नेत्करमणमस्तोत्ये तत्सिद्ध वत्‌षत्य स- 
गणब्नद्य विद्‌ न्रह्यलाकमागं क्रममुक्रेदारं विष्यष्टमाह अरतिः, 
सरमिति। सार द्वारं खयमण्डलमष्यगतमविदुषामभेद्यं द्वारं 
भित्वा विदायं ऊद्धनेएपरितनेन विद्युदादिना विनिगता 
उपासका दत्यत्रास्मिन्नयं रभ्सिविश्रेषनिद्धारणाथम्‌द्‌ादरन्ति 
सोकानिति शेषः श्रयवा मरुदुत्तरायणं गत दूति मरुनान्ना 
राज्ञ एव उत्तान्तः कथ्यते तथा चायमर्थः, उत्तरायणं 
देवयानं पन्थानं मतः कालेनारूढा न साचात्‌ केवसख्मचैव गतं 
दत्यथः। यदि साच्तान्मृक्तिं न प्राप तदि मोागान्ते संघार: 
स्यादित्यत श्रा, न दछचेति। अ्रचापासनायां सत्यामदत्म- 
ना सुखारमागण पुनगंतिगमनं न दस्ति न हि कल्ाणत्‌ 
कच्चित्‌ दुगंतिं तात गच्छति! दति भगवत्स्मरणात्‌। यत एष 
देवयानाऽचोापासनायां ब्रह्मपयोा ब्रह्मणः परस्याऽपि क्रमेण 
भरापकलात्‌ ब्रह्मपथ दत्ययः। सरद्रारं भिच्चाद्धन विनि- 
गंता मस्न्नामा रषिः, भ्रनोादादरन्ति दूति पवैवत्‌। तस्य 


ह्‌ प्रपाठकः] दीपिकासङिता। ९९४ 


अनन्ता रश्मयस्तस्य दीपवद्यः स्थिता हृदि । 
सितासिताः कद्र नीलाः कपिला श्दुलेहिताः ॥ 
ऊ्धमेकः स्थितस्तेषां या भित्त्वा स यमण्डल्ं । 
नह्मसाकमतिक्रम्य तेन यान्ति परां गतिं॥ 


--- ~ ----~--=--~--- ---~-- ~~~ 





०७१०००० 


रश्मयो निगमननाद्यश्िदानासव्याप्नता अनन्ताः, क्स्य, या 
दि ध्यानकाले दोपवत्‌ पअकाश्भान श्रात्मा सखितस्तस्येत्य्यः। 
च्रत्मनिगंमननादयन्तर्गतालां रसानां वातपित्तकफानां सम- 
न्यूनाधिकभाववभात्‌ सितादिविणास्तासु भवन्ति, त्कात्पादनं 
त वैद्यके सिद्ध, तदतदाद सित्ति। सिताखासिताख सिता- 
सिताः कफबाङ्ल्ये सिताः वायुबाड्कस्ये तसिता इत्यथः । कद्र 
वश्च नोलाञ्च कद्रुनोलाः वायकफयोाः कुपितयोाः सङरे कद्रवः 
कद्रु दैषच्छ्यामा दूत्यः । पित्तवाय्वाः सङ्करो नीलवण, 
पिन्ताधिक्ये कपिलाः, गटदवख ते लाहिताख दुलाडिताः, 
उद्विक्तेन पिन्तेमांशता वायकफयेयागात्‌ ब्टदुलोडिता रग्मया 
माद्यन्तगंता भवन्तोत्ययः। तया च भ्रुव्यन्तरं 'तस्िज्कक्तमृतं 
नोलमगड्धः पिङ्गलं दरितं लारितं च' (छृद्‌ ०्श्र०्६) इति 
तया नाडीः प्रकुत्य "ताः पिङ्गलस्य मर स्तिष्ट न्ति ग्टक्तस्य नीलस्य 
पोतस्य लादितस्व पूणः” (कान्दोाश्च्र°्स) दति च । तेषां रश्मोना 
मध्ये एको रशि: सुषुश्राख्य ऊड्धं ब्रह्मरश्रपर्यन्तं स्थितः, काऽ 
यः सुषुश्नाख्येन खर्यरश्सिविश्षेणेकयेग्डतल्ात्‌ खयमण्डलं भित्वा 


स्थितः सद्त्य्यः। तेन रश्िमा्ेण कार्यब्रद्यमलेकः गत्वा तच 
१9 । 


१६४ ` मन्य पनिषत्‌ | [ € प्रपाठकः 


यदस्यान्द्रश्िशतमृड्मेव व्यवस्थितं । 

तेन देवनिकायानां स्वधामानि प्रपद्यते ॥ 
ये नैकरूपाश्चाधसताद्रश्मयेाऽस्य खदुप्रभाः। 
ह कर्मापभागायतैः संसरति सेऽवशः ॥ 


--- == = = ~ 











मागान्ते तमतिक्रम्य परां गतिं तदिष्णाः परमं पद शणश्तं पर 
नद्य यान्त्येपासका दत्य; । शतं चैका च हदयस्य नाद्य- 
सासां मद्धानमभिनिःतेका तयेाद्धमायन्न्टतल्रमेति विष्व- 
न्या उत्क्रमणे भवन्तिः (कटे) इत्यस्िम्‌ मन्ते तासां मूद्धा- 
नमभिनिःखतेका तयाद्धंमायन्नखतवमेति दरति पाददयस्यार्थ- 
मक्ता प्रथमपादापात्तशतरभ्डूुपयागमाद, यद्स्येति। श्रस्य 
हद्‌ यस्य सम्बन्धि यद्र श्सिगतमस्ति तदष्यद्धमेवेाद्धगतिरे तु्त- 
मेव वयवश्ितं, तेन रस्मिण्तन निगेता देवनिकायानां देव- 
टरन्दानां खधामानि तत्तद्‌ वस्थानानि प्रपद्यते, देवनिका- 
यमध्ये यं दवविश्षं यः; कर्मणा विद्यया चापास्त स रश्िग्त- 
स्येकन कंनचिद्रश्मिना तस्य देवस्य पदं यातील्यर्चः। विष्व- 
डन्या उत्क्रमणे भवन्तीति चतुयंपादायमाद येनेकरूपाद्ति। 
ये तस्य हदयस्य रश्मयाऽनेकरूपा अधघस्तादधामुखा ्दुप्रभा 
्त्यच्यप्रकाशास्तमोबद्धला रथ्मयस्तेनिर्गतः स विडितन्ञान- 
कम॑साधनरद्ितः पमान्‌ दुःखकर्मौपभोागाव इहैव मावेवा- 
वशः सन्‌ संसरति दुःखमनुभवतीत्य्थः। तथा च श्रुत्यन्तरं 
य एते पन्धानेा न विद्ते कटाः पतङ्गा यदिद दन्द यकः 


द्‌ प्रपाठकः || दीपिकासहिता। १६५ 


तस्मात्‌ सर्मस्रगापवग॑हेतुभगवानसावादित्य दरति 
॥ ३० ॥ | 

किमात्मकानि वा रतार्नन्द्रियाणि प्रचरन््ुहन्ता 
(खृददा०अज०र्)द्ति। छखयमण्डलान्तगतन्रह्योगासनमुपसंदार- 
व्याजेन प्रशंसति तस्मादिति अखावादित्यो भगवानादि- 
त्यात्मनाभियक्त ईश्वरोा<नुपासितः सन्‌ सगंदेतुः उपासितस्त 
सखगापवगंयोदेतुः. देवत।बृद्योपासितः खगंरेतुब्रह्मात्मनेपा- 
सिताऽपवमेदतुरिति विभागः॥२०॥ 

समाप्ता शाकायन्यहृदद्रथास्यायिका । दृद्ानीं रतिरेव 
प्र्मप्रतिवचनषरूपेण खरूपण चेन्दरिया({दतत्वं नमरूपात्मक- 
कायतत्वमित्याद्यनेकानथान्‌ प्रागनुक्तानपदेषु प्रवत॑ते ““कि- 
मात्मकानि ° रश्सिभिविषयानत्तिःः दइति। एतानि क्ञान- 
कम्मथानीद्धियाणि किमात्मकानि वै किमुपादानकानोत्यर्यः, 
प्रचरन्ति खसखविषयव्वितिशेषः। एषामिद्धियाणामुङ्गन्ताङ्- 
मनकता च निमित्तश्डताऽचधिष्टाता चक दत्यथंः। दद व्यव- 
हारसमये का वैतेषाभिन्दियाणणं नियन्ता तैव्धवदहता वाका 
भवतोत्याद कशित््ष्टेत्यध्यादारः) किद्न्यः प्रत्या प्रत्यु 
तरमा प्रक्रमेणेत्यथंः। श्रात्मात्मकानि ्रात्मा वच्छमाण- 
लचणस्तद्‌ात्मकानि तदुपादानकानीत्यथः। दरतोत्यमात्मा 
हि एव एषामिद्धियाणएामृद्धन्ता निचन्ता च नान्य घटा- 
दे रिवेत्यथः। श्रष्रस दति विषया उच्यन्ते, शब्दाद्या डि 


ॐ. 
९६६ मन्युपनिषत्‌ | [६ प्रपाठकः। 


चैतेषामिह के नियन्ता वेत्याह प्रत्यादहात्मात्मकानी- 
त्घात्मा दछेषामुद्न्ता नियन्ता वाष्प॒रसेा भानवीयाश्च 
मरीच्या नामाथ पच्भी रश्िभिविषयानन्ति। 


भामा 9 ण यायो जज मना ०-०००-०० ५.०० 


विषया; कामिनाम्परस इव विषयिणामभिलाषगाचरा भव- 
न्ति तेऽपोन्द्रियाणां नियन्तारः, तथा च हृदा र ण्यक यदाति- 
गदशब्दाभ्यामिद्धियाणि विषयांखोक्ता ओचंवै यदहः स शब्दे 
नातियदेण गृदीतःः दत्यादिनातियदशब्दवाच्यविषयनिय- 
म्यत्वं यदश्नब्दवाच्यामामिद्द्रियाणं स्मान्नायते) तया ष 
विषयाखेद्धियाण्णं नियन्तार दृत्यथेः। भानवीयाख मरौोचयः 
दछर्यकिरणाखेन्द्रियाणं नियन्तार दति नाम प्रसिद्धमेतदि- 
स्यथः) भनणन्द उपलच्णं सवरद्धयद्‌वतानां दिगाद्यानां। 
तिरत्देवताविशेषैः केनचिद्भारेणानग्टदीतानोद्धियाणि खं खं 
विषयं यादयन्तीति देवा श्रपि नियन्तार दत्यथेः। श्रय एवं 
सति पञ्चभिः माचादिभिज्ञनेल्िधेरश्छिभोरग्सिशब्दनिर्दिटः 
विषयान्‌ शब्दादोनत्ति भूङ्खऽयमात्मेति सिद्धमित्ययः। कमं- 
न्दिधेदयशब्दनिरटिटैवषयाम्‌ प्राप्नोति इत्यपि द्रष्टयं। तथा 
चोक्तं प्राग द्ितोये प्रपाठक बुद्धोद्धियाणि चानौमान्येतान्यख 
र्यः कमद्दियाण्यस्य इयाः द्रति एतदुक्तं भवति। दद्धिया- 
णामचेतनानां मातिकलेऽपि चेतनैकायन्तलं परमार्थत दत्या- 
त्मात्मकानीत्याद्यच्यते व्यवद्ारतस्तु विषयालाकाद्यघौनलेन 


€ प्रपाठकः || दीपिक्ासद्िता। १९६७ 


कतम आत्मेति । याऽयं शुङ्धः पूतः श्रन्धः शणन्तादि- 
(क्‌ (२ ८ भ 

लक्षणतः स्वकलिङ्करुपणद्यः। तस्यतल्िङ्मलिङ्ग- 

स्याग्रेयरण्ण्यमाविष्टच्चापां यः शिवतमो रस इत्येके 


वी णगि भीर पिीषि 





तन्निवम्यता चेति। चदधोनवमित्यमिद्ियाणाम्‌क्तं स च्राद्मा 
कतम दति प्रच्छति “कतम ्रत्मेतिःः इति देदद्िय- 
मनोावद्धिप्राणष्वदम दमिव्यु्ञिख्यमानेषु कतमः किं ते्वन्य- 
सम: किं वान्य एव तेभ्य इति प्राः । उत्तरमाद 
श्याऽयं ग्रणद्धः ° स्वर्कलिङ्गेरुपग्टद्यः' इलि। याऽयमात्मा 
ष्एद्धः पूतः श्रठन्यः शाग्त दृत्यादिना दितोयप्रपाठके ्रणध- 
त्वादिसलचण उक्तः खकंरसाधाररेलिद्ैः खदूपसद्धावसाध- 
करुपन्टद्यो रदादिप्राणान्तेषु सङ्ातात्मकषु उप समोपे 
तर््लान्नद्ितरूपतया ग्राह्य इत्यथः। सद्वातादन्योाऽचेतनमङ्गार्त 
चेतयमानाऽतसत्साक्ितया भाषमान च्रात्मत्युत्तरमुक्तं भव- 
ति। स्वकंलिङ्गरुपग्टद्य दृलयुक्तं तच कानि सखकानि लिङ्का- 
नोति जिज्ञासायां तानि मतभेदेनानेकघापदिशति “तसै 
तकि ° प्रक्ञा तदिव्येक'' दति। तस्वात्मनोाऽलिङ्गस्य पर- 
मायते निधंमकलेन लिङ्गर{दितस्येतद च्छ माणं लिङ्ग, लिड्धते 
ज्ञाप्यतेऽनेनेति लिङ्गं ज्ञापकमित्यथंः। किं तदित्यपेचायां 
द््टान्ताक्तयेन तदाद, ्रगरेरिति। यत्‌ यद्वदेष्ण्यमद्रे लिङग 
तप्तादकाटिगतनेष्ष्येन यथा तवा्निखिङ्काते, श्राविष्टं चेन्ध- 
नावेशादिनिभित्तं धूमादि च लिङ्गमप्नेः, यथा चापां लिङ्ग 


श.६्‌ ८ मव्यपनिषत | € धपरपाठकः। 


ऽथ वाक्‌ ओ्ओचं चक्षुमनः प्राण इत्यकेऽथ बुड्िधतिः 
स्मतिः प्रत्ना तदिल्येके। अथ ते रुतस्येवं यथेवेह 
य: शिवतम निरूपाधिमधुरो रसः न्ौरादिव्वणपलभ्यमानः। 
रसस्य दि सखाभाविकं खरूपं माधुयमेव श्रन्यथातवं तु तस्य 
पा्थवेषु पररिणामविर्ेषापाधिरूतमिति मधृररसा यच क्ता- 
णपलभ्यमानोऽपां सद्धावज्ञापक दत्यथः। तथात्मनाऽचेतनेषु 
देदादिषृपलभ्यमानं चेतन्यं देदद्वाठेशछतं प्राणादिकं च 
लिङ्गमिति दाषटान्तिकं याज्यं । इत्येकं शाखिन वद न्तीत्यथः। 
तया च द्धेताशखतराणां मन््ोपनिषत्‌ “नित्या नित्यानां चेतन- 
सेतनानांः दति वागादिकमात्मनोा लिङ्गमित्येकं श्राचख्य 
श्रातं मनसा मना यद्ाचादवाचंस प्राणस्य प्राणएशत्तषश्च- 
च्रतिम॒च्य धीराः" द्रति तलवकारादयः आआचादिग्रकाशकत- 
यात्मानं साधयन्तीत्यर्थः । अथेकं बद्यादि यत्‌ तजिङ्गमात्मन 
दृति वणयन्तोत्यर्थः, 'न विद्धातेविज्ञातारं विजानीया एष त 
श्रात्या सवान्तरः' इति खदद्‌ारण्कं (श्र ०५) । (तदेतत्‌ सजज्ञा- 
नमाज्ञानं विज्ञानं प्रजानं मेघा दृष्तः सतिः; दत्यादि 
"प्रज्ञानस्य नामधेयानि भर्वान्तिः दृत्यन्तं शप्रज्ञानेचा लाकः' दति 
य तरेयकेापनिषत्छु। उक्तानां धमाणामात्मविगेषणत्वाभावे- 
ऽपि तत्काय॑तया खनिमिनत्तभ्रतात्मलिङ्गलं सम्भवतोत्येतद्‌ 
दृष्टान्तनापपाद्यति श्रथ ते एतस्यैवं ° एवाग्रखेत्यतचादा- 
हरन्ति दति ) अयायमपेकिता्थविशरेषः कथ्यते तेवै उक्ता 


द प्रपाठकः || द्‌ौपिकासष्िता। ९६९ 


बोजस्याङ्रा वाथ धूमाचिरविष्फुलिङ्गग इवाग्ने शेत्य- 
चादाहरन्ति। 
वहे यदत्‌ खल्तु विष्फुलिङ्गगः 
खयान्मयुखाश्च तयेव तस्य । 
प्राणाद्या वे पुनरेव तस्मा- 
द्भ्युचरन्तौह यथाक्रमेण ॥ ३१ ॥ 
तस्मादा रतस्माद्‌ात्मनि सर्वे प्राणः स्वं लाकाः 
सवं वेदाः सर्वे देवाः स्वीणि च भूतान्युच्चरन्ति 


~~ --~- ~= ~+ ---~---->- ~ ~~~ ~ ~ ~ न ~ --~ ~ नम क ० 


लि ङ्विगेषा एतस्यात्मन एवं ज्ञापका इति रेषः। कथं यथै 
वेद व्यवद्दारन्डमेा बीजस्य ग्दम्यन्तर्गततयाऽदृण्यस्य सद्धाव- 
ज्ञापका श्रङुरा वाऽयवा अग्ने सद्धावसाधका धुमादय 
दृदेति। अच चैतन्याभासाद्तन्यस्यावस्थावि्रेषा अद्ुरा दव 
चिदात्मानं ज्ञापयन्ति। वाकचनुवद्धिधुत्यादयस्तु धूमादय 
दवाग्नेः खमप्रटत्यादिनात्मानं तद्धृतुश्चतं कन्ययन्तोति बि- 
भागः भ्रचास्मिनुक्तऽय स्ाकमद्‌ादरन्ति। तमेवाद “ष्वक्ेख 
यद्रत्‌ ° यथाक्रमेण" दति) स्पष्टाथः॥२९॥ 
प्राणदयोाऽस्मादत्मनः कयं क्रमेणभ्यचरन्तोत्यपेक्तायां 
तदुपपादयति “तस्माद्या ° सत्यमितिः* इति। तस्मात्‌ श्एद्धः 
पूत दरत्याद्युक्तलच्षणात्‌ वे एव एतस्मादुक्रानेकलिङ्गानुमितसद्धा- 
वात्‌ आ्रात्मनि खखषूपे श्ितादविकुतादिति यावत्‌। सवेप्राणा 


८ 


१७० मेन्युपनिषत्‌ | [श प्रपाठकः। 


न, दे # क 
तस्योपनिषत्‌ सत्यस्य सत्यमिति । अथ यथाद्रधाम्र- 
रभ्याडहितस्य परथग्धमा निश्चरन्त्येवं वा रतस्य मते 


का 1 मा जा-जाता जा ता जाणा भ न्क 


वागादयः, सव लाकास्तेषां विषयाः) सवं वेदा वेदनानि तत्त- 
दिषया बद्धिदत्तयः, सर्वे देवा दन्ियाधिष्ठातारोऽन्याद्चः, 
सवाणि च शतानि श्तसङ्खातापाधिकानि भोक्तरूपासि 
स्थावरजङ्गमात्मकानि चाच्रन्ति व्यृचचचरन्ति विविधम॒त्तिष्ठ- 
न्ति पूवेहतप्रज्ञाकमेवासनानुसारेणाद्धवन्तोत्ययंः ¦ यस्नादेते 
व्य्वरन्ति तस्यात्मन उपनिषदुपनिगमयिदढलात्‌ साच्वादर्‌ दस्यं 
नाम। किं सत्यस्य सत्यमिति यद्‌ तत्‌ तस्यापनिषदिति योा- 
जना सदिति एथिव्यप्रेजांसि णि तानि त्यद्ति वा- 
व्वाकाशा दे श्छूते सच्च त्यच्ठ सत्यमितिगयुत्त्या पञ्च श्तानि 
खविकारेः सह सत्यम्‌ च्यन्ते, तस्य सत्यं परमाथंरूपमधिष्टानं 
"वाचारम्भणं विकारो नामधेयं गटत्तिकंत्येव सत्यं" (कान्द ०) दति 
ग्ुत्यन्तराद्न्‌तस्य पञ्चश्तात्मकप्रपञ्चस्याधिष्टानमात्मा सत्य 
सत्यमित्युच्यत इत्यथः । तदेवं वाच्यस्य जगत आात्मविवतेता- 
म॒क्रा वाचकस्य तस्थात्यन्तिं वेदात्प्तिकथनेनाद “श्रथ यथा 
° विश्वा गतानि दति। श्रयनाम खषटिकथयनोपक्रमे दृष्टा 
न्ता यथा लाकं श्रादरधाद्राद्रमेधा यस्य सश्रा्दरेधाः, स 
चासावग्निचत्यारदेधाञ्निः, तख श्रारदरधाऽग्रेरिव्येतत्‌, च्रभ्वाडदि- 
तख संधुकितस्य एयगनकप्रकारा धूमा धूमज्वाला विष्फुलिङ्गा 


९ प्रपाटकः।| दौोपिकासषिता। १७२ 


भूतस्य निश्वसितमेतद्यदग्वेदा यजुर्वेदः सामबेदाऽ- 
यवोद्गिरसा इतिद्ासः पुराणं विद्या । उषनिषदः 


~~ ---------~----~---~- ~~ - ---~---------"- ~~~ -*-~--~ -----*-~------- -----~~--------~-----------------------+---- ~. 
=-= 


विनिश्चरन्ति अग्न्यात्मान एव सन्तः उपाधिरूलाकारमेदेन 
प्रभवन्तोत्य्यः। एवं वै एवमेव एतस्य प्रुतस्यात्मनोा मरतो 
ऽपरिच्छिन्नस्य शतस्य म्द्धिस्य यथयाश्तस्य परमार्थस्य निश्च 
सितं निश्वसितमिव निश्चसितमवृद्धि पूवंकमप्रयन्नरतमेतत्‌। किं । 
य ग्वेद खग्बेदादिरूपं यदस्ति एतदिति योाजना। श्रय- 
वणा चाङ्िरसा च दृष्टा मन्त्रः श्रयवेङ्गिरसः। श्रचगवेदादि- 
शब्देमन्लभागदखतुर्ण वेदानां ग्यते इतिदाषादि शब्द स्त 
षामेवाषटविधं ब्राह्मणमभिधोयते । तच्रेतिदासः पुरात्त- 
कथनं (रिथनो वे नाम राजासीत्‌' इत्यादि । यथाचैव 
"वालखिल्या द्रति शूयन्तेऽय क्रतुं प्रजापतिमन्नवन्‌' इति । 
तथा “जानश्रुतिदं पौत्रायणः अरद्धादेयेा बज्दायो बह्पाक्य 
त्रस दत्यादि। "ते इ सरित्पाणया भगवन्तं पिप्पलाद मपसन्नाः” 
दत्यादि। पुराणं छच्यादिवाक्यसन्दभः (तस्माद्रा एतस्मादा- 
त्मनि" दत्यादि। विद्या उपासनविद्यावाक्यषन्दभंः। उपनिषदः 
"तस्या पनिषत्‌ सत्यस्य सत्यं' इत्याद्या रदस्यपद्‌ शवाक्यरूपाः । 
साका: “श्रनेाद्‌ादरन्तयेवं दया दाचित्तं चित्तमध्यस्थं' इत्येवमा- 
दयः) खचाणि वस्तुसङ्गदवाक्यानि श्रयं वाव खल्वात्मा तेः 
दत्येवंविधानि । अनुव्याल्यानानि तत्‌ चमन्‌ तस्य विख- 


#/ ४ 
द 


१७२ मैन्युपनिषत्‌ | [€ प्रपाठकः 


श्चाकाः खच्रार्यनुव्यास्यानानि व्यास्यानान्यस्येवैतानि 
विश्वा भूतानि ॥ ३२॥ 

पच्चेष्टकेा वा रषेाऽभ्चिः संवत्सरस्तस्येमा इष्टका 
या वसन्ता ग्रीष्म वषाः शरङ़मन्तः स शिरःपक्षसी- 


४ 2 = =-= 1 व अ, व ~ - + ~~ ---~~ ~ ~ -----~-----~-~----~-~-~-~----~-- ~ 


छायं कथनानि यथानन्तरमेव यय एषाच्छासाविष्टममननः 
दूत्येवमादोनि । वखाख्यानानि तस्य खचरस्यापपादनपराणि 
वाक्यानि श्रतैव वालखिल्यक्रतुसंवाद्‌प्रवन्भेन प्रटरत्तानोति। 
अथवा खम्बेद्‌ा दि शब्दे मन्लब्राद्मणात्मकोा वेदशनब्दवाच्यः सर्व 
एव ग्टद्यते, दतिदासादिश्ब्दैश्च मदाभारतादिः प्रसिद्ध एव 
ग्रन्थसन्द्भाऽभिधीयते | ब्द्यण एव प्रत्यगात्मनस्तन्तटष्ा- 
द्यात्मनाभित्यज्य व्यवस्थितरूतिदासादिकटेवेापगमात्‌ "यद्य 
दिग्डतिमत्‌ स्वं श्रौमदूजिंतमेव वा तत्तदेवावगच्छ त्वं मम 
तेजाऽशसमभवं' इति भगवद्वचनात्‌ सवज्ञेश्धरतन्त एव सवा 
व्यवद्धार दति तात्पया्थः। एतद वापसंदारव्याजेनाद्ाऽस्ेते- 
तानि विश्वानि शतानि सवाचकरानोत्यथेः॥ ३२ ॥ 
ब्रह्मविद्यायां वक्रं विशषम॒क्रा पनः संवत्सरात्मकाला- 
वयवानगन्यवयवेषु सम्ाद्योपासनविग्ेषं पूवचानुक्तमनुक्रामति । 
खिलषूपल्ार्स्य नाचातोवसङ्खत्यादरर दति "पञ्चेष्टका ° च्रा- 
नन्दो मेदो भवतिः इति। अद्निदाच्यधिकारकमिदमुपासन- 
मपदि श्ते, सेाऽग्िदाचदेमकाले गार्द॑पत्यादिषव्वग्निषु क्रमेशैत- 


€ प्रपाठकः] दोपिकास{ङितिा। ^ शद्‌ 


णपु च्छवानेषेऽप्निः पुरुषविदः सेयं प्रजापतेः प्रथमा 
चितिः करोयजमानमन्तरिकमुत्किघ्ठा वायवे प्राय- 
च्छत्‌ प्राणा वे वायुः प्रणे.त्रिस्तस्येमा इष्टकायः 
ष्णा व्यानाऽपानः समान उदानः स शिरःपशसो- 


= (र र ~~~ -.~-न~--- ~~ --~-------~--- -------~~~---~---~-------- - ------ ~ --~ ------ ~~~ -~----- ------्- न 


चिन्तयत्‌ तद्यथा पङ्का वच्छमाणाभिः पञ्चभिरिष्टका- 
भिस्ोयमान टर्षाऽप्निगारदपत्यास्यो वे म॑वत्सरः संवत्सरात्म- 
तेन ध्येय इत्ययः, तस्य संवतसरात्मनोऽग्ेरिमा ्रनन्तरमेव 
वच्छमाण दृष्टकाः क्सन्तादयः; तच वसन्तः गिरः योगा 
दक्षिणः पत्तः वषा उत्तरः पक्तः भरत्‌ पृष्ठं हमन्तशिशिरा- 
र्र्‌ एकोकत्य पच्छमित्येवं विभागमभिप्रेत्याद, शिरः पक्तमो 
रत्यादि) शिरः पूर्वभागः पत्तमो पक्त द्क्िणात्तरभागे 
पच्छ पयाद्धागः एष्ट मध्यभागः, एतद्‌ ङ्गवानषाऽ्चिः, परुष- 
विद्‌: पुरुषं विर्‌ाजमात्मानं वेत्ति उपास्ते दूति परूषवित्‌ तस्य 
परुषविद्‌ः प्रजापते; संवत्सरात्मना विराजा या प्रथमा चितिः 
सा दयं एेथिवीति योजना रयं गादंपत्योाऽग्मिः एथवो- 
संवत्सरात्मा विराड्‌ वसन्ताद्‌ौष्टकाभिश्चितः शिरः पत्तपच्छष्ष्ट- 
वानदमस्मोति ध्यायेदिति तात्पयाथः । परूषविध इति पाठे 
परुषाकार्‌ एषाऽभ्रिरित्यथः । एवं ध्याचता यजमान स्वेतद्‌- 
भिकृतमुपकारमाद, करेरिति। यजमानस्य ,परलाकगमना- 
वसरे तं यजमानमभ्भिदाचिणम्पासकं करेर॑सेरन्तरिचं प्र 


१७९ मेव्युपनिषत्‌। [६ प्रपाठकः। 


ण्ष्ठपच्छवानेषोऽप्निः पुरुषविदस्तदि दमन्तरिष्षं प्रजा- 
पतेर्दिंतीया चितिः करोयजमानं दिवमुत्किघन्द्राय 
प्रायच्छदसोा वा श्चादित्य इन्द्रः संपेऽभ्रिस्तस्येमा 
इष्टका यदग्यजुःसामाथवाङ्गिरसा इतिद्ासः पुराणं 


> ~~~ -------- ------ ध 





=-= ~" -- - --~~--~ ~~~ -- ----- ~---~------------ --~~-------------------~-=- ~ ~~~ - ~~ 


तयुछ्छि् र्षि वायवे हिरष्छगभाय दखचात्मने प्रायच्छत्‌ 
प्रयच्छतीत्येतत्‌ । स्थुल वायुशङ्कां वारयति, मे वै वायुरिति। 
प्राणख द्दिरण्छगभं; सवश्रतिषु प्रसिद्धः। इति गादंपत्याभ्भि- 
विषयं ध्यानं फलब्योक्तं। ददानो दिरणयगभप्राणदु्वा द 
च्िणाद्रिष्यानप्रकारमाद, प्राणाऽश्रिरिति। तस्य प्राणएरूपस्य 
दक्िणाग्नेरिमा इष्टकास्ताः का दति ता च्चा, प्राणादयः 
पञ्च वायवः शरोरग्यन्तरचारिणा यथाक्रमं शिरि्राद्यव- 
यवतया वचितेष्टकारूपा दइृत्ययम्यत्रिः गिरः पत्तपुच्छप्रष्टवा- 
नित्यादि स्वं पूवेवद्योज्यं । तदिदमन्तरिक्तमन्तरिकतात्मके 
दक्िणिाभ्चिः प्रजापतेदितोया चितिः) करेरित्याद्यपि पुवैवत्‌। 
कोाऽसाविन्द्र इत्येतदाद असा वे प्रसिद्ध श्रादित्य इन्रः पर- 
मेश्वरः सेषाऽध्धिः स एष दद्धऽग्िरादवनोयस्तस्येमा दष्टकाः 
सेतिदासपुराणाश्चलारो वेदाः पूववक्रमेण भिरःप्रष्टत्यवय- 
वात्मना चितेष्टकारूपा ध्येयाः दहापौतिदासपुराणएयारोक- 
वं द्रष्टव्यं । सेषा दयादिवात्मकाऽयमादवनीयाऽिः प्रजापते- 
स्ततोया चितिः श्रयं प॒नरिद्धः सविता दिवादवनीयाभ्चि- 


द्‌ प्रपाठकः |] दौपिकासङिता। १७५ 


स शिरःपश्मीपुच्छप्रष्ठवानेपोंप्रः पुरुषविदः सेषा 
द्याः प्रजापतेस्ततीया चितिः करयजमानस्यात्मवि- 
टेऽवदानं करेात्यथात्मविद्‌त्क्िष्य ब्रह्मणे प्रायच्छत्‌ 
तचानन्दी मादी भवति ॥ ३३ ॥ 

एथिवी गार्ईपत्योऽन्तरिक्षं दश्िणाचिर्चाराहव- 
नीयस्तत रव पवमानपावकशुचय आ विष्कृतमेतेनास्य 





^ ~~ 





भथ म 


[र ~ व्‌ 


रूपा यजमानस्याव्मविरे, चेलाक्यात्मकः प्रजापतियंजमानस्या- 
त्मवित्‌ यजमानेन चिष्व्निखवात्मलेन भावितस्तसम, श्रवदाग- 
मवद्‌ानवत्‌ तत्मीतिकरं यजमानं करोति तद्‌ात्मसा्तात्क- 
रोातीत्यथेः। रय च श्रात्मविदे, पूतरपासकः फलावस्य त्रा 
त्मवित्‌ तसा श्रात्मविदे यजमानस्वावद्‌ानं करोतोति सम्ब- 
न्धः, यजमाने तस्मै समप॑यतोत्य्थंः । च्रथानन्तरमात्मविद्यज- 
मानम््छिष्य ब्रह्मणे समष्टिखचात्मने कायावम्थाय प्रायच्छत्‌ 
प्रत्तवान्‌, तच ब्रह्मणि खिता यजमान आनन्दौ मोदो सा- 
मान्यता विशेषतख्च यथयासङ्धल्यमानन्दवान्‌ भवतोत्यथंः। 
श्रस्या ब्रह्य प्रास्ेगत्यायन्तवानाच ब्रह्मशब्दः परब्रह्मविषयः। 
"कायं वादरिरस्य गत्युपपत्तेः" (शाण्दन्च०४।पा०र्‌।द्‌०७) 
दति न्यायात्‌ ॥२३३२॥ | 
पनः प्रकारान्तरेण गादपत्याद्यप्रिविषये सम्पाद्यविशेष- 
मपदिणनुपासनान्तरमा “एयिवी गादंपत्टः ° विचिनोति" 
दति गादंपत्यादिषखद्निषु यथानिर्देणं एथियादिदृषटिवि- 


ॐ 
१९७३ मेद्युपनिषत्‌ । [द्‌ प्रपाठकः। 


यन्न यतः पवमानपावकशचिसङ्कातेा हि जाटरस्त- 
सादश्रियष्टव्यश्चेतव्यः स्तातव्योाऽभिध्यातव्योा यजमाना 
हवि हीत्वा देवताभिध्यानमिच्छति । 


-- -------~- -----~~-~------------------~-~-~ -----~ --------~--~-~~-+~---- "~ -~---~---~-~~ 9, 


घोयते, तत एवेति त एवेत्येतत्‌, पवमानपावकष्चयेऽचरि- 
विगेषाये प्रसिद्धास्त एत एव गादपत्यः पवमाना दक्िणा्चिः 
पावक आदवनोयः पचिरिति भेद्‌ः। शस्य गाद॑पत्यादि- 
सदधातस्य सम्बन्धि यज्ञं यजमानमेतेन पवमाना देवता- 
सच्ठातेनाविष्कतं प्रवतितमित्यर्थः। ्राधानेनाग्भिषु संख्तेषु 
प्रथमं पवमानादये दष्टाः सन्ताऽप्रोनामत्तरक्रलङ्गतां सम्पा- 
द्यन्ति तस्मात्‌ पवमानादिरूपा एते ध्येया इत्यभिप्रायः, 
तथा जाटरोाऽपि योाऽश्चिः सऽपि पवमानादिसद्घात एवेति 
ध्येयत्मभिप्रेत्याद, पवमानपावकति। यस्मादेवमध्यात्ममधि- 
भ्रतमधिदरेवमधियनज्ञञ्चाश्चिरादवनोयादि रूपस्तस्मादग्िर्चष्ट्ययः 
पय च्रादिभिदविभि;ः.चेतवय इटकाभिरधियन्नमधष्यात्मच्च यया- 
शास्त, स्तातव्य उपस्थानादि मन्तः, अभिध्यातव्य च्राभिम्‌ख्येन 
प्रत्यगात्मतया ्यातव्य इत्य्िप्रशंसया तन्निष्ठता कत॑याप- 
दिष्टा ददानीं हामकालेऽद्मो चिन्तनोयं मन्तेरोापदेषछुं तत्‌ 
प्रसच््यति यजमानो दविग्डदीलेति। इच्छति इच्छेत कुर्वीति 
त्यर्थः । दिरण्यवणं इति मन्लः दिरण्णवत्रकाशमानः शकुनः 
पक्त पक्व नोडस्थो नौोडादन्या देदसद्ठताद्धिलक्तणः दि 


& पपाठकः || दोपिकासहहिता। भ 


हिरण्यवः शकुना डद्यादित्य प्रतिष्ठितः। 
महुहंसस्तेजादटषः साऽस्मिनन्ना यजामदे ॥ 
इति चापि मन््ाख' विचिनेाति । तत्‌ सवितुर्वरेण्यं 
भगाऽस्याभिध्येयं यथा बुद्यन्तस्था ध्यायो मनःशान्ति- 
पदमनुसरत्यात्मन्येव धत्तेऽनेमे राका भवन्ति । 


= न 


श्रन्तददंदये श्रादित्ये सविटमण्डले च प्रतिष्ठिता वर्तते। कन 
कन रूपणेत्यपेक्ताखामाद, महुः जलचरः पक्तौ, स यया जले 
निमग्न द्व गच्छति दथा द्यात्मा जोवरूपः सम्पुणेाऽपि 
यथयावदनवभासनान्द्रहुसदृशः। दसा मानससरोाऽग्भारूदवन- 
विददार पञचचिविशेषः, सख यथया श्टद्धस्तया श्रादित्ये परुषा 
ब्रह्मरूपा यतः स तेजादषस्तेजसा अओष्टस्तजाबह्धल दत्ययंः। 
तमेव परूषम्‌भयच वतंमानमित्यध्यादहारः, भ्रस्मिन्न्रो ययाप- 
दिष्टस्रूपे यजामदे वयं पूजयाम दति मन्तेस्यायः। दतिशब्दा 
मन्लसमाद्य्थः । इति च मन्तमृचायं रपि, मन्ला्यमपौति 
याजना, विचिनोाति विचारयति चिन्तयतोत्य्यी घाल्लनाम- 
नेकाथलात्‌, यद्वा विचिनोति विशेषेण मन्ततात्प्य सम्बन्धतया 
चनेति सह्डयतीत्यथंः। तमेव तात्पयमु पन्यस्वति “तत्‌ सवि- 
तु; ° भवन्ति" इति ्वितुरादित्यस्य सम्बन्धि तत्‌ खद्पं 
वरेण्यं वरणोयं सम्मजनोयं, कोेदृश्ं तत्‌ भर्गः .भाभिगतिरस्य 


ददि इत्यादिना (खं०ऽ) पूव व्यास्यातर्हपं, श्रस्य यजमानस्या- 
क 


१७८ मेखयपनि षत्‌ । [९ प्रपाठकः 


यथा निरिन्धन वहिः ख्याना उपशाम्यते, 
तथा दन्तियाचित्तं सखयाना उपश्णम्यते ॥ 
स्वयाना उपश्न्तस्य मनसः सत्यकामतः। 
इन्द्रियाथविमूढस्यानृताः क्म॑वश्णनुगाः ॥ 
चित्तमेव हि संसारं तत्मयन्ेन शधयेत्‌। 
यच्चित्तस्तन्मयेा भवति गु्यमेतत्‌ सनातनं ॥ 


~~-~----~-~- ~~~ ~~ ----------~ ~~~. 
-----~---“~-----~.-- 


भिध्येयं, यो बुद्धन्तस्ये ध्यायी ध्याता हदि प्रतिष्ठिते ध्यातेति 
चिन्तयेदित्य्थंः । एवं कुव॑न्निड मनः शान्तिपदं मनसे विक्तेप- 
परित्यागेन शान्तिपद्‌ मालम्बनमनुसरति प्राप्नेति यतश्रात्म- 
न्यव प्रतोचि ध्येयं रूपं धत्ते चननुसन्धत्ते इत्यथः । श्राकतो 
ऽस्सिन्नय दमे वच्छमाणणः घ्ञाका भवन्ति यथया जिरिन्धभना ° 
उपशाम्यते" खयानोा श्तद्च्सलक्तषणे खकारणे, तथा चित्तं 
सखयाना सखा्धिष्टाने साभासानज्ञानापलल्तिते उपशाम्यते शा- 
म्यतीत्ययः। “स्योने ° कमंवश्ानुगाः"” । इद्धियाथैविमृढस्य 
मनसः कमंवशानगा श्रनृता मिथ्याप्रटत्तया यास्ताः सत्यका- 
मता यथाथात्मवस्तुन्युपर्‌ागात्‌ स्यानावृपशान्तस्य पनन प्र- 
भवन्तीत्यध्यादारेण याजना । यस्मादेवं तस्मात्‌ “चित्तमेव ° 
सनएतनं। संसरत्यनेन पुमानिति वा संसरति पुरूषमभिग्य 
प्रवर्तत इति वा चित्तमेव संसारं, तत्छंसगे विना परुषस्य 
मंसारादशंनादित्यथः। तत्मयनेन शास्ताक्रप्रमभविषयनिवेशनं 
छला शाघयन्नि्टत्ता्रुभवासनं सम्पाद्येत्‌। यता यत्ता 


द प्रपाठकः] दीपिकासद्िता। १७९ 


चित्तस्य हि प्रसादेन दन्ति कम शभाशुभं । 
प्रसनात्मात्मनि स्थित्वा सुखमव्ययमश्रुते ॥ 
समासक्तं यथा चित्तं जन्ताविंषयगोाचरे। 
` यद्येवं ब्रह्मणि स्यात्‌ तत्‌ का न सुच्येत बन्धनात्‌ ॥ 
मने हि दिविध प्रोक्तं शडधच्चाशडमेव च । 
अशुद्धं कामसम्यकात्‌ शङ्खं कामवि वजिंतं ॥ 
` `लयविष्टोपरहितं मनः छत्वा सुनिश्चलं । 
यदा यात्यमनीभावं तदा तत्‌ परमं पद्‌ ॥ 
. तावन्न निरेाव्यं हृदि यावत्‌ छयं गतं" । 
रतजञ्ज्रा नच्च मोक्षञ्च शेषान्ये ग्रन्धविस्तराः ॥ 
यस्मिन्निवेशितचिन्तः परुषः स तन्मयस्तत्खछभावा भवतोत्यत- 
हद्यं प्राकतवद्यगम्यं सनातन मव्यभिचारीौत्यथेः। “चित्तस्य ° 
अव्ययमस्रुते”। प्रसन्नात्मा प्रसन्नचित्तः, श्रात्मनि प्रत्यक्‌ख- 
रूपे । सुगममन्यत्‌। “समासक्तं ° बन्धनात्‌" सखष्टायः। 
"मनो दि ° विवजितं?। तस्मात्‌ कामस््याज्य दत्ययः। “लय- 
विक्तेपरद्दितं ° परमं पद” लया निद्रा, विक्तेपोा बदिविंषय- 
खव्यादिः। श्रमनोभावः शरात्मना मनडउपाधिप्रवेशरृतवि- 
गरेषपरित्यागः, तं यदा याति तदा तद्‌व निरूपाधिकखषपं 
परमं पदं याति। न पनरप्राप्रप्रा्धिरस्येत्ययः “तावन्मना° 


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# गतच्तयमिति याख्यानसारी पाठः 
५८९९ 


, मेच्युपनिवत्‌ । [€ प्रपाठकः। 


समाधिनिद्वातमलस्य चेतसा 
निवेशितस्यात्मनि यत्‌ सुखं भवेत्‌ । 
न शक्ते वणंयितुं गिरा तदा 
स्वयं तदन्तःकरणेन ख्यते । 
अपामापेाऽभिरप्नो वा व्यानि व्योम न लक्षयेत्‌ 
रुवमन्तर्गतं यस्य मनः स परि मुच्यते ॥ 
मन रव मनुष्याणां कारणं बन्धमेाक्षयेाः। 
बन्धाय विषयासङ्गि मक्षा निविषयं स्मृतं ॥ इति । 


१५५७६ 


यन्थविस्तराः'। इदि दयसाक्िणि | गतः प्राप्तः क्षया 
विनाशे येन तत्‌ तथा। उत्तराद्धं सष्टाथं। “समाधि ° 
करणेन ग्टद्यतेःः। श्रात्मनि निवेशितस्य सत इत्यर्थः । श्रन्तः- 
करणेनान्तःकरणावस्थासाक्िणा गद्यते खानुभवमात्रसिद्ध 
तन्नान्यस्मे वनरं शक्यमित्ययेः। “श्रपामापेो ° `परिमुच्यतेःः । 
यथेत्यध्यादहारः, श्रपामिति षष्टी सप्तमीलेन विपरिणेया, प्रय- 
माख दितोयावेन। तया चाप यया निचिक्ता श्रपः एयडः न 
लक्षयेत्‌ कञिदप्मो वां योन्िवा प्रविष्टं चटाकाशादि, एवं 
यस्य मनेऽन्तगंतमात्मकतां गतं स परिमुच्यते सर्वसंसार- 
बन्धनादिदयः। किं बहना मनःछतः संसारस्तद्धिलयना् 
मेत्त इति निञित्य तन्निरोघे यन्नः कायं दत्यभिभरत्यापसंद- 
रति “मन एव ° तमिति इति खष्टा्चः । मनानिरो- 


श प्रपाठकः।) दीपिकासहिता। १५८१. 


अतेऽनग्रिहेात्युनभ्रिचिदज्नानभिध्यायिनां बह्म- 
णः पदव्यामानुसर णं विरुद तस्मादभियंष्टव्यश्चेतव्यः 
स्तातव्याऽभिध्यातव्यः॥ ३४॥ 

नमेऽम्रथे एधिवीश्छिते साकस्मृते लाकमस्मे यज- 
मानाय धेहि नमा वायवेऽन्तरिष्ष्िति लाकस्मृते 


वोत जिका म १ कक ०० 


ण भययकरये 


धस्य चोापायं व्यतिरोकाक्रिपूवेकं विदधती प्ररुतमुपसंदरति 
^“ श्रताऽनय्मिदाचि ° श्रभिध्यातव्यःः' इति । रता यस्मादरन- 
श्िदाचिणं ययोक्रत्रिधाग्मिदाचद्योनानां, श्रनभ्चिचितां पञ्चे्टक 
दरत्यादयुक्प्रकाराभ्रिचयनमकुवेतां, अ्रन्नानां चित्तटत्तान्तं संसा- 
र मात्तदेतु मजानतां, च्रनभिध्यायिनां पृवाक्रसविटमण्डलस्था- 
त्माभिध्यानरह्ितानां पुसां ब्रह्मणः पदमात्मत्लं तदेवययोम 
व्यो मवन्निराकारत्वात्‌, तस्यानुसमरणमनुसन्धानंः विर्द्धं विशे 
पेण रुद्धं, चित्ताष्द्धिचयाभावात्‌ नद्मानुसन्धानमश्क्यमि- 
त्ययः । सस्मादिल्धादि व्ास्यातं॥ २४॥ 

द्दानीं पूवेाक्ताभ्मिहाचमभ्भिचयनश्चान॒तिषटता ध्यायिनः 
स्तोतव्य दृत्यक्तमग्न्यादित्यो प्यानं कमन्ते कार्यमित्यपे्ायां 
तान्‌ मन्ल्ान्‌ पठति ““नमेऽपग्रये ° सवेमस्मै यजमानाय पे" 
एतेऽग्दुपस्थानमन्ता गाहपत्यादि क्रमेण चया येज्याख्तुयस्त 
सवीद्चिसाधारणेाऽन्ते सरत्‌ म्रयाज्यः। एयिवोकिते एथिवी 
लाकनिवासाय, लाक्ते प्रथिवोलोकम्य खचर यजमानाय 


१८२ मेच्यपमिषत्‌। [€ प्रपाठकः । 


लाकमस्मे यजमानाय पेहि नम ्ादित्याय दिवि- 
शिते लाकस्मृते लाकमस्मे यजमानाय येहि नमे 
ब्रह्मणे सर्वध्िते तदी सर्वमस्मे यजमानाय धेहि । 
हिरणएमयेन पाण सत्यस्याभिदितं मुखं । 
तत्‌ त्वं पूषन्नपाटण सत्यधमाय विष्णवे ॥ ` 
याऽसा आदित्ये पुरुषः सोऽसा अदं । रष ह वे 





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चिन्तयतेऽग्रये गाद॑पत्यात्मने नमः प्रङ्णोमावेाऽस्तु, असमै यज- 
मानाच मद्यं लाकं थिवीलेाकं धेहि -मदथं धारयादम्‌- 
न्तरकाले त्वदात्मा सन्निमं लाकं प्रा्यामीत्यर्थः | एवमवा- 
त्तरे मन्ना योज्याः श्रादित्येोपस्धानमन््लान्‌ पठति हिर 
एलयेन ° श्रसा श्रं" दति दिरण्सयेन च्योतिमयेन पाचेण 
मण्डलरूपेणामत्रेण सत्यस्य सत्यात्मने ब्रह्मणे म॒खं प्राप्नि- 
दारमभिदितमपिदितमाच्छादितं वतेते, ₹े पूषन्‌ श्रोद्धयं लं 
तदपादण तद्भारमृद्ारय, किमथं सत्यधमाय, किंलचणाय 
विष्णवे व्यापनश्रीलाय। व्याख्यास्यमानसत्यधमविष्णसलरूप- 
प्राप्य इत्यर्थः । याऽ परोक्त ्रादित्ये मण्डलापलत्िते 
देवतात्मनि पुरुषः पृरणीऽन्तयामी मोऽ स एवारं, नारं 
तस्मादन्य दत्यथः। यदेत्यं योजना, य श्रात्मनि पृरुषेऽसावा- 
दित्ये पर्ष श्रात्मा यञ्चासा श्रादित्ये परुषः सेऽदमात्मनि 
परुषः, श्र ताऽन्तःकरणापललितस्यादि त्यरेवतापलन्ितस्य चा- 


ई प्रपाठकः || दीपिकासहिता। १८७ 


सत्यधमा यद्‌ादित्यस्यादित्यत्वं तच्छुक्तं पुरुषमलिङ्गं 
नभसेऽन्तर्मतस्य तेजसेाश्माचमेतद्यदादित्यस्य मध्य 
इवेत्यक्िण्यन्न चैतद्र द्येतद श्तमेतद्वमं रतत्‌ सत्ये- 
धर्मा नभसेाऽन्र्मतस्य तेजसे शमाचभेतद्यदादिः- 


वयानं मेदरोाऽस्तोत्यर्यः, दतिशनब्द्‌ उपस्थानमन्तसमाध्यथंः । 
सत्यधमंपदस्या्थमाद "एष द वे ° उद्‌ादरन्ति इति। 
एष द एव वै प्रसिद्धः, सत्यधमंः, कः श्रादित्यस्यादित्यल- 
मिति यत्‌ एष हीति योजनाः श्रादाय यातोत्यादित्यः, तया 
च श्रत्यन्तरे निवचनं यदिद सर्वमाददाना यन्ति तस्मादा- 
दित्याः" (हृदा ००५) दूति) तथाच मामानां रसानाम्‌- 
तरायणे श्रादानं ग्रहणं कुवन्‌ दक्षिणायने ठषटिरूपेण तान्‌ 
रसान्‌ श्रा समन्ताददच परिभ्रमन्‌ यद्‌ादित्यशन्देन निरुच्यते 
एतदेव सत्यघर्मलमेष श्रादित्य एव सत्यधमं इत्यथः । तदा- 
दित्यात्मलं श्णक्र ्एद्धं भाखरमिति वा, परुषं पृरूषाकार 
"य एषोऽन्तरादित्ये दिर ण्मयः पुरुषः" (कान्दा ००९) इति 
्तेः। श्रलिङ्ग खतेालिङ्गवजितं स्तोपुन्नपुमकादिभेदरदितं 
"नैव स्तौ न पमानेष न चैवायं नपुंसकः। यद्यच्छरौरमा- 
दन्ते तेन तेन ख युज्यते" (खे०अ०५) दरति श्रुतेः ददनों 
विष्णवमस्यापपादयति, नभस दत्यादिना। नभसाऽन्तगंतस्य 
दि द्चण्डलव्या पिनस्तेजसः प्रकाग्रस्यांश्रमात्रं सेशमाचमेतद्यदा- 
दित्यस्य मध्य दवादित्यमण्डलस्छभिव नतु तत्‌ तरव वर्तते 


२८४ मैन्युपनिषत्‌ । [8 प्रपाठकः। 


त्यस्य मध्ये चग्टतं यस्य हि सामः प्राणा वा ष्यय- 
ङुरा रुतद्र येतद खतमेतद्भग रतत्‌ सत्यधर्मौ नभसे 
ऽन्तगंतस्य तेजसोा$शमाचमेतद्यदादित्यस्य मध्ये यज्‌- 





~~ ० 


किन्त सर्वव्यापोत्यथः, दति एवम्प्रकारोण श्रिणि सरवप्राणि- 
चच्र्दगे श्रयो च प्रसिद्धेऽरैव तेजशाऽश्माचमित्य्थः। कि 
तन्तेजः, एतद्रह्य परिपू, श्रत एवैतदग्टतमनागमापायि 
नित्यमिति यावत्‌। एतदेव भगः सवंकारणलादिरूपं पू 
व्याख्यातं । तेजस्तेजखिनाम मिति भगवद्वचनात्‌ सवैचव्यापि 
तेजारूपं ब्रद्मा्टतं विष्णरित्यक्तं भवति इईदानोम्‌क्रमेव 
सखरूपमनुद्य तख सवत्मवमाविम्कुवेतो प्येयविशेषमथीदुपदि- 
शति, एतत्‌ सत्यधमं दरत्यादिना । किं तत्सत्यधरमपदाभिेयं 
तदाद, यदादित्यस्य मध्ये श्रब्टतमिति। किं तदष्ठतं तदाद, 
यस्येति । सोामखद्धमाः, प्राणः प्राणिनां जीवनाख्याः प्राणा- 
दि टत्तयः, वाण्नब्दात्‌ प्राणखत्यय मन्नं ग्टद्यते, एते सर्वेऽप्यग्टत- 
खपाः पदाथा यस्याद्कुराः कायाणि च्रम्टताङ्कुरकारणलाद्‌- 
स्टतमित्यथैः। श्रययङ्कुरा दति यकारः प्रमादपतितः। एतद्र 
होत्यायुक्ताथे । शरष्टतात्मलमुपपाद्यास् पुनरपि यज॒रात्मल- 
मादेतत्‌ सत्यघमं दरति । यदादि्यस् मध्ये यजुर्द्यति दी- 
प्यते, किं तद्यजुरिति तदाहामाप दरति। ॐकारोऽनुज्ञाप- 
नात्‌, श्राप्यायनाद्‌ापः, प्रकाश्ननाज्ज्यातिः, रसः सर्वकम॑परि- 


श प्रपाठकः || दौपिकासहिता। १८५ 


दीप्यत्योमापे ज्येःतीरसेोऽ्तं ब्रह्म मूभवः खरम्‌ । 
अष्टणाद्‌ शुचि हंसं चिखचमणुमव्ययं । 
दिधमाऽन्धं तेजसेन्धं सवं पश्यन्‌ पश्यति ॥ 


१ 


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पाकनिदटत्तत्वादादित्यस्य रसतं स्वंकमंफलाख्रय इन्यर्थः, अरम्टतं 
देवानां मोदनदेतुलात्‌, तद्य श्रसुवःस्रोामिति चेलाक्यमा- 
डःरायश्चतमेाद्धारञ्च सवेमेतदे त्यथः । एतत्‌ सवे कान्द 
सो वा आदित्यो देवमधु इत्यव मधृविद्यायां सखष्टमा- 
स्नातं । श्रतचेष्‌ द्याकः च्रषटपादमिति। टै दिशः पादा यस्य 
खाऽ्टपादस्तं। सविता दान्तरिक्तम्थः पादेरिव दिग्भिः प्रति- 
तिष्ठतीव विभाव्यते। यद्धा श्रारोगा भ्राजः पटर: पतङ्गः 
खर्णरोा ज्यातिषीमा विभामः कश्यपाऽश्टमः स महामेरुं न 
जदाति' दति तेल्तिरौयारण्यकाक्रा श्रारागादयोाऽ्टै पादा 
ज्ञेया; । प्रचि प्रुद्धमलेपकमित्येतत्‌। रसं दन्ति गच्छतोति 
दसः, परिभ्रमन्तमिति यावत्‌। यवा दस दति यनाम 
“दंसः प्रटचिषत्‌' दति, श्रमो वा ्रादित्ये दंसः ्रटचिषत्‌' इति 
ब्राद्मणदशंनात्‌। चिद्छचरं चौणि चाणि स चकानि बन्धनानि 
वा यस्य स चिदचस्तं, खग्यजःसामभिरदिं प्रतिपाद्यते सविता 
च्यात्मकमण्डलनिबद्धख। तथा च भुतः सषा च्यव 
विद्या तपति' इति । रणं छच्ममिद्धियागा चर । श्रयं शाश्चतं। 
दिधमीाऽन्धं दाभ्यां पण्यपापाभ्यामन्यमनवभाषमानं युष्ष- 
पापर{दितमित्य्यः । धम॑ाऽन्समिति हान्दसः। तेजसेन्धं तेजः 


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१८६ मेनु पनिवत्‌ । [€ प्रपाठकः। 


नभसेऽन्तगतस्य तेजसेाऽशमाचमेतदादित्यस्य 
मध्ये उदुत्वा मयखे भवत रतत्‌ सवित्‌ सत्यधमं रत- 
द्जुरेतत्‌ तप रतदभ्रिरेतद्ायुरेतत्‌ प्राण रुतद्‌ाप 
रुतच्न्द्रमा रतच्छकमेतद्‌गश्ड़तमेतद्र द्य विषयमेतद्धानु- 


---------~--~~ -~ -- -- ~ - ~~ ~~ - ~ - ~ अः = क 


सेद्धं दीप्रमतितेजखिनमित्य्; । एवेविधमीश्ररं सवितारं 
पण्यन्‌ सवं पश्यति तदात्मभावनां कुवन्‌ सर्वज्ञा भवतीत्यर्थः, 
किं ब्धनाऽयमेव सर्वात्मका नातःपरमस्तोति तं मरकतः 
पनरूपाद न्त नभसेाऽन्तगंतस्येति । किं तद्यद्‌ादित्यस्य मथ्े 
उदटिलेद्म्य मयूखे शप्र भवतः प्रभवतः समधा भवतः, जगत्‌ 
प्रकाश्रयितुमित्ययः । दवचनं प्राघधान्याभिप्रायं । उदुला 
मयूखे दति पाठे उत्‌ उतरा उद्गम्य मयूखे उ्रभवत इत्यच- 
य;ः। उदयाचलमारूढे सवितरि ततः प्रयमं निर्गते मयूखे 
मण्डलमतिक्रभ्य ब्र्याण्डमण्डलमखिलमवभासयतो उचैः भ्र 
सपेत दत्यथः। यदेतन््रयुखद्रयं प्राधान्येनाक्तमेतत्‌ सवित्‌ 
सविटरूपं, सत्यघमः मयूखापलकितं सविटखरूपं सत्यधरमं 
इत्ययः । एतद्यजुरित्या यस्य महिमापन्यासः सष्टा्थः। एतद्‌ 
ब्रह्मविषयमिति ब्रह्य विषयो यस्मिन्‌ तत्‌ तया ब्रह्मप्रा्चिद्धार- 
भित्यथेः। एतद्खानरणव दत्येकं पदं तेजाराशिरित्यथः। 
यद्वा भानुः प्रकाश्खभावाऽणवेाऽणं उदकं वदति प्रापयति 
 ठष्टिद्रारणेत्यणव इत्यथः । तस्मिन्णंव एव यजमानाः कर्मि- 


ह्‌ पपाठकः || दीपिकासद्िता। १८७ 


ररैवस्तस्मिनेव यजमानाः सैन्धव इव ज्ञोयन्त ग्षा 
वे ब्रद्येकताच हि सर्वे कामाः समाहिता इत्यत्ादा- 
हरन्ति । अंशुधारय इवाणुवातेरितः संस्फुरत्यसाव- 
न्तगः सुराणं । या हेवंवित्‌ स सवित्‌ स दैतवित्‌ 


क --~. -~ ----~--~-----~-- ---------~~ --~-----~--------~----~----=~---~-----~------ ~ ---------------------- 





णम्तद्‌ विरोघनोापासकाश, सैन्धव ईव सैन्धवखिल्य दूवोादके 
निचिघ्तः, नीयन्ते विलीयन्ते तदात्मता गच्छन्तोत्य्यैः। यदेव- 
मस्मिन्‌ यजमानानां विलयनमेषा वे एषैव ब्रह्ीकता कार्यत्रह्म- 
सायज्यप्रात्षिरवेापासनाफलं न परब्रह्ममाय॒ज्य[मत्यभिप्रायः। 
तत्र देतुरच दि यस्मात्‌ सवं कामाः काम्यमाना विषया; स- 
माद्दिताः स्विताः सन्तोत्ययंः। कार्यब्रह्मनाके दि सङ्धन्यमाच- 
सिद्धाः पिचादिलक्तषणएाः कामाः अयन्ते" यदि पिटलाककामे 
भवति सद्धन्पाद्‌वास्य पितरः सम॒त्तिष्ठन्ति तेन पिदलेकेन 
सम्पन्नो मदोयते' (कान्दा०श्र०) इत्यादो । दरतिश्ब्दो मदडि- 
मे पवर्णनसमाष्यर्थः। श्रचाक्रफले उदादरन्ति षय इत्ययः, 
नवररधारय ० छष्एवर््मनः'' दति। श्रसो सवितारमीोशं 
प्रविष्टो मक्ता यजमानः सुराणां सर्वेषां दवानामन्तगाऽन्तर्गतः 
मंस्फरति सवदेवतात्मा भवति, कं दवत्युच्यते, ्रणवातेरिते 
ऽन्त्यवायुना प्ररिताऽ्धारय द्रव श्रश्रून्‌ घारयतोत्यष्टधारः, 
अष्एधार एवाग्ररुधारयः प्रदीपः । घता च विघता च विधा- 
रय दतिवत्‌ प्रयोगः। ये देववित्‌ स सवित्‌, विदा ज्ञानेन सद 
वर्तत दूति सवित्‌ विद्धानित्यथैः। स द्वेतवित्‌ दतं परापर- 


6 


१८८ मेव्युपनिषत्‌। [€ प्रपाठकः) 


सैकधामेतः स्यात्‌ तदात्मक । ये बिन्दव इवाभ्युच्च- 
रन्त्यजखं विद्य॒दि वाभाचिषः परमे व्योमन्‌। ते 
ऽचिषा वे यशस आआञ्यवशाज्नटाभिरूपा इव छष्ण- 
वत्सं नः ॥ ३५ ॥ 


ब्रह्मभेदं वन्तीति डेतवित्‌। यद्वा जोवामां दतं मेदतन्ं वेत्तीति 
टेतवित्‌। स विद्ानेकधाम एकं मख्य घामद्तः प्राप्तः स्यात्‌ 
भवेत्‌। यस्य धाम प्राप्नाति तद्‌ात्मकश्च तत्खरूपश्च भवेत्‌ 
ब्रह्योव क्रमेण स भवतीत्यर्थः| दैतविक्लं प्रपञ्चयति, ये बिन्दव 
दवेति । ये महासमुद्राद्विन्दव इव वाचुद्धृताः परमा- 
त्मनः सकाशाद्‌ विद्याकायाद्धुता त्रजसं पनः; पनजागरिता- 
दावम्ध्चरन्ति एयगुल्तिष्टन्ति, तेऽर्चिषो वे दत्युत्त रेणान्वयः। 
एयगभावावभासमानांगे दृष्टान्तमक्ता प्रयग्श्तसेव सतः ष- 
यक्‌परि च्छद प्रतिभासे दृष्टान्तमाद, विद्यदिवाभ्रावचिषः परमे 
व्योमन्‌ दति। परमे वोन्ि माकाश ययाऽभ्वा्विषोऽभ्रान्तं- 
तस्याखण्डस्याचिषोा विदधद्‌ विद्युदाकारावभासः, तथा ते जौवा- 
त्माना यशसः परमात्मनः, .तस्य नाम मदद्यशः' दति रतेयशः 
परमात्मा, तस्य यद रिश्च तन्यप्रकाशस्तस्य प आआश्रयवशाच्चेतन्या- 
भासखचितत्वात्‌ तप्मतिविम्बाधारवाद्वा श्रविद्याकायंद्‌ददय- 
ष्पा विविक्ता जीवा दति व्यपदिश्यन्त दति याच्यं। यथया 
कृष्णवत्मनाऽप्रेरभिखूपा जरा ज्वाला स्फलिक्गाः प्रकाशाश्रय- 


€ प्रपाठकः ।| दौपिकासह्िता। शय्९ 


दे वाव खल्वेते ब्रह्यज्यातिषेा रूपके शान्तमेकं 
सग्डडच्चेकमय यच्छान्तं तस्थाधारं खमथ यत्‌ सण्ञ्च- 
मिदं तस्यान्नं तस्मान्मनो पधाज्यामिषपरोडाश्स्था- 
लोपाकादिभियष्टव्यमन्तब दयामाव्यवसछषटरन्रपानेश्ा - 


स ----- ----------- ~~~ ~~~ ~~~ 





त्वादनेकाञ्चित्वमापद्यन्ते स्पलिङ्गादिव्यपदेभभेदञ्च तयेत्ययः ॥ 
॥ ३५ ॥ 

जोवद्धैत त्वमेव मा विष्कत्य जोवेश्धरडेतमाविष्करोति “शे 
वाव ° आअचाद्‌ादग्न्तिः' दति । ब्रह्मज्यातिषा ब्रह्मात्मकस्य 
चित््रकाशस्यद्धं वाव खल्‌ रूपक ज्ञापकं, एकं श्रान्तं सण्डद्धं 
देकं) ते एवाश्रयमेद निदेशेन विभजते) श्रय तयो म्ये यच्छान्तं 
तस्य खमाकाशं आआाघारमाययः, क्तैव्यंकान्दसं, खे व्याप्य व्यव- 
स्यिताऽखण्डप्रकाशः । श्रान्तं रूपकमोखरस्याभाक्तः खरूपन्ञाप- 
कमित्यर्थः । श्रय यत्‌ सनब्बद्धं तस्येदमन्नमाघार दत्यनुवतंते, 
अन्ने भोाक्रलेन व्यवस्थितं ब्रह्मज्यातिस्तस्छ जोवलज्ञापक, भाक्ता 
जीव दृत्य्यः। तया च मन्तः धा सुपणा ष्युजा सखाया समानं 
ठ्क्तं परिषखजाते। तयोारन्यः पिप्पलं खाद्धत्यनख्मन्नन्यो अभि- 
चाकशशोतिः (चछग्‌° मं०९। ०९९४) दति। विभागनिदेशप्रया- 
जनमा, तस्ममादिति। यस्मादेवं ब्रह्यौव जोवेश्वरखूपेण विभक्तं 
वर्तते तस्मान्मन्तषघानज्या{दभिर्मन्तपद{दितिराषधादिभिदवि- 
भिरन्तवन्यां चताविदितायां ग्टद्योक्रायामपि स्यण्डिलादि- 


~ ~~~ ~~ - ----~------- 





-------------*- ~ ~~~ ~~न 


# यज्‌ इएान्तामिति {लिखितपवमछस्ति | 


१९० म्युपनिषत्‌ | [€ प्रपाठकः। 


स्यमादइवनीयमिति मत्वा तेजसः सधी पुण्यलेाक- 
विजित्यथायाण्टतत्वाय चातादाहरन्ति। सभिहाचं 
जुह्यात्‌ स्वगंकामो यमराज्यम्रिष्टामेनाभिजयति 
खूपायां यष्टव्यमोश्रात्मकनव्रद्मयजनं कतंव्यमित्यर्थः । चचरैषधघं 
चरुधानादि, अमिषं पश्चङ्गावदानं, पुराडाशे मन्तसंस्तुतः 
पिष्टपाकविशेषः। ग्थालोपाकः स्मातेश्चरुः। श्रादिशब्दात्‌ 
पयःसामादि गद्यतें। तथा जीवरूपन्रह्ययजनमपि का्यमि- 
त्यभिपरत्याद, अास्यवश््टिरिति। श्रवश्टिरन्नपानेख मदाय- 
ज्ञाद्यवशिटेः खमेाजनलेन पश्चादिहितिरिति वाऽन्नपानैराल्ि 
श्रास्ये यष्टव्यमिति पूट्णान्वयः । यस्िन्नाखेऽन्नपानाभ्यां जोव- 
रूपन्रह्मयजनं क्रियते तद्‌ास्यमादवनोयं मला श्रास्यात्मके 
ऽसिन्नादवनोयेऽदने प्रत्यगूपाय वेश्वानरात्मने हविरिदं यते 
मयेति चिन्तयन्‌ भुच्नोतेत्यथंः) किमर्थमेवे काये{मिति तचा, 
तेजस दति ¦ तेजा ज्ञानबलादि निमित्तं प्रागल्भ्यं, तदद्य 
मास्यादवनोये यजनं, पण्यलाकस्य स्वगादेविंजितिर्विंजयस्तद- 
याय तत््रयोजनाय भरैतस्मातंयजनं कायंमित्य्थैः। एतदेव 
ञओऋतादिकम सकामस्य पण्यलाकजयद्ेतुरपि निष्कामस्य मात्त- 
हेतुर्भवति, रते म॒मृच्तभिरपि यष्टव्यमित्यभिप्रेत्याद,अ्रग्टतल्राय 
चति । कुतः प्रमाणात्‌ । पुण्णलेाकसाधनं कभेत्यवगतमित्यत 
आद, अ्रचादादरन्तीति। विधिवाक्यानि श्रूयन्त द्रत्यथंः। 


* सभियजर्तीति मले लिखितं। 


द्‌ प्रपाठकः।| दीपिकासद्िता। १९९१ 


सामराज्यमुक्येन छयराज्यं षोडशिना स्वाराज्यम- 
तिरा चण प्राजापत्यमासहससं वत्स रान्तकतुनेति । 
वच्याधार खेदयागाद्यथा दौ पस्य सस्थितिः। 
अन्तयाण्डापयागादिमा स्िनावात्मशचो तया ॥६६€॥ 


तान्येव वाक्यानि पठति ्द्यिदातं ° क्रतुनेतिःः दति। 
अचाग्गिदाचादिशनब्दाः कमनानधघेयानि। श्रग्मिराचग्रदणच 
सर्व॑दहवियंज्ञानामपलचणं। श्रद्रि्ठामः सव॑सामयागानां प्रय- 
मा यन्नः "प्षवे प्रथमा यन्ना यत्तानां यदद्मिष्टोमःः दति 
शरतेः। यमराज्यं यमाधिष्ठितः खगेविशेषः। एवमव सेोमरान्य- 
मित्यादि योानज्यं। खाराच्छमिन्धराधि्शटिति लाकविगेषः। -एत- 
चत्यस्मिष्टामवाजप्याप्रायामाणां हरस्पतिसवादरौीनामेकादा- 
नामृपलचणं । प्राजापत्यं प्रजापतिनाधिष्ठितं म्धानं, तत्‌ द्वा- 
द्भराचरप्रग्टतिमदससंवत्सरसंज्ञान्ता यः क्रतुममुद्ायः सचा- 
त्सकस्तेन जयतोत्य्थः। एतेनादहीना च्रष्क्ता वेदितव्याः 
“वन्याधार्‌ ° आत्मष्टुची तया"! दइति। पूवाः स्ष्टा्थः। 
श्रन्तरो भवमन्तयमन्तरौोयं ब्रह्माण्डान्तवंतिं व्यष्िशरोर श्रण्डं 
ब्रह्माण्डञ्च अन्तरोयाण्डे, तयोरूपयोगात्‌ सखीकारादिनै 
श्रात्मा च प्रुचिश्वात्मष्यचो परूषादित्ये तथा स्थिते । व््यी- 
धारस्स्तदसमाभ्चिपयन्तं दोपस्यितिवत्‌ पिण्डत्रद्या ण्डगतवा- 
सनात्यपयन्तं परुषादित्यरूपेण तब्रह्मज्यातिषो भेरेनावस्थानं 
भवतोत्यथंः॥ ३६॥ = 


१९ मेन्युपनिषत्‌ । [€ प्रपाठकः। 


तस्मादामित्यनेनेतदुपासोतापरिमितं तेजस्तत्‌ चे- 
धामिहितमघ्रा आदित्ये प्राणेऽथेषा नाद्यन्बहमि- 
त्येपाग्रा हतमादित्यं गमयत्यता ये रसेाऽखवत्‌ स 
उद्गीथं वषति तेनेमे प्राणः प्राणेभ्यः प्रजा इत्यतैदा- 
हरन्ति यद्धविरप्रा इयते तदादित्यं गमयति तत्‌ 


__-_-.~_--.----~----~~-~-~~_~---~~~~~~---~-~_ ~~~ ~~~ ~~~ 
„-------~ ~~------~~--------------------------- 


ददानो यथोक्तानि कमाणि प्रणवापटरंहितान्यनष्टेवानि 
कम॑साहुण्णायेति विधानपूवेकं तादृगनुषठितकममादाव्यं एरप- 
छयति “तस्म्मादोम्‌ ° प्रजाः" दति। यस्म्मादुक्रानि कमाण्व- 
भीष्टफलदानि तस्मात्‌ तेषां वोयवन्तरत्वायो [मित्यनेन मन्त्रेण 
आदावद्धारितेनेतत्‌ कमजातमुपासोत तात्पयणानुतिषटेदित्य- 
थः । तथा चाद भगवान्‌, 
तस्मा द्‌{मत्यदात्य यन्ञदानतपःक्रियाः। 
प्रवतन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनां" ।॥ इति, 
यताऽपररिमितं तेजाऽस्येति शेषः, श्रस्याद्भारसय तेजः प्रभावा 
ऽनवधोत्यथः । ब्रह्मरूपलात्‌ तस्येति भावः । तत्‌ तेजस्ेधाऽभि- 
दितं श्रभिता हितं निहितं कथितमिति वा श्रग्न दामाद्या- 
धारतया कर्मनिव॑त॑क, आदित्ये देवतात्मनि, प्राणे च कमफ- 
लभेाक्तरि यजमाने चेति चेधा विदितमित्य्थः । एतत्क यनोाप- 
योगमा दाऽयेषेति। श्रथेवं सति एषा शास्तसिद्धा नाडो द्वाररूपा 
अन्न बह्लयतीत्यन्नबह्ः, प्रथमाय दितीया, दृत्येवंविधेषा 


द् प्रपाठकः || द्‌} पिकासद्िता। १९ 


ख्या रश्डिभिवंर्षति तेनान्नं भवत्यन्नाद्धतानामुत्प- 
निरित्येवं द्याह । 
्पद्रोा प्रास्ताहतिः सम्यगणदित्यम॒पतिष्ठते । 
चपादित्यान्नायते दषिठष्टेरननं ततः प्रजाः ॥२७॥ 
अग्िदेावं जुदाना लेाभजालं भिनत्यतः सम्मोहं 
दिवा न काधान्‌ स्तुन्वानः काममभिध्यायमानस्तत- 


ऽग्न तं दविरादित्यं गमयति,ः्रता दविषश्रादित्य प्रविष्टया 
रसा रसिपरिपाकताऽसखवत्‌ रस उन्ञोयं यथास्यात्‌ तथा 
वघंति, उच्चैः शब्दं कवन वषतोत्य्यः। तंन वर्षणेन वषंणनिष्यन्ने- 
नाननेनेत्येतत्‌, दमे प्रसिद्धाः प्राणाः सिरा भवन्तोत्य्यः । प्रा- 
एभ्यः प्रजाः जोवद्ध दि बलवद्युः प्रजा भवन्ति दत्यतचाक्रेऽ्यं 
उदाहरन्ति, उद्‌7दरणवाक्यं निगद्व्याख्यानं। एवं दि श्चा, 
मनरपोति शेषः। व्यद किञ्च मनुरवदत्‌ तद्धेषजं' दरति 
श्रुत्यैव मनेः प्रशंसनात्‌ प्रायः श्रुतिरेव मनुवचनमिति गम्यते। 
यद्धाप्ची प्रास्ताद्धतिः सम्यगिति वचनं कचिच्छाखान्तरगत- 
मेवेदं मनुना निबद्धमिति न मनुप्रण्येतमताऽनादिसिद्धया 
खत्या कथमवेाग्‌भाविसतिवचनरुद्‌ाद्वियत दरति न शङ्कास्मद। 
श्चाक उक्ताथंः॥ २७॥ 

इदानीं एथिवो गादंपत्य दत्यादिनोक्रप्रकारेणाग्रिद्दाचं 


लुङ्ृतः फलप्राप्तिं सापस्करामाद “श्र्मिदोचं ° अज्ादा- 
2 7) 


१९४ मेन्यपनिषत | | € प्रपाठकः । 


अतुजालं ब्रह्मकाशं भिन्ददतःपरमाकाश्मचव हि 
सैरसेम्याप्रेयसाचिकानि मण्डलानि भिच्वा ततः 
शुद्धः सत््वान्तर स्थम चलमशतमय्युतं भुवं विष्एसञ्द्ितं 
सवापरं धाम मत्यकामसवंन्नत्वसंयक्तं स्तन्तं चेतन्यं 
स्वे महिम्नि तिष्ठमानं पश्यत्यचोद्‌ादइहरन्ति। 


~ = = = ०-9-०० ० जयया ककन 
_.. -----.~---~- ~~~ --------~-~--------~-~~~~~-~~~~-~~~~~_ ~~ 


चरन्ति" दति। यथयोक्तप्रकारम्िहाचं जह्ानः कालेन 
प्रण्यपेतान्तःकरणः सन्‌ लोभमयं जालं ्रेयामागनिराधकं 
भिनत्ति विदारयति, अ्रताऽनन्तरं लाभमूलं मेदमविवेक- 
लक्षणं दत्वा विवेकनात्छत्य क्राघान्‌ क्राधमयान्‌ भावान्‌ न 
स्तुन्वानोाऽस्तुन्वानोा न प्रशंस्न तान्‌ परित्यजन्निति यावत्‌। 
कामं माच्लच्णमभिध्यायमाना मातत एव म फलमस्िति 
म॑नसाज्जिखन्नित्ययेः। ततः एवं सम्यग्बिष्रद्धऽन्तःकरण मति 
चतुजालं ब्रह्मकोशं चतुभिंरन्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानम- 
यास्येजलैः परिवेष्टितं ब्रह्मकोशं ब्रह्मणः परस्याच्छादकं माया- 
मयमानन्दमयासख्यं तस्मिन्‌ दि ब्रह्म निदितं श्रूयते (ते°उ०) ण्या 
वेद निहितं गदायां वरमे व्यामन्‌' (न्रह्य पुच्छ प्रतिष्ठा'दतिच। 
तं काशं भमिन्दत्‌ साक्किसाच्छविवेकलक्तणेन तत्वज्ञानेन भिन्द 
द्ुन्लचन्‌ प्रत्यगथ॑मुद्धूरन्नित्यथंः । अतःपरमाकाशं सच्छब्द 
वाच्यं कारणापाधिक च्राकाशावे नाम नामरूपयानिंर्व्िता 
ते यदन्तरा तद्रद्'दत्यक्तलचणं (कान्द °श्र०८) प्रवि दिति भेषः। 


द प्रपाठकः।] दीपिकासह्हिता। १९५ 


रविमध्ये सथितः सामः साममध्ये हताश्नः 
तेजामध्ये स्थितं सच सत्वमथो स्थितेाऽच्युतः 


श्रच हि श्राकाशचे ब्रह्मणि उपासनाथ यानि दर्यसामाप्नोनां 
मण्डलानि साल्िकानि मत्तगुणात्कानि कल्पितानि तानि 
भिचा खयादिदेवतादिकमखिलं प्रपञ्चं परे कारणे ब्रह्माणि 
प्रविलाप्येत्युक्तं भर्वति, तत उपास्यापासकभेदप्रतिभासदेलवभा- 
वात्‌ ब्रएद्धः प्रत्यगात्ममाचतया म्थिता विद्धान्‌ सन्वान्तरस्प 
प्रद्धसत्वमयान्तःकरणदत्तावभिव्यक्तिं गतमचलमत्याद्यनक- 
विशेषणेरुपलकदितं ब्रह्म प्यति साक्तादुपलभते म॒च्यत दत्य- 
यः । अच सलकामसवेन्ञलसंयुक्रमिति ब्रह्मविशेषणेन कारणे 
ब्रह्मणि प्रथमं प्रविश्य ततः कालेन श्रद्ध ब्रह्म प्रविशतीति 
गम्यते, उपासनाप्रकरणात्‌। रत एव स्वापरं धामेति विश्- 
षणं । सवमपरं निष्टं यस्मात्‌ तत्‌ सवापरं घाम स्यानं, 
करणमित्ययंः। न चेवं सति चतुजालं ब्रह्मकोशं भिन्ददि- 
त्यनुपपन्नमिति शङ्कं, तस्य क्रमप्राप्यपरममक्यपेचत्वात्‌ । प्राक्‌ 
करता डि विवेकः प्रारसप्रतिबन्धच्तये सफलं करिव्यतौति 
सवमनवद्यं। श्रताक्रऽयं उदादरन्ति षय दत्य्थः उदा- 
हरणं पठति “रविमध्ये ° ख्िताऽच्युतः'। तेजाऽग्रिः। 
स्ष्टार्यमन्यत्‌। मण्डलभेद्‌क्रमेण ब्रद्यप्रवेशनमुदादत्य काश 


भेदनेन ब्रह्मदभनमृक्रमनद्य तत्राणयृद्‌ादरणमाह “शरीरे ° 
‡ 1) 


१९९ मेच्यपनिषत्‌ । [ € प्रपाठकः। 


शरोर प्रादेशङ्गषठमाचमणारप्यश्व्यं ध्यात्वातःपर- 
मतां गच्छत्यच दि सवं कामाः समादिता इत्यचाद्‌ा- 
हरन्ति अङ्ष्टप्रारेशशरोरमाचं प्रदोपप्रतापवत्‌ 


_. ------~ ---~ ---~-~ -. ~ ------------ - - १, न 
= ---- -------- ~ 


ब्रह्मते नमः इति । शरीरे प्रादेशमाचप{रिमितं द्यं, तचा 
ङ्ुष्टमातचरं कमलं, तदिदं शरौरप्रादंशाङ्गुष्ठमातमिव्युखते। 
तादृगङ्गुष्टमाचकमलान्तरभिवयक्रलाद्‌ात्माऽप्यङ्गुष्टमाचस्तं, भ्र 
णारष्यण्व्यं च्रतिषखन्मादपि खच्छतर दुलच्यं, एवंविधमात्मानं 
ध्यालाऽताऽनन्तरं चतुजालं ब्रह्मकाशं भिन्दत परमतां पर- 
मात्मभावं गच्छति यथापासितं परमात्मानमनुभवतीोत्य्थः । 
श्रच दि परमात्मनि सवं कामाः खमनोामाचसदःल्पसाघधनाः 
समाहिताः स्थिताः "सवं तदच गला विन्दतेः इति अत्यन्त 
रात्‌। दृत्यचासिनक्ेऽथं उदादरन्ति श्रङ्गुष्टपरिमितकमल- 
यक्तं प्रादशशरोरमाचं प्रादेशपरिमितदद्‌यान्तःशरौराभि- 
व्यक्तमिति यावत्‌ 1 प्रदौपप्रतापवत्‌ प्रदीपशिखावत्‌ टिस्तिघा 
दविस्तिप्रकार मन्दमध्यमात्तमप्रकार तेलवत्यादितारतम्यवशात 
प्रदोपप्रकाश दवाभिव्यञ्कान्तःकरणग्रणद्धितारतम्यादभिव्य- 
क्रितारतम्यवत्‌ तद्र द्यान्तचामिललचणमभिद्टूयमानमभितः 
सयमानं प्रशस्ततयापलभ्यमानं मदा दवा मदान्‌ देवाऽ 
खण्डविदात्मकोा भुवनान्याविवेश, यद्‌वंविधमात्मतत्वं तदेव 
ब्रह्म यच्चेदं ब्रह्य तदेव महान्‌ दवा भुवनानि श्थावरजङ्ग- 


द्प्रमाठकः।]  दीपिकासह्िता। १९७ 

दिस्विधा हि । तद्रह्मयाभिधूयमानं महा देवा सुव- 

नान्याविवेश । अम्‌ नमे ब्रह्मणे नमः॥ ३८ ॥ 
इति मे्युपतिषदि षठः प्रपाठकः ॥ 


[न 


मादिजोवरूपेणा विवेश, तस्मादात्मैव नद्य नद्य गात्मेत्यमेरेन 
ध्यानं प्रशस्तं तत्‌ कतेब्धमिति भावः । ॐ नमे ब्रद्मरे नम 
दूति शान्तिपटो मङ्गलाथः॥ इ३य८॥ 


इति मैन्रोशाखेपनिषदौपिकायां षष्ठः प्रपाठकः॥ 


१९ ख ` मेच्यु परिषत्‌ । [ऽ प्रप्राठकः | 


अग्रिगायचं चिदद्रथन्तरं वसन्तः प्राणो नश्षचाणि 
वसवः पुरस्तादुद्यन्ति तपन्ति वषन्ति सतुवन्ति पुनर्वि- 
शन्त्यन्तवि वरेशेष्वन्त्यचिन्तयाऽमुती गभीरा गुप्ताऽनव- 
द्यो घने गहने निगुणः शुद्धा भास्वरा गुखभुग्‌ भये 


सघ्रमेाऽप्ययं प्रपाठकः प्रकणानेकापदेशपरः। तचादितः 
सप्तभिरनुवाकेः सविचाश्रयमृपासनं खतन्लं सविस्तरं सफल- 
मात्मपयंवसितिमपदिशति, अ्ग्रिमायचमित्यादिना । ` 'अभ्भि-* 
गायचं ° अन्तरान्तरः" दूति। श्रग्मिदेवता, गायचं छन्दः, जि- 
रत स्तामः, रथन्तरं साम, वसन्ते तुः, प्राणः प्राणनटन्ति- 
रनः, नकचाण्य श्िन्यादोनि, वसवे दे वगणएविशषः। एते सवं 

{ £ ६ ॥ व ~ =, ५ ् 
मूतिमन्तः सवितुः पुरस्तात्‌ परराभागे. उद्यन्ति, एतः पुरा 
भागे परिदतः सविता ध्येय इति विवक्सितं) तापकाले एते 
तपन्ति, पक्ासु वन्ति, तन्तदवसरे स्षितारं स्तुवन्ति पुनरस्तं 
गच्छन्ति, सवितयंन्त विशन्ति, श्रवा भोगकाले सविचा्चित- 
मग्टतं भेक्तमन्तविश्न्ति सविद्रमण्डलमनुप्रविशन्ति। विवरेण 

ह + [नि @५ 

दारेण किरणप्रटत्तिमा गणत्तन्ति भेज्यमग्डतमोत्तन्ते पश्यन्ति । 
अयता विवरेण समयविश्रषेण भागप्रतोक्तं कुवैन्नोत्यर्थः । 
एतदपि श्रग्धादीनां ठन्तान्तं ध्येयं ठेदि तव्यं । एवंविधैः परो- 
वतिंभि; ।स््यमानं साविच्रं खरूपं ध्येयं निदिंशति, श्रचिन्त्य 

# खवन्ती दयृत्तमपुसतके सवच लिखितं, अधमे तु कचित्‌ कचित्‌ 
इ-गभप्रीये च पुस्तके सवच स्तवन्तीति । 

1 खूयमा्णमिति पाठान्तर | 


७ प्रपाठकः |] दौपिक्ासहिता। १६९ 


ऽनिरृत्ियागीश्वरः सवक्त मधोऽप्रमेयाऽनाय्न्तः ख्री- 
मानजे यीमाननिरे श्यः सवक्‌ सवस्यात्मा सवंसुक्‌ 
सवस्येशनः सवेस्यान्तरान्तरः ॥ १ ॥ 

 इनद्रस्तिष्टुप्‌ प्च्वदणा उद्द्ीष्मा व्यानः सेमे 
रद्रा दक्षिणत उद्यन्ति तपन्ति वन्ति स्तुवन्ति पुन- 
विशन्त्यन्तवि वरेशेक्षन्त्य ना्न्ताऽपरि सितेाऽपरिच्छि- 
न्नाऽपरप्रयाज्यः स्वतन्त्रोऽलिङ्गाऽमूतीऽनन्तशक्तिधाता 
भास्करः ॥ २। 


[ति 





दृत्यादिना। श्रमूते दृति केदः, अ्रचिन्यो मनसाऽगेचरः, 
तरमृताऽपरिच्छिनिः, गभोरो दुरवगादः कभन्दरियागाचर्‌ 
दत्ययेः, गुप ज्ञानेद्धियाविषयः, श्रनवद्यः पण्छपापरदितः, 
घनेाऽभे्यः, गना दुरविवेकः, निगुण रूपादिगृणरदितः, 
प्रद्धा निलयः, भाखरः सतीवभाखकभारूपः, गृणमुक्‌ ति गृण- 
विकारसाक्ौ, बिभेत्यस्मात्‌ सवंमिति भयः. कालद्टपः, श्रनि- 
टन्तिरकायैरूपः, यद्वा निटेत्तिः स्वसिद्धिरूपः। प्रसिद्धाये- 
मन्यत्‌ । मघो मघवानिन्रः पूज्य त्यर्थः, सवसयान्तरा मक्ता 
जोव रुस्याप्यान्तर शआ्रन्तरान्तरेाऽन्तया मोत्ययः ॥ ९॥ 

दनद्रस्तिष्ुबित्यादि समानं “इन्द्रस्िष्टूप्‌ ° भास्करः" 
दति, श्रनाद्यन्त इत्यदि विशेषणानि सवितुः पुव॑वद्याना- 
शानि यथाशब्दं विक्ञेयानि।॥२॥ 


२०० मैन्यु पनिघत्‌ । [७ प्रपाठकः । 


मरुता जगती सप्तदशा वैरूपं वषा अपानः शुक 
आदित्याः पञ्चाद्‌ न्ति तपन्ति वषन्ति स्तुवन्ति पुन- 
विश्न्त्यन्तविवरेशेष्ठन्ति तच्छान्तमश्ब्दमभयमशाक- 
मानन्द दृप्त सिरमचलमशतमच्युतं वं विष्ण- 
सञ्िन्ञित सवापर धाम॥३॥ 

विश्वे देवा अनुष्टुवेकविंभेा वेराजः श्रत्‌ समाना 
वरुणः साध्या उत्तरत उद्यन्ति तपन्ति वषेन्ति स्तुव- 
न्ति पुनविशन्त्यन्तवि वरेशेछन्त्यन्तःशुद्धः पुतः श्रन्यः 
श्ान्ताऽप्राणा निरात्मानन्तः ॥ ४ ॥ 

मिचावरूणा पद्किस्िणवचयस्तिंशे शाक्तररोवते 
हेमन्तशिशिरा उदानेाऽङ्गिरसश्वन्रमा अद्धा उद्य- 
न्ति तपन्ति वषेन्ति स्तुवन्ति पुनविशन्त्यन्तवि वरे णे- 
सन्ति प्रणवाख्यं प्रणेतार भारूपं विगतनिद्रं विजरं 
विग्त्युं विश्रोकं ॥ ५॥ 








मरना जगतोत्यादि समानं । “मर्ता जगतो ° परं 
धामः: इति॥ र२॥ 

विश्वे देवा इत्यादि समानं। “विश्य देवा ° श्रात्मानन्तः' 
दति॥४॥ 

भिचावरुणेा पङ्किरित्यादि समानं । “मित्रावरुणा ° वि- 
शंक दति ॥ ५॥ 


७ प्रपाठकः || दीपिन्नासद्िता। १६ 


५निराहकेत्‌र गरक्षायक्षनर विदगशरमेभादया- 
ऽधस्तादु द्यन्ति तपन्ति वषंन्ति सुवन्ति पुनविशन्त्यन्त- 
विवरेरे्षन्ति यः प्रहा विधरणः सवान्तराऽछरः 
शुः पूता भानः शन्तः भ्णन्तः ॥ & ॥ 
रप हि खल्वात्मान्तह्दयेऽणोयानिद्धाऽध्रिरिव वि. 
्रूपाऽस्यदान्नरमिदं सवमस्िन्नाता इमाः प्रजा रष 


एवं पसु {दत्त क्रमण व्ययव्िशषानपदिश्याघधाभाग च 
ष्येय विशेषमपदि शति “शनिराङ्कल्ल्‌ ° चान्तः शान्तः" दति। 
विधरणा विधारका उणाश्रममयाद्‌ाया द्यः भान्ता 
भासा युक्तः, कतानः क्षमावान्‌, तया शान्त दत्यथः॥ ६ ॥ 

एवमधिदेवं ध्येयं मविस्तरमपदिण्ट तदनूद्य तस्वाध्यात्मं 
ध्येयं स्वरूपमपदिशति “एष {इ ° हिताय नमः दति। 
योाऽधिदेवतमादित्यमण्ड़ले उपास्य उक्रः एष हि एव खल 
छ्रात्माउन्तद्ददये ददयस्यास्य स्यानस्याणोयसवादणेयानति- 
खच्छः, श्र्िरिव दौपशिखवंद्धा रोष्यमान इत्येतत्‌ वि्- 
रूपः सर्वरूपा तग्यानरो भेोक्तंति यावत। अतारस्येवान्नमिदं 
सवं श्रविशरेषेण सवप्रणिभिरद्यमानमिद्‌मन्नमस्येव वेगश्रानरा- 
त्मनेऽन्रमिति दृष्टिविधोयते। श्रस्मिन्‌ व्ैश्यानरात्मनि दमाः 
प्रसिद्धाः प्रजाः स्यावराद्या श्रता च्रिताः पट दव *तन्त- 
जातमाञित्य स्थिता दत्यथः। सवात्मकोा वेश्यानरा मेक्रा 


त ककन, ~ ~~ --- -----*----- -- ---- -~-~~ ~~~ - --------~. 
~~ ---------~--------- मा ७०.9० 0 


०0 


# तन्ततनमाशिद्यति मात्तखि{शखतं। 
2 ४ 


२०२ मेच्यपनिषत्‌ । [७ प्रपाठकः। 


चात्मा पदतपाप्रा विजरा विस्त्युविशकेा विचिकि- 
त्साऽविपाश सत्यसङ्कल्पः सत्यकाम रुष परमेश्वर 
रुष भूताधिपतिरेष भूतपाल रष सेतुविधरण रष .हि 
खल््वात्मे्यनः शम्मुभवे रुद्रः प्रजा पतिवि खर क्‌ हि - 


५ ५ 


तेद स्वैरद्यमानं सर्व॑प्रकारमन्नमिति ध्याला प्राप्तमन्नं 
मु्नानेाऽन्नदोषेनं लिप्यत दत्छेतम्थं खचयन्ती ्रात्मानं वि- 
शिनष्टि, एष इति । च्रपरतपाभ्मा पुष्यपापलपर ति दत्य- 
यः; पण्यमयप्यत पापश्रब्देन ग्टद्यते तस्यापि पापवत्‌ संसारबन्ध- 
देतुलात्‌ “उभे द्वेष एते तरति न सुरतं न दुष्कतं सव 
पाप्रानाऽता निवतन्ते' इति च श्रुतेः। विजरो विग्टव्युरिति 
जराश्टल्युधमकात्‌ स्धूलदे दाद्विविच्यते। विभ्राक इति शा- 
काद्घम॑कादन्तःकरणात्‌ । विविधा चिकिव्छा विचिकित्सा 
सदजस्य क्षद्या्धेनिवतनं, सा यस्यास्ति स विचिकित्साऽन्नापष्ट्- 
जोवनः प्राणः, तस्मादन्याऽयमात्या श्रविविकित्सः, प्रत एवात 
भशाखान्तरऽविजिघत्स इति पद्यते। खादितुभिच्छा जिघत्सा 
तया र द्ितिाऽविजिघत्स इत्यर्थः श्रविपाश् इति वर्णव्यत्यये. 
नापिपासः पिपामार दितः पिपासाघम॑कात्‌ प्राणादन्य इत्य- 
-थेः। स्थुल द्च्मद दापाधिनिषेधे तद्राषानाखन्दितिलात्‌ सत्य- 
षद्धुःल्प; सत्या श्रवितथयाः शद्धल्या यस्य सः, रत एव सत्य- 


5 प्रपाठकः] दौपिक्ासद्धिताः। २०३ 


[द १ | ५ 
यणा यश्चषेाऽग्रा यश्चायं हदये यश्चासा खादित्ये स 
रष गकस्तस्मे ते विश्वरूपाय सत्ये नभसि हिताय 
नमः॥ ७ ॥ 


* -~-~~-------~--~-----~---.~ ~ 
--"-~~-~----- ~~~ -~---~----- -~-----~ --------~~~ ~ ~~~ ------~~~---~--------*----- -~ -~- "~-~----------~> - -- ०० 4 


कामः, काम्यन्त दति कामाः मत्या यथयासङ्कल्यमवभ्यम्भाविनो 
यस्य स म॑त्यङ्ामः। यत एवसयमुपारुद्ृताऽत एष एव 
परमेश्र एष श्रताधिपतिग्तानां सखामो एष श्रतपालः 
पालयिला यत एष वेतुजंगन्मयाटोत्तम्भकः यते विधरणा 
विधारका वणाश्रमादिघधमाणां तद्धृत्रनाञ्चेति ग्रेषः। दद्‌ा- 
नोसुक्तगणमात्मानं सतति, एष हि खल्वात्मशाना य उक्तः 
ख एव शम्भ्वादिशब्दवाच्या नान्य दत्यर्थः। उक्रयारध्यात्मा- 
धिदैवोपाधिकयोारात्मनोारुपाधिदयापादेनेकलं वास्तवं रूप- 
मपदिणत्य दङ्गदताय यखंघाऽग्रावित्यादिना  अरद्चिग्रदणम- 
धिदोवम्यादित्यस्य प्रकागापजोविरुवविश्तिग्रदणापलप्तणाथं। 
यश्चायं दये प्रत्यडः परुषः, यखासावादित्ये परोचः सच्रा- 
दित्यस्य: एष दद यस्थख्च एक एव नानयोवम्हतत््े भेदोऽ- 
स्तोत्य्थः। एवमनमन्धायापास्यस्वषू्पं मन्तमिममदौरयेदि- 
त्यभिप्रेत्याद, तस्म त इति। मत्ये नभसि ब्रह्माकाे दिता 
निदिताय खम्बरूपे स्थितायत्य्थः ॥ ७ ॥ 

तदेवं अेयाऽथिनामपाद्यं साधनजातं सोपस्करं सफृलु-. 
मनेकघापदिष्डेदानों अयामागविघातकं परिदरण्यैयं सम्यग्‌ 


2.7: 


२०४ मेन्यपनिषत्‌ | [७ प्रपाठकः । 


अथेदानीं ज्नानापसगा राजन्माहजालस्येष वै 
यानिर्यद खरः स स्व गस्येष वाच्ये पुरस्तादुक्तेप्यधः- 
स्तम्बेनाश्छिष्यन्त्यथ ये चान्ये ह नित्यप्रमुदिता नित्य- 
प्रसिता नित्ययाचनका नित्यं श्ल्यिपजीविनाऽथ 


ययुत्पाद्‌ यति “च्रचेद्‌ानीं ° विद्यान्तरन्ल्‌ यत्‌'' दूति अरथो- 
पाटेयविध्य्थनिरूपणानन्तरमिद्‌नीं दे यनिषधार्थकथनावसर 
प्राप्रे ज्ञानापसगाः ज्ञानोत्पत्तिविचातका रतव: प्रस््रयन्त 
दूति ओेषः। राजन्निति सम्वाघनं प्रदश्रनाथमयम्‌पदेगशप्रकार 
एवाख्यायिकायाः परा समापनात्‌। कं ते ज्ञानापसगं 
दत्याकाङ्खायां यन्प्रादजालं वस्छुतत्वाविवेकनिबन्धनमित्युत्तर्‌ 
पृरणौयं । पुनः कुता मादजालप्रसर इत्याकाङ्गायामाद, 
मादजालसैष वच्छमाणा वे प्रसिद्धा योनिः प्रसरणस्थानं। 
काऽ यद्‌स्तर्ग्ः खर्गानरदेनास्तिकादिभिः मड ख्यस्य स्वमा- 
चस्य वैदिकस्य संसग दत्यष्याद्दारः) पनरेष दृति पचैक्तस्यै- 
वाकर्षणमन्वयस्पष्टोकरणाथं। तच निदर्शनं चपरापमा ञ्नक- 
माद्‌, वाख दति। वारोमदंतीति वाया मदाशाख्याम्रपन- 
सादिः, तस्मिन्‌ परस्तात्‌ परःस्थितल्ेन कनचिद्‌ाप्तनोक्तऽपि 
तमनादृत्याघःस्तम्बेन क्द्रण टणश्लाकया सदाक्षिव्यन्ति 
-्म्नप्रभवं कायापलादरिक ब्ध मन्यन्ते दूत्य्थः। एष दृष्टान्ता 
मेदय्येत्येषपर्‌ स्येदेव वान्वयः । श्रय पन्य॑ च येऽप्यन्ये दद 


5 प्रप्राठकः || दोपिकासंह्ितिा। २०५ 


ये चान्ये ह पुरयाचका अयाज्ययाजकाः श्र द्रश्ष्याः 
श्रद्राश्च श्स््विदांसाऽथ ये चान्ये ह चाटजटनटभट- 
प्रत्रजितरङ्ावतारिणा राजकमणि पतितादयेाऽथये 
चान्ये ह यक्षरा्सभ्रूतरणपिशचार गग्रहादौनामथं 
पुरस्कत्य शमयाम इत्येवं ब्रुवाणा अथय चान्ये ह था 


लाकं नित्यप्रम्दता एदिकंरोव लाभः सदा नन्तुष्टाः, येच 
नित्यप्रवांसताः मदा परप्रथ्याः, नित्ययाचनका; खदा रौोनाः, 
नित्यं शिन्यापजीविनः कारूकम॑कौशलेन जोनननिरता इत्ययः, 
श्रय ये चान्ये द प्रयाचका नगर्निक्तवः, ये चायाज्यान्‌ 
याजनानदान्‌ याजयन्ति तेऽयाज्ययाजकाः, ये चान्ये शृद्र- 
भिष्याः शृद्राद्‌ यां कामपि विदां ग्टौतवन्ते ब्राह्मणाद्यस्त 
शद्रशिव्याः, ये च शद्रः शास्तं अरुतिश्तिपुराणलच्णं वि- 
रन्ति परन्ति पाटयन्ति वा ते शास्त्रविद्धांसः । श्रय ये चान्ये 
षह चारः: पिष्रए्नाः, जटा ्रपरिच्छिनासम्यवद्‌नपराः, नरा 
नतनोापजीवनाः, भरा चाधास्तस्करा वा, प्रत्रजिताः का- 
पटिका श्रभिक्तवा भिन्तवेषधारकाः, रङ्खावतारिणाऽनेकवष- 
भाषाविशेषेनारकनाखजोविनः, रजक्मणि राज्ये ये नियुक्ता 
इत्यध्यादारः, राष्संरल्तषण चारशासनादावधिकता दत्यर्थः। 
ये च पतिता महापातकरतेा राष्रान्निःसारिताः खिता बा, 
श्रादिपद्‌ादभिशस्ता ग्दयन्ते। श्रय ये चान्ये इ येति, 


. 
रण्‌ मन्युपनिषत्‌ | ७ प्रपाठकः | 


कपायकुंण्डलिनः कापालिनेऽथ ये चान्ये ह दथा- 
त्कादष्टान्त कु हकेन्द्रजा लैरवेदिकेषु परिस्थातुमिच्छन्ति 
तैः सह न संवसेत्‌ प्राकाश्यभूता वे ते तस्करा अस्व- 
ग्या इत्येवं च्याह । 

5 = = ^ 
नेराव्यवादकृहकमिथ्यादष्टान्तददेतुभिः। 

साम्यन्‌ लाके नजानाति वेद्‌ विद्यान्तरन्तु यत्‌॥ ट ॥ 


गरदादौनामिति कमणि षष्ठो) श्रथ परखछत्य धनादिकं ख- 
जोवनमदिष्य ये यक्तादीन्‌ प्राणिपोडकान्‌ शमयाम उचा- 
टखनादिभिनिवारयाम दत्येवं ब्रुवाणा मन्लयन्तपरा इत्यथः। 
श्रय ये चान्ये द्या मिथा कषायवाससः कुण्डलिनः शद्ग 
दिशकलकछतकुण्डलधारिणः कापारलिनः कपालभिकच्तवः । 
श्रय ये चान्ये दछयातकाउनग्राद्प्रबलप्रमाणब्रएन्यः खबद्धि- 
कल्पितः दृष्टान्तः प्रायादृष्टस्याद्‌ादरणं कचिदटृषटस्य वाद्‌ा- 
हरण दृष्टान्तः, कुदक छलग्रदः प्रतारणं वा, दन्रजालं प्रत्य 
चता मिथ्यार्थप्रदण्नं । एतेदारयं वैदिकेषु वेदोाक्रमागक- 
निरतेषु परिस्थातुं परिपन्धितया स्थातुमिच्छ्न्ति तैः सदह न 
संवसेत्‌, ये च पुवैक्तासते् न सह सवरेदिव्ययेः। तच देतु- 
माह, तेवै निखितं प्राकाश्यश्रता अपरक्त एव तस्करा- 
खाराः परविन्तापद्दारिणः प्रसिद्धाः यावन्त उक्तास्ते ्रख- 
म्णा यतः, श्रता व्रेदिकानभिगश्य ज्ञानमागमवरुन्धते इति 
वेदिकेवैदाक्तपरूषाथाथिमिसतत्सङ्गस्याज्य इत्यथः, दत्येवं द्या द। 


७ प्रपाठकः || दी पिकासहता। २ ०७ 


 इहस्यतिर्वे शक्रा भूत्वेन्द्रस्याभयायासुरेभ्यः छया- 
येमामविद्यामसूजत्‌ तया शवमशिवरित्युदि शन्त्य- 
शिवं शिवमिति वेदादशस्त्रदिंसकधमाभिध्यानम- 
स्त्विति वदृन्त्यतेा नैनामभिधीयेतान्ययेषा वन्धेवेषा 


मैराक्छवादः श्रूरन्यस्षणिकविन्ञानाद्यात्मवाद्‌ः। वेद विद्यान्तर- 
मिति वेदं ्दान्नरद्येव्यथंः॥८॥ 

इदानीं वद्‌ {विगानं मागेस्य प्रद त्तमृरु{मितिद्ामसाद 
"्टदसातिवि ° इत्येवं दाद" दति। हदम्पतिय प्रसिद्धा 
देवपरः दितः कदाचित्‌ शक्रा श्वा ग्ुक्ररूपमास्थायमा- 
मविद्याम्खजदि {ति स्वन्धः। किमर्थं दृन््रस्याभयाय केमावा- 
मुरेभ्योाऽसुराणं च्याय नाशाय, असुरान्य्ादयलन्रं रचि- 
त॒{मत्ययै;। याऽविद्या हदस्यतिना ष्टा तया शतिं परिणणमे 
सुखकरमगशिवमकनल्ाणं दुःखमिन्युददिश्न्ति कथयर्यन्ति ना- 
स्तिका दृति भष: आअश्िविमकवच्याणं शिवर्मिति चादिशन्तो- 
त्यनवतते\ तेघामभिप्रायमाद, वदेति। वेद्रूतिपुराणादि- 
खूपशास्त्स्य दिसका या धरम: पाषण्डारिषूपस्तस्यामिध्यानं 
एनः पुनरनुमन्धानमस्त लाकस्यलि शषः इति वदन्ति मूरा 
उपदिश्रन्ति। श्रता नेनां विद्यां धर्मकञ्चुकेरतरेदिकंनास्ति- 
कश्च प्रसायेमाणाम{भधौयेत न पठेन्न श्टणयादत्यदचः.+ 
श्रतेाऽन्यथा विपरोतेषा विद्या मदतः भ्रेयसा विघ।तिनो ख- 


९ प 
०८ म॑च्यपनिषत्‌ | [७ प्रपाठकः, 


रतिमाचं फलमस्या उत्तच्युतस्येव नार म्भणोयेल्येवं 
च्याह । ४ 

दूरमेते विपरोते विपुची 

विद्याया च विद्येति ज्ञाता, 

विद्याभीष्ितं नचिकेतसं मन्यं 

नत्वा कामा बहवे लालुपन्ते ॥ 


= + - ~ ~ 


र्पताऽपि वन्ध्येत्रैषा निष्फला । यता रतिमाचं तात्कालिकं 
फलमस्या न भाविष्ुभफलमस्तीत्यथंः | दन्तं पारम्पर्यक्रमा- 
गत श्राचारस्तस्मात्‌ च्यृतस्य भ्नष्टस्य यथे परचवा न सुखं 
सखजात्यपरिग्रदाद्यमयातनागेाचरवाच, तददेदविर्द्धागमा- 
चारनिरतस्यापि इद शिः परित्यागात्‌ परत्र च नरकगति- 
त्रा नारम्मणोयषा बार्स्यत्या विद्या इत्येवमस्िन्रयं दाद 
विद्याविद्ययाविरोधं कटश्तिरित्ययः। “दूरमेते ° लाल्‌- 
पन्तेः' दति याचाविद्याया च विद्या इति ज्ञाता निशिता 
पण्डितेरेते विद्याविद्ये दूरमत्यन्तं विपरोते पिर्‌द्धस्भावे 
विरुद्ध्‌विषयल्ात्‌ श्ितिगतिप्रत्यदाकविवेत्यथः। न केवलं ख- 
रूपता विषयभेद्‌ाद्व वर्द्धं श्रपि तु फलभदादपौत्याद, 
विषूचो विषुच्यो विष्वञ्चनाद्िषृच्या नानागतो विरुद्धफले 
दत्य; । एवं विद्याविद्ययाः खभावममिधाय यमा नविके- 
तसं प्रत्या, विद्याभोख्ितमिति। विद्यैवाभीख्िता यख्य स 


प्रपाठकः ||  दीोपिकासह्हिता। २०९ 


विद्याच्चाविद्याच्च यस्तदेहाभय॑ सद । 

छविद्यया षत्युः तीत्वा विद्ययाखतमश्नुते ॥ 

पविद्यायामन्तरे वेष्ट्यमानाः 

सखरन्धाराः परिडितम्मन्यमानाः। 
विद्याभौश्ितस्तं नविकतस नविकतानामानं लाम गतय - 
म॑न्ये जानामि यतस्वा ल; बेदवाऽपि मया दत्ताः कामा विषया 
न लालपन्ते लः न ले।पतवन्तः आत्मो पभागवाज्कापाद्नेन 
श्रेयामामीदिकच्छेद्‌ न रतवन्त इत्यर्यः, विद्याविद्ययार्भिन- 
फलत्मात्रे ईेशावास्याध्यायस्य मन्तमद्‌ादरति ““विद्याञ्चा- 
विद्याच्च ° विद्ययाग्टतमस्ुते" दति) विद्यां दृवेश्वरात्मविषयां 
भावनां, श्रविद्यां तदिपरौतां कमनिष्टालचणां च, यस्तदुभयं 
खद सम॒चित्य वेद्‌ व्यव्धानावचवधानाभ्यामविद्याविद्ये एकच 
प्य॑वसिते श्रतः क्रमेणेऊपुरूषेणानष्टेये दति यो वेद्‌ उपास्ते 
तत्परा भवति साऽविद्या कमनिष्टया गव्यं विद्योत्पत्निप्रति- 
बन्धकं पापं तीोलाऽतिक्रम्य विद्यया ्रापनिषद्‌याऽग्टतवं 
मोा्तमस्नते प्रान्नोति दृति मन्लाचरयाजना। तया चात्िद्या- 
ऽपि वेदविद्दिता विद्योापयागिनी चत्‌ तदेपाद्‌याऽपोत्यतरादा- 
दरणम॒क्रा तद्विपरीता तु दयेव, ताममुञ्चताऽनथेपरम्पराया 
श्रविच्छंद एव स्यादित्यस्मिनरयं उदादरणमाद “श्रविद्याया- 
मन्तरे ° यथान्धाः” दति! विद्या आात्मतच्नस्फुरणप्रति- 
बन्धात्मिका तदधिपरोतार्थमामोचोन्यावभासिनी च, तंस्याम- 


2 


२९० मेग्यपनिषत्‌ | [-9 प्रपाठकः | 


दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा 
च्पन्धेनेव नीयमाना यथान्धा ॥ < ॥ 


नन-न----~~------"--------- ` ~--------------~-~--~--------------------- --~- --------~-- ~~~ क 


न्तरेऽभ्यन्तरो तमसीव भुजङ्गतत्चावरणे रज्नुवावभाषनिमित्त 
वतमाना चे ते मढा दति याजना। मेोद्व्यान्नाः सद्‌- 
सदिवेकष्रन्याः ते किं परियन्ति संसारमण्डले परिभ्रमन्ति, 
नेषां अयःप्राष्याभाऽस्तोत्य्थः । कि लक्तणास्त दृति तान्‌ 
विशिनष्टि, वेष्ट्यमानाः पत्तपष्एधनन्तेनादिटष्णापाशश्रतेः संवे- 
ष्यमानाः। चरनेन तेषां संसारपरिश्रमणाविच्छदे कारणमुक्तं । 
तथा च श्रत्यन्तरं कामान्‌ यः कामयते मन्यमानः स काम- 
भिजायते तच तचः दति। सखयन्धीराः पण्डितम्मन्यमाना 
दति विशेषणान्तरं । वयमेव घोरा घौमन्ता विवेकिनः शास्त- 
कुशला दत्यात्मानं पण्डितं मन्यमानानतु सम्यक्‌ पण्डितास्ते, 
श्रनेन तेषां सत्सङ्गदे लभ्य दशिंतं। पनस्तान्‌ विग्िनष्टि, दन्द 
म्यमाणणः कुरिलामनेकरूपां गतिं गच्छन्तः, जरामरणरा- 
गादिदुःखशतेर्पद्रुयमाणणा दति वा, ्रनेन तेषां पृण्यमागं- 
प्ररत्यभावः खचितः। तेषां मागप्रदशंका अपि तादृशा 
एवेत्यभिप्रेत्य दृष्टान्तमाह, श्रन्धेनेवति । एकनाग्रयायिना- 
ऽन्धेन नोवमाना रेशदेशान्तर प्रत्याकवयमाण यया बदवा- 
ऽन्येऽन्धाः पुरोाऽन्सेन सद कूपकण्टकादिषु पतन्ते मदान्तमनये 
आाभ्रुवन्धयेवं वेद्‌ विरुद्ध विदन्मन्यप्रदशितमारंगा श्रपि तेनेव सद्‌ 
निरयप्राये संसारे पतन्तीत्यर्यः॥ < ॥ 


७ प्रपाटकः || दीपिकासदह्िता। २११. 


देवःसुराहहवे य श्रात्मकामा ब्रह्मशेाऽन्तिकं प्रया 
तास्तस्मे नमस्कत्वो चुभैगवन्‌ वयमात्मकामाः स त्वं 
ने ब्रहीत्यतशिरं ध्यात्वाऽमन्यतान्यतात्माने वे तेऽसु- 
रा अतेाऽन्यतममतेषामुक्तं तदिमे मूढा उपजीवन्त्य- 


न~. -- ~ ~----~--~----~------ न न- न  ~  - न  न~ - --~- + ----------~ ~्~----~~---~ ----------^~ ~ - ---------------- ~न ~ ~ ~ 


इदानीं वेदेकविषसय सव॑श्ि्टमतापरोाधनायेतिद्ासमव- 
तारयति ्व्देदाकुरा दवे ° स्यादिति इत। देवाख 
असुराश देवासुरःः, दते दरन्येतिद्धाथा निपाती, ये बग्डवः 
पव देवाश्चासुराश्च ते श्रत्मकामा आ्रत्मज्ञानकामाः सन्ता 
नद्यस; सख{पतुः प्रजापतेरन्तिकं समोपं प्रयाताः, तसै ब्रह्मणे 
नम्छला ऊचंदं भगवन्‌ वयं द्यात्मकामास्ामुपसन्नाः मल 
मस््हुरुनाऽस्भ्यं नरद श्रात्मतत्वमिति भेषः। इत्यूदुरिति सम्ब- 
न्धः! अता यते श्रात्मत्तं न सदसा वक्तमुचितमतश्चिर ध्याला 
विचायामन्यत तत्कालाचिते वक्रव्यं विजज्ञा। कि, अ्रन्यतात्माना 
वे तेऽसुराः, प्रसिद्धा ्रसुरा अन्यतात्मानोाऽन्यतायामन्यत 
भेदवति देदाद्‌ावात्ममतय इत्ययः । श्रयतात्मान दरति क्रचित्‌ 
पाठ; सुगमः तथाच देदात्मवादं प्रस्त्य कान्दाग्ये श्रूयत 
"श्रसुराणां द्येषोपनिषत्‌, इति | अतःपरं श्रुतिवचनं यताद्ृटं 
मेद दृष्टयाऽसुरा अ्रताऽन्यतमं दृवेभ्य उक्तादत्यन्तमन्यर्‌तेषा- 
मसुराणामात्मत्लं प्रजापतिनेाक्रमित्यथंः यद्यपि म्रजा- 


पतिना देवानामसुराणां च साधारणमेवात्ममतत्लमुक तयापि 
2 ह ~ 


२९२ मेन्युपनिघत्‌ | [ऽ प्रपाठकः | 


भिषङ्गिणस्त्याभिधातिनेऽचतामिशंसिनः सत्यमि- 
वान्छतं पश्यन्तीन्रजालवदित्यता यददैष्ठभिहितं तत्‌ 
सत्यं यद्वदेपृक्तं तद्विद्वांस उपजीवन्ति तस्माद्राह्मरे 
नावैदिकमधीयोतायमथंः स्यादिति ॥ १०॥ 


~~~ ~----~-----~-----------------------~----- ----~ ~~ -- -------------~------+ 
न नन ~~ -~ ~ ~ ~~~ ~~ ----- - ---* ~ ~-----~- 


सखचिन्तदाषवशादसुररन्यथावगतं, दद मेवात्मतत्नमस्पमाकं प्र 
जापतिनेक्रमिति मन्यमानेरिति भावः। तत्‌ श्रासुरमात्म- 
तक्चमिमे प्रत्यत्ता ददानीन्तना प्रपि मूढा श्रविवेकिन उप- 
जौवन्ति ्रादर्रेण ग्टदीवा तिष्टन्ति, अभिव्वङ्किणाऽत्यासक्तास्त- 
त्पराः सन्त दृरत्यथः) ने किंलच्णास्तयाभिघातिनः तीर्यतेऽन- 
येति तरिः संसारसागरातिक्रमणएसाघनमात्मतत्वन्नानं, तस्यां 
साधनलेन भवति इति वेदशार्तं तथं, तस्याभिदननभ्रीलाः 
वेदमागंविदूषका इत्ययः चनुताभिशंसिने ज्ञानाद्‌ज्ञाना- 
दापि सटषावदनश्ोलाः) यतस्तेऽनतमेव सत्यभिव पश्यन्ति 
सत्यमेव पणश्यन्तोत्ययः । चअननुतस्य सत्यलेन दशन दृष्टान्तमाद, 
दनद्रजाखर्वदिति। यत णवं वेद्‌विरद्धः सम्प्रदायश्रासुर एवा- 
सत्यमृलश्चाते यदद व्वमिदितमुक्त तत्सत्यं यथाथ तदुपादेय- 
मत्ययः । यदेदेषुक्तं तदेव विदांसः सस्यक्पण्डिता उपजो- 
वन्ति ्राद्रोण ग्ट्लन्ति, न देतुवाद्पटुभिरभिदितमित्यथैः । 
्ननयाऽऽस्यायिकयापादयमथमुपदि एति, तस््ादिति। ब्राह्मण- 
ग्रदणमपलच्वणं, वर्णिका न कदाष्यवदिकं दविरद्धं ३द्‌ा- 


€ प्रपाटकः|| दपिकास्ह्ितः। २९२ 


रुतद्वाव तत्खरूपं नभसः केऽन्तभूतस्व यत्‌ परं 
तेजस्त्लेधामिहितमग्रा आदित्ये प्राण रतदाव तत्‌- 
स्वरूपं नभसः सखेऽन्त पृतस्य यदामित्येतदश्षरमनेनैवं 
तदुदुभ्यत्युद्‌ यत्युच्छ सत्यजयं ब्रह्मधीयालम्बं वाचवेतत्‌ 
येज्ञानानपायद्पं च शास्वान्तरमशोयोतेव्य्चः। तादृक्‌ 
शास्तान्तराध्ययमे रषं खचयति, अयमथः स्यात्‌। च्रयमा- 
सुरदृोपात्ताऽवःपातरूणऽयंः फलं स्यारिति भयादिति 
वाक्यशषेः॥९०॥ 

यदेदेषुक्त तत्सत्यमिति यदक्तं तच वेद्‌ एव कथमिति 
जिज्ञासायां तस्य तत्त वन्रुमुत्तरोाऽनुवाकः प्रवतते एतदतरेति । 
“एतदव तत्छखरूपे ° परि मितं तेजः द ति। एतद्ापरैतदेव तस्य 
वेदस्य खरूपं यन्नभसा बद्याकाशस्य खे ददयसुषिरऽन्तभ्द- 
तस्य मध्ये मिद्धस्य, यन्परमलुष्यमानं तेजः सवावभासकं चेतन्य- 
खरूपं तन्तेजस्तेधा प्राघान्यमा्रित्याभिदितमुक्तं एवे, अनी 
श्रादिल्ये प्राणे च विभाव्मानमित्यथः। तथा च यदन्याद्या- 
त्मनः बद्दिरवभासकं तेजस्तदेव खेऽन्तश्टेतस्य नभमः परः तेज- 
स्तदेव च वेदस्य सखरूपसित्यकतं भवति। तदेवेवंलच्षणं तजः 
प्रयममाङ्ारात्मकमासोदिल्याद, एतद्ावेति। यदामित्येतद- 
त्रं प्रसिद्धमस्ति तदेतदाव खेऽन्त्धतस्य नभमा रूपमभि- 
व्यक्तं शूपान्तरमित्यथंः । कुत एतदित्यत आद, ्रनेनति। 
एतत्‌ तेजाऽनेनैवेःमिल्येवमात्मकेनाच्तरेए रूपेण तदु दृध्यतयु- 


२९४ मैव्यपनिवत। [< प्रपाठकः 


समीरणे प्रकाश्प्रश्टेपकोप्ण्यस्थानोयमेतद्नुमस्मेव स- 
मीरणे नभसि प्रणखयेवात्कम्य स्कन्धास्कन्धमनुसर- 
न्नतवुभ्रं भवति नोजस्यवेाच्छनता वेदस्याद्यावस्थारूपं जायत 
दत्ययः। तत उदयति उद्गच्छति अङ्कुर इवान्तनंद्‌रूपप्रण- 
वाकारं भवति, ततः क्रमेणाच्छमव्युच्छराष दव दौघखरेण- 
च्ठारणस्थानं प्राप्यात्तररूपमवतिष्टत इत्यथे; । एवमभि व्यक्त- 
प्रणवाकारब्रह्मतेजेरूपा वेद्‌ऽजखं नैर न्तय॑ण बद्यधोयालम्बं, 
विश्चिष्टपाठः कान्दसः, ब्रह्मवुद्धृरुपासनात्मिकाया श्रालम्बन- 
मत्ययः । वाशब्दात्‌ ब्रह्मतत््वुद्यालम्बनं चेत्यर्थः । अ्रधि- 
कारिभेदात्‌ बुद्धिदयालम्बनलविकल्याा वा वाशब्दः! ्रचे- 
वाऽस्यामेवावस्याया मेतत्‌ तेजः प्रणवमाचाकारं सत्‌ समोरणे 
का्टगते प्राणे घाषवति सहकारिणि सम्पन्ने सति दतिशषः। 
काशं प्रलिपति त्यजति दति प्रकाशप्रतेपकः, जटरकरर- 
चार्यद्मिम्तद्यैष्ण्यस्थाने भवं प्रकाशप्रत्तेपकष्ण्यस्यानोयं तत्तजा- 
ऽनप्रसर तोत्युत्तरत्रान्यः। अ्रनुप्रसरणप्रकारं दृष्टान्तेन स्मष्ट- 
यति, एतदिति । एतदनुप्रसरणं धूमस्येव द्रष्टं, यया धूमा 
नभसि समीरणे वायौ वाति सतिप्रशाखयैव प्रङुष्टया शाखया 
श्राखाकारया लेखयात्कम्याद्धरेशं गत्वा ठ्तस्य स्कन्धास- 
न्धमनसरति तत्तत्‌स्कन्धेरभिदन्यमानस्तत्तदाकारतामस्नुते, 
त॒येतद्रह्मतेजा मूलाधार पयंभ्भिमण्डले तचरस्येनाग्मिना सन्तते 
ऽभिव्यक्तं चाषवतप्राएवायनाद्नैी धम्यमाने तमेव वायम्भिं 


ऽ प्रपाठकः || दौोपिकास्डहिता। २१५ 


त्यु प्रक्षेपक लवणस्येव घुतस्य चैष्णयमिवाभिध्यासु- 
विस्तृतिरिवैतदित्यत्ादादरन्ति। अथ कस्माद्‌ च्यते वै- 


[१ 
~~~ नन --~-~--~- ~~~ ~ म > =-= 
-~-~-~-~~------- ------~-~--~---------~--------------~------~---- ++ 


चापाधिमवष्टभ्य प्रथमं नादमःचप्रणवात्मनाविभ्दय क्रमेण द 
त्कण्टताल्वादिस्थानैः ग्रसरणावच्छदरौरमिदन्यमानं नानाव- 
णात्मनेद्धय नानावेदशखात्मकं भवतीति दाष्टान्तिकं 
येाज्यं। एवमेकष्पस्य र तन्यच्योतिपाऽनेकरूपवेद्‌ात्मना प्रसरणे 
दृष्टान्तमक्ता प्रमरणनावस्थान्तरं गतस्यापि न खभावान्यलं 
सखरूपविनाशेा वत्येव दृष्ान्तदयमाद, ष प्रच्ेपक टति। 
पर्तेप एव प्रक्तेपकः, यथा लवणस्य पिण्डोग्डतस्याष्प प्रचयो न 
लवणस्वभःवद्यानिकर स्तद्‌ वस्थस्याऽपि लवररसानपायात्‌, यथा 
वा घुतर्छाष्ए्यमुष्णसंस्यशो न घुतमन्यययति एवमिद मपोत्ययंः ¦ 
प्रायां दृष्टान्ताभ्यामयमष्ययेः चितः, यथया जलारन्यपाधि- 
विगमे लवणघुतये(: एवावस्यापत्तिः पिष्डाकाग्ण तया ब्रह्य 
तेजसोऽपि कायाश्भिप्राणएमनश्राद्युपाध्यपगमे सरूपेण चिद्‌- 
चनावस्धापत्तिरिति न वेद्‌स्यानित्यत्मिति। दद्‌ानों सुप्त 
प्रनाघवत्‌ इटिति वेदात्मना विदाविभ॑वे दृष्टान्तमाद, 
श्रभिध्यातुविस्तृतिरिवेतदिति। एतदेद रूपेण चेतन्यप्रसरण- 
ममिध्यातुरभिष्यानकर्तुः सद्धन्यमाचण प्रासादादिका्निमा- 
तु मोश्वरस्य विस्ततिविरूगर दृव, श्रयमीोश्रचिरिसारेा वेद्‌ 
दत्य्थैः। च्रचाखिन्नयं उदादरन्ति एच्छति गरिव्य दत्यय;। 
किं तदाद, श्रय कस्मादिति, उत्तरमादः यस्मादिति, 


२९६ मेन्यपनिषत्‌ । [७ प्रपाठकः । 


दयता यस्मादुच्ारितमाच रव सवं शरोर विद्यात- 

यति तस्माटेमित्यनेनेतद्‌पासीतापरिमितं तेजः। 
परुषश्चाक्षुषा याऽयं दक्िणेऽछिण्यवस्थितः। 
इन्द्राऽयमस्य जायेयं सव्ये चाक्षिण्यवस्थिता ॥ 


~~~ ------~- ---------- ~~~ ~~~ 





[1 +~ ~~ ~~न == 
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यस्मादु्ारितमाच्र एवायं वेदः प्रणवात्मा स्व शरीरं 
जगदित्येतत्‌ विद्यातयति प्रकाशयति तस्मादेत इति वेद्‌ 
उच्यत इति याजना! यस्माद्र तपिण्डवद्नौग्डतवेद्‌7वस्था प्रण- 
वात्मकमिदं ब्रह्मासीत्‌ तस्माद्‌ मित्यनेनेतद परिमितं ब्रह्म 
तेज उपासोत प्रणवमालम्बम ब्रह्म ध्यायोतेत्यथः। एतदुक्तं 
भवति सवेवेदाथावलम्बननिवन्धना हि स्वे कामाः परूषार्थ- 
ताः प्रसिद्धाः, ते सवे प्रणएवालम्बनं ब्रह्य ध्यायता भवन्ति 
प्रणवस्य सववेद्‌ात्मकलाद्रद्यणएख्च सवायात्मकलात्‌ सवपुरुषा- 
थंरूपत्वाच्चति। वेदोद्नमस्यानन्तरं निरूपणात्‌ तदयंप्रकाशकाः 
स्मेका मनः कायाद्चिमादन्तोत्यादरय एवाच यद्यपि निवेश- 
यितुं य॒ुक्रास्तयापि ऽ"मित्यननेतदुएासीतेति परस्य तेजस 
उपासनविधानादुपास्यस्य तजसा विश्रषावम्धावस्थानं वन्नं मध्ये 
पुरुषं द्रत्यादयः क्षाका उपात्ताः। तेषाञ्च चाक्तषः खप्रचारौ 
चेति परतर वतिग्यमाेः ्चाकंरोकवाक्यता बेाद्धव्या। तया 
च यथापाटक्रममिद व्याख्यानेऽप्यथक्रमेरेवार्थसङ्गतिद्र्टव्या | 
“पुरुष शवाततुषा ° दिधा सतोः ईइति। याऽयं द्‌ चिणेऽचि्छव- 
खितश्ाचतुषः पुरूषः प्रसिद्धा दष्टा श्रयमिन्ः परमश्वरः, या 


9 पपाठकः || द्;पिकासदधितः। २१९ 


समागमस्तयारेव हद यान्तगते सुषौ | 
तेजस्तज्लाहितस्याच पिण्ड रवेाभयेस्तयाः॥ 


4 9 ~ - ~ -----~ - ---- - ~------ = ~~ --~ --~ ~ न~~ +न ~ ~ -----~------- 


दवता सव्ये वामेऽक्िष्ठवस्विता इईवमययेन्रस्य जाया पत्नीति 
याजना; उक्तञ्च ्टदारष्वे धन्धा दवै नाम याऽयं दकि 
णेऽचन्‌ पुरुषस्तं वा एतमिन्य! सन्तमिन्द्र इत्यानक्तते परोसेणः 
(०९) दति। जय यदः मेऽक्तिणि पुरुषरूपमेषास्य पल विराट्‌ 
(श्रद्‌) दूति ३! दयमनयोाजीग्रदवस्योक्रा। खप्रमार, समागम 
टृति। दंद्यान्तगतं रुतौ दद्र नाडोजालसवादटते तयारि- 
सेन्राष्छेाः ममागम एकख्थानेऽवस्यानं मिथने\भाव इत्ययः । 
तयारन्तददयाकारे सुत्तयास्तेजस्तजनं जीवनमन्नसमिति या- 
वत्‌, तद्य्ञोदितस्य पिण्डः परिणएमस्तद्‌गयोास्तयार ्रमित्यथैः। 
तया च हृदद्‌ारष्थकं (तयोरेष संस्तादा य एषाऽन्तरद्‌य 
अकागाऽयेनयारेतद्नं य एषाऽन्तदहदये लाडितपिण्डाऽयै- 
नयोरेतत्‌ प्रावरणं यरेतदन्तददये जालकमिवः इति यदन्नं 
पानञ्चोपयुज्छते प्राणिभिस्तददयंणाग्निना पच्यमानं स्थलम- 
ध्यमाणष्ठभागतामापद्यते, तच स्थुल भागः पुरिषम्‌तादि- 
रूपा बददिगच्छति, मध्यमम्ु नाडोद्धारा सवं श्ररयेरं रस 
लेदित्मांसादिरूपंण परिणम्याऽन प्रविशति, श्रणिष्ठस्तु मन- 
श्रादौनुपचिनाति। तत्या मध्यमा रसभागः स लादितपिण्ड 
इत्युच्यते तस शरोरख्ितिदेतुवात्‌, तयोस्तदन्नमिति, तु 
त्पयार्थैः। इद्‌ानों तयाः षञ्चरणमा्ममाड, दयादिति या 


श 


~~ 


२१८ मब्युपनिषत्‌ | [७ प्रपरठकः 


हृद याद्‌ायती तावचक्षष्यस्मिन्‌ प्रतिष्ठिता । 

सारणी सा तयानाडी दयेारेका दिधा सती ॥ 
.“ मनः कायाभ्िमाहन्ति स प्रेरयति मारुतं, 

मारुतस्तूरसि चरन्मन्द्रं जनयति स्वर ॥ 


नाडी दद यान्निगता तावद्‌ायतौ दौचा यावचक्तरताऽस्मिंखक्ल- 
षि प्रतिष्ठिता, सरताऽस्यामिन्दरेद्राण्याविति वा सारयत्टेताविति 
वासारणो नाम नाडो सञ्चरणमागभ्रता एकापिसती तयार्द- 
या; सव्यद् क्िणाच्चिप्रापकतवात्‌ दिघाच्यते इत्यथैः, ्रथेनयार्‌- 
षा खतिः सञ्च॒रणे येषा ददयादृद्धा नाद्यृचचरतिः (टदा) 
दति अ्त्यन्तरं । एवमनयाजीग्रत्छ प्रावस्यातत्छञ्चरणमागेा 
उक्राः। ददानीं सुञ्चिप्रात्निक्रमणावम्थाचयातोतं तुरोयं पदमेक- 
रसं तत्तमनयेव॑क्तव्यं तदिदाथादुक्रमेवेति मिद्धवत्कत्य प्रतं 
वेद्‌ाविभोावविषयं स्चाकजातमरदादरति “मनः ° एवमाङ्ः"' 
द्रति, उद्धद्धायवासनतचात्मविवक्तानुग्टदीतया वद्या नियुक्त 
मनः कायाभ्भिं शरौरख्ितमूग्ररूपमश्भिमादन्ति प्रवाधयति, 
स कायाश्चिमारतं वायु प्राणाख्यं प्रेरयति यापारयति घोषव- 
न्तमापादयतीत्यथः । मारूतस्रसि चरन्‌ सञ्चरन्‌ मन्रं खर 
घोषं जनयति, ततः खजाग्रियोगात्‌ नि्मन्धनकाष्टं खज 
इत्यच्यते, खजस्थानोयनाभ्िना यागेद्धुदि उरःप्रद्‌ओे सम्युक्त 
सम्यगालाड़तं तन्मारुतखरूपं मनादटत्परक्तं प्रथमम: 


® प्रपाठकः || दप्रकासह्ित्ग | २९९ 


खजात्रियोगाङदि सम्पुयुक्त- 
मरेद्णदिरणः कण्ठदेशे । 
जिह्ाग्ररेशे यणकच्च विद्धि 
विनिगेतं मात्‌ कमेवमाद्टः ॥ 


खन्मात्‌ क वलान्मारुताद्धि यस्ममात्‌च्रणगेव मनद्रसखरात्मकोा जातः 
सः, पनः कण्ठद्‌णे प्रघ दिरणर्धिगुणितं, पनजिंङ्धाग्रदेशे गतं 
अणक चिगृणितं विद्धि । एवं वित्निगंतं क्रमेणाभिव्यक्तं वणं- 
जातं, माटक्रं सव॑पद वाक्यानां धानिभ्रतगाङ्गरयात्मविद इत्य 
थः। दि सम्प्यक्रमणण द्यणर्दिरणरिति यदि पाठस्तदा 
हदि सम्प्रयुक्रमण तता दणेद्धिरखवित्यादि योाज्यं। इदानीं 
सवे शास्ताथे विद्धत््शंसामिपेणापसंदरति “न पश्यन्‌ ° 
सर्वशः" दति एतस्मिन्‌ शास्तयत्‌ तत्त्वं शब्दब्रह्मणः परस्य 
च ब्रह्मणिाऽनेकविधम्पपादितं तद्यथाक्रविधिनापायापेयभावेन 
पश्चन्‌ स्वानभवमापादयन्‌ यो भर्वति स स्टल्यु, संसारं पन- 
न॑ पश्यति न रागं पश्यति व्याधिं न पश्यतोत्ययंः। उत श्रपि 
दुःखतां दु: खमित्येतत्‌ श्राधिमपि न पश्यतोत्यथः। देददय- 
सम्बन्धाभावान्नाधिवयाधिप्ररङ्गा जन्म्ग्टत्यजरादि प्रसङ्गा वास्य 
सम्भवेदित्यर्थः। हि यस्मात्‌ पश्यन्‌ ज्ञानो सवं पश्यति सव- 
मायिव्याष्याखयद्‌ं विषयलेनानभवति न खधमवेनेत्यथः। 
यदा पश्यन्‌ टि ज्ञानी सवे सर्वात्मकं ब्रह्य पश्यति, श्रत 


सर्वशः स्वात्मना स्वं ब्रह्मात्राति त्रद्यैव भवतोत्ययः। तस्मा 
न. 


च्‌ म्य पजिषघत्‌। [€ प्रपाठकः 


इति मेद्युपनिषदि सप्तमः प्रपाठकः ॥ 
॥ सम्पणाऽयं ग्रन्धः ॥ 


~. ~--~-- ---.~ ~ ~~-------- ~~~ ---~--~ ----------~------~- -~ ~ = 9 =-= - -------- - --~----~ ~~ --------~ --~-- -----~ - - ---~ 


त्मनः पूणस ब्रद्यात्मना देतोभावा नानात्वं मायिकं न पर- 
मार्थमित्यर्थः । श्रभ्याम उपनिषत्समाष्य्यंः ॥०॥ 


इलि शओ्रीमत्परमदसपरित्राजकाचायं ओ्रोरामती्थविरचि- 
तायां मेच्युपनिषदौोपिकायां सप्तमः प्रपाठकः समाप्तः॥ 


नमस्तरी भगवते रामायाकुण्ठमेधसे 
येनान्तद स्येन नुद्यमाने विचेषटये ॥ 
विचारयाम्यदं नित्यं वदतत्वाथंमादरात्‌ । 
येषामनुग्रदात्‌ तेभ्य गरुभ्योाऽस्तु नमःग्रतं॥ 
मेजीशाखापनिषदां दोपिकयं महात्मनां 
श्रन्तवस्ववभासाय शयाद्‌ाकन्दुतारकं॥ 


०} सम्पणः ॥०॥ 
© 


सवापनिषदथैनुम्‌ तिप्रकाश्यैय- 
द ्माऽध्यायः । 


"=~~--~-~-~----~------ -----~- ---~----- ~~ 


सैवायणोयनान्नो या ग्राखा सा याजषौो मदा) 

तेषां शाकायन्यम॒निवाघयामास श्डपतिं\९॥ 
छृदद्रयः खस्य राच्ये पत्रं संस्थाप्य निगतः। 

वने मदन्तपस्तघ्चा पिद्याथं मुनिमायचौ॥२॥ 
अशाश्यते शरोर मेकद्‌ा यायात्‌ ततः परा। 
ज्ञास्याम्यात्मानमात्मज्ञोा म॒निमां बेघयिखति॥२॥ 
दृत्यभिप्रेत्य साष्टाङ्गं प्रणिपत्य सुवि स्थितः| 

दृणणेष्व वर्‌मित्युक्ता दतवानात्मवेदनं॥४॥ 

राज्ञां भागप्रघानानामात्मज्ञानं सुदुःशक। 

टणणोष्व कामानित्युकतः स मनेः पाद्‌मथ्रदोत्‌॥१५॥ 
पादं खमष्यंवस्थापय खवेराग्थं प्रकाशयन्‌, 

आधारो करणे दाषानवठाचद्धक्रभेाग्ययाः॥ ६ ॥ 
भागाधिकरणं देदस्तस्य दाषा इमे स्फुटाः 
अस्थिचमस्ञायमज्जामांसप्रएक्रादयाऽखिलाः॥ ७॥ 
बोभत्साकारणेष्वेषु मनज्नता मुज्यते कथं। ॥ 
वियपणंेखाते मद्रः सन्‌ सुद्ध केऽपिन बृद्धिमान्‌॥८॥ 


२२४ 


च्पनुभ्रतिप्रकाशः | 


परा त्वविद्ययाऽऽच्छनद्‌षाऽदं सुक्रवांस्ततः। 

बाला विमूढा यत्किखिदद्यादिष्ठादिकंयया॥< ॥ 
मागाधिकरणे दाषा श्रासतां भोगसाधनं । 
चिन्तेऽपि बद्वा शषा वतन्ते डि निरन्तर ॥९० ॥ 
कामक्राध्ची लाभम विषादेग्यौमयाद्यः। 

ये सन्त गर स्तचित्ते मागिनः किं खुखं भवेत्‌ ॥ ९१ ॥ 
यन्तां भोाक्तदोाषाञ्च भाक्तार बद्वा मताः| 
देदाभिमानिनोा जोवा उत्तमाधममध्यमाः ॥१२॥ 
दरिद्रा अधमाः ज्ञेया मध्यमाखक्रवतिंनः। 
गन्धवाद्या उत्तमा स्यस्ते सवेऽपि क्षयिष्णवः ॥९२॥ 
उत्यन्नध्वंसिना यद्वत्‌ स्यदेशरमश्काद्यः। 

तथैव सवै भाक्तागा चिचन्ते खायुषः त्ये॥९४॥ 
भक्ता न सरियते किन्ते देड एवेति चच्छण), 

दे दम्धस्येव मेक्त्वं तन्नष्ेदपुषा सड ॥९५ ॥ 
दरिद्राणणं मागरेतुःखोग्डत्याख न सन्त्यय) 
सुद्युन्नप्रमखानां ते विद्यन्ते चक्रवतिनं ॥ ९६ ॥ 

दति चेत्‌ सन्त्‌ सवेषां मिषतामेव मध्वगः। 

खिमतं चक्रवत तं सन्त्यज्य मदतीं ियं॥९७॥ 
अन्तघधानादिशक्रिश् गन्धवादिषु विद्यते। 

विद्यतां नाम ग्टल्युस्त॒ तषां शस्तेषु कथ्यते ॥९८॥ 


| मोत्रणणं नगराणां का भागः स्यान्मत्टं चिन्तया । 


प्रयाने गुवि ना कञिन्दमृणु धनमिच्छति ॥ १९. ॥ 
) 


अनुभृतिप्रकाश्रः | २२५ 


तिष्टत्वसेः भोक्षं भेग्येऽपि श्रुयतामयं । 
स्धिगियादिकं सवं नश्रर किमृततरत्‌ ॥ २०॥ 
दोषान्‌ सेदु सछृहुक्तः संसारो नश्यतीति चेत्‌ । 

न, भागेराशितस्यास्य संसारषटन्तिदशंनात्‌। ९९॥ 
भागकाले कतं कमं कुता जन्मदद्‌ातिनेो। 
अन्धकूपस्थिता भेक दवादं संखतिखितः॥२२॥ 
संसारकूपे पतितमस्म्'दुद्धृतुमदंसि। 

त्वमेव गलिरसश््ाकमन्या काऽपि न विद्यते, २९, 
राज्ञोऽस्य तोत्रवेराग्धात्‌ दष्टा मृख्याधिकारितां। 
तमादइ छतरत्यस्व मात्मज्ञाऽसि न संशयः २४॥ 
यज्ञदानादि छ्य ते जातं विविद्षिद्यात्‌। 
सफलं न एनः कम कतव्य तेऽत्र विद्यते ।। २५ ॥ 
विषयासक्रिरेवास्य ज्ञानस्य प्रतिवन्िका। 

एवा तु नास्तिते ज्ञानं दस्तप्राप्रमिव खितं ९६ |, 
मंमारदेयतां वृद्धा त्यक्तं तस्मिन्नशषतः। 

याऽ्वाश्ा भाति माऽचमेवात्मेत्यवगच् भोाः। २७ 
अवशिष्टा य ्रात्माऽमसावदमिल्येव गम्यते। 
मतभेदाददम्बद्धिनङ्ष्वस्यच का भवेत्‌। २८॥ 
ददः कता चसक्तोतिच्या वादिभिरोरिताः। 
श्रात्यानस्तेषु कतमे भवताऽभिमतोा वद्‌ ।॥२९ ॥ 
मा च्यात्माऽभिमता नान्यो तयेद्‌ाषास्वयेरिता;। | 
संसारान्तःपातिनैा ता न तयार्‌त्मताचिता।। ३० र 


=^. 11 


नय अनभतिप्रकाग्राः | 


चाक्षषव्यवद्ागेऽस्य भासकत्ेन साक्िता। 

विवेक्तुं शक्यते तस्माद च्ुपाघे समृच्यते !। २९ ॥ 
देदमध्येऽस्ति इत्यदमं नाडोयृतमधमृखं । 
नादडस्वद्मधघश्येतं ददं व्याप्य व्यवस्थिता; ।) ३२॥ 
अदङ्ारोऽच चिद्युक्त कता भोक्ता दि शितः। 
मनाऽन्तःकरणं स्थित्वा दि त्या बद्िनजेत्‌ ॥ ३२ ॥, 
र ग्सिवत्प्रखता लृत्तिनाद्याश्राव्यल्तिगालकं, 

असखतन्ला बद्िखच्चरि न्येण सद व्रजेत्‌ ।! २७ ॥ 

ट त्यवच्छिन्नचेतन्यं घटाकाश्वदेतया। 

छक्त्या सद बहिगत्वा तचाज्नानं नदेत्‌ लषणात्‌ | २५ । 
तद्त्यागमनात्पूतरमन्ञानेन समातं, 

वाद्यं जगत्‌ तदज्ञानं तया दच्याऽपसायते ६ \ 
वर्तिना यथया दीपस्चमा नाशयते तया। 

चेतन्यं दरत्तिनिष्ठं यत्‌ तद्‌ हानस्य नाशकं ॥ २७ | 

एष दनजिषट चैतन्यपद्‌ायाऽच्छछा बह्दिर्मतः । 

व्याप्नुवन्‌ निखिलं तच व्यया ना्राति काञ्चन । दे ॥ 
मरतिक्रलात्‌ तु विषयाद्याव्ययासा तुमानसो। 

न चैतन्यगतेत्येवमाचायाः स्यष्टमन्रवन्‌ ।। २८ ॥ 

दःखी यदि भवद्‌ात्मा कः सात्तो दुःखिनो भवेत्‌। 
दुःखिनः सारता नेवं साक्षिणे दुःखिता तथा ॥४०।। 
नते स्यादिक्रियां दुःखो सा्िता का विकारिणः। 
घोविकक्रियासदस्ताणां साच्यताऽदमयिक्रयः। ४९॥ 


ष्मनुभूतिप्रकाशः| २२७ 


य: सातौ चित्पदाथाऽसा जीवात्मा तस्य जीवता) 
दद्ूरेण लादाक्वथ्वान्तेव परिकल्पिता ॥ ४२ ॥ 
वाघयित्रा जोदतल्वं जोवस्य बह्युखूपतां ¦ 
बेप्धयामास सोाऽव्वात्मा सेन रूपेण तिष्टति ॥ ४२॥। 
+त्साऽदङ्ारदेदाभ्यां युक्तः कलृुषितः पुरा) 
विवेचितः म्धुलदे दादौोषदटव प्रसोट्‌ति।। ४४ ॥। 
ॐदद्ारारद्रिविक्रखंत्‌ तदा सम्यकं प्रसोदति। 
अआधिव्याध्यागःकालय्छ न चिन्मातेऽस्ति किञ्चन ।) ४५।। 
एष साची मम्प्रमाद्‌ा देदद्यममत्थितः। 

शरास्तरसिद्धं पर ब्रह्यमज्यातिः भराग्राति वाक्यतः) ४६॥।। 

मन्ताऽन्यद्रद्धय परमं सखेप्रकाशमिति भ्रमः) 
युरासोत्‌ तत्वमस्यादि वाक्येनामेा निवतेते।। ४७॥। 

अन्रह्यलभ्रमापाये च्यातिःप्रा्चिरितौयते। 

तताऽय ब्रह्मण" स्वेन रूपेण व्यवतिष्ठते ।। ४२८ ॥ 

एवं व्यवस्थिते याऽसावात्साऽनुभवगा चर; । 

सएव म्टतिभोत्यारिरद्ितं त्य नेतरत्‌ ।\ ४९ ॥ 

श्रवणं मननं ध्यानं विद्याया; साघनचत्रयं। 

अन्नानं संशया भ्रान्तिरित्येतषां निवतंकं 1 ५.० ।। 

गरूपद श्रवणाद्‌ ज्ञानं विनिवतते। 

उपपन्तिपर्‌ामशात्‌ संभयानां निवतेनं। ५९॥। 
निरन्तरध्यानतस्तु नण्यति अ्रान्तिवामना। 

गजंम्ते अवशं जातं मननं कर्‌ यन्तः! ५२}, 


~ 


२२८ व्मनभ्दतिप्रकाश्ः। 


म्रमाखे सम्प्रदाये वा तच्चेवा संश्रयो भवेत्‌। 
उदितेऽनदिते वेति दामः शास्ताददिकल्ितः।\ भर्‌) 
न तथा ब्रह्य विज्ञेयं सवापनिषदौोरणात्‌। 

न प्रमाणे संगशयाऽतः सस्प्रदायऽपि नास्त्यसेा । ५४॥ 
श्राखाप्रवत॑ंका मेचा मद्यमाद न चापरः। 

साऽपि किञ्िदुपाख्यानम्‌दादत्य ममान्वोत्‌ ॥ ५५ 
तत्वस्य सं शयेाऽपेति तद्‌ास्यान मिद्‌ प्रण । 

मनयो वालखिल्या ये ते प्रजापतिमन्रुवन्‌ । ५६ ॥। 
श्रचतनं शरीर तत्‌ कन चेतनवत्छतं। 

प्रेरको वास्य का ब्रूरीलुकः प्रत्यत्रयीदमे ॥ १७॥। 
वेदानाम॒न्तर्‌ भागे श्रूयते परमेश्रः। 

ख करोत्युभयं तस्य ताच्िकं रूपम्‌ च्यते ५य्॥ 
श्रक्नानमिश्रणाभावाच्छद्धः पापविवजनात्‌। 

पता रूपेण नाम्ना च होनताच्छन्यम्रच्यते। ५९ ॥ 
प्रान्तः क्राघःदिरगदितव्यादप्राणाऽचष्टकत्वतः। 
दैशत्वापाधिरादित्यादनौशात्मा खता भवेत्‌ | ६० ।! 
कायापाधिरयं जीवः कारणापाधिरीश्यरः। 
कार्कारणएतां दत्वा पूणबेाधाऽवभभिव्यते।। ६२ ॥ 
देशात्‌ कालादस्त्‌तख परिच्छद्‌ विवर्जनात्‌ 
श्रनन्ताऽपक्तयाभावादक्तय्याऽचलनात्‌ स्थिरः ।। ६२॥ 
नित्यस्फृत्या शाश्वताऽयमजे जन्मादि वजंनात्‌। 
स्व॑तन्त्ा न पर्‌ाघोनः सखमद्िन्त्येव तिषनि।।! ६२॥ 


अनमतिप्रकाशः | २२९ 


मदिमाऽऽख्यखूपलग्दखण्डेकरसात्मतः ` 
श्राघागान्तररादित्यःत्‌ स्थितिरजापचयते।॥ ९४ ॥ 
अनिच्छस्येदटरशस्येनद्‌ दनिवदणं कथं । 

दति चेत खांशरूपेए दे देऽवस्थाय निवेरेत्‌ ॥ ९५ ॥ 
स एवाक्ता देद्माक्तो विदद्धिरनुग्धेयते। 

नेतरैः खलच्मरूपाऽयमिद्धियाविषयततः ।। ६ ई ॥ 
पूण॑लात्‌ पुरुषार्छाऽमा दरे खां्रेन वतते । 
वुद्धिपूवे यथा सुतः लेच्छया प्रतिनुध्यते। ६७ ।\ 
्रध्यापकः प्रद्‌षेषु मध्यरात च बृध्यते। 

सेच्छया परमात्मापि तथा ्वांशेन वरतंतां ।॥ ९८ ।, 
प्रतिदेदं तु चिन्प्राचा घराकाश द्‌ खितः, 

ददं सा्तितिया जानन्‌ च्तेचकज्ञ दति कश्यते।। €< ॥ 
मद्धःन्ाध्यवसायाभिमानेरेषेाऽनभोचतां । 

सर्वर सेरूपेतलात्‌ सङ्धन्पाद्यस्य सम्भवेत्‌ ।॥ ७० ॥ 
तेनावच्छिनचेतन्यरूपणेदं वपस्तया | 

चेतनोकृत्य कायषु प्रेयतेऽचयर्यया रयः ।। ७९ ॥ 
अरखण्डेकरमस्वांशा नेति चेच्छयतामिदं। 
अ्दण्डेकरमात्पैव माययेश्वरतामगात्‌।। ७२॥ 
मायाया श्रनुतवलेन नाखण्डतवं निरुध्यते । 

मायायां खच्छरूपायामात्मास प्रतिविम्बति ॥ ७२॥ 
तदुपाधिक दैशेाऽडत्युष्टः प्रागेक एव सः । 

रता नारसतेकाकी राजामात्यादिका यथा। ७४}! 


२२१ 


्नुभृतिप्रकाशः| 


दयुतक्रोडामिवेोऽमा रुष्िक्रोडा मवैक्तत । 
द्रव्यान्तरमपाद्‌ानमदृष्ूा सव्यचारयत्‌॥ ७१५॥ 
बद्ध स्वामदमेवाच् प्रजारूपीति चिन्तयन्‌ । 
देदानष्टजत ब्टलान्‌ पाषाणप्रतिमा इव।। ७६ ॥ 
खयमेव यया खभ्रे गरिनद्यादिरूपतः। 

कन्तिता भाव्यसावात्या भाद्यैवं बद्धरूपतः ।। ७७॥ 
ज्ञानक्रियाशक्रिदीना देहाः क्रीडायमत्तमाः। 
द्त्यालाच्य क्रियाश्रक्रिः प्राणा श्ूतलाऽन्तराविशत्‌।। ७८।। 
स्ासाघागत्यन्नमाग्दाद्ारादिव्याञ्चिसिद्धये, 

पञ्चघा यभजत्‌ प्राणं प्राणापाधिक ईश्वरः ।। ७९ ॥! 
उपा खअन्तयामसज्ञा यदा दै सोमयाजिनः 

नियते तददुच्छासनिःश्ाै प्राणिनामपि।।८०॥। 
लादकारः खरस्ताभ्यां पयायेण दृतिदयात्‌। 

वद्धिं ज्वालयते यदन्नाटरोा उ्वादखतेऽनलः ।। ८९ ॥ 


निश्वास च्छासंसंदोप्ा मुक्त पाचयतेऽनलः 
ईशस्य जाठटरात्चिलाकारोा भगवतेरितः।) ८२ 
"अदं वेश्धानरो शता प्राणिनां देदमाभ्ितः। 
प्राणणपानसमायक्तः पचाम्यन्नं चतुविधं"॥ ८र्‌॥ 
कणे पिधाच घेषं चं प्णात्यन्ः सजाठरात्‌। 
वहेजाते ममूरस्त॒ नेनं चोषं प्टणति दि ८४॥ 
ग्रच्छणेपेतः पञ्चविधः प्राणे लिङ्धाभिधं वपुः । 


प्रणापाधिकं चिद्रणा ज्ञानश्रत्नापि य॒ज्यते।॥ ०५) 


सनभूतिप्रकाशः। २२९. 


ततेः मनामयो रला सत्यसङ्ःन्यतां बजेत्‌ | 

यत्‌ सङ्कःल्ययते जोवस्तत्‌ करोत्येव सवया ॥ ८६ ॥ 
हदि स्थितेऽमे शब्दादीन्‌ शु्नेऽदं विषयानिति। 
सदुः र््याक्ताणि खटा तेसु ङक रेविषयान्‌ सदा ८७ ॥ 
देदा रथः पञ्च दयास्तस्य कमद्धियाणि दि। 
ज्ञानद्धियाणि यानिस्छस्तानि बन्धनरज्जुवत्‌। ८्८॥ 
मनोऽ सारयिः सर्वरवच्छिन्नरतां त्रजेत्‌। 

चिदात्म' चेतन ददं कला प्रेरयतेषद्‌ा।्९॥ 
तस्यापाये ग्टता द्‌रहाऽचेतना न प्रदतंते। 

चिदशस्य प्रेरकलं त्रबोति भगवान्‌ स्फटं। ^° ॥। 
"ममेर्वांगे जोवलाकं जोवभ्रतः सनाननः। 
मन:षष्टानद्धियाणि प्रज्लिस्थानि कषति'।॥ ९१ ॥ 
श्रवव्छिन्नखिदात्माम खता नेच्छति किञ्चन। 

न मुद्ध सुखदुःखे च तस्मिन्‌ नारोप्यतेऽखिलं ॥ ८२ ॥ 
सवंष्वपि शरौरेषु भाति तद्ध्‌मवानिव। 

न तिष्ठति खतस्लेषु नापि तद्भूमसंयतः।। ९२ ॥ 
ज्ञान न्धियेनं दृष्ाऽयं गादयः क्मद्धिघेनं च। 
खट पमे छा द यक्ता वेद्‌ान्तेर ववुध्यते ।। ९४ ॥ 
निममलात्‌ सवेगाऽपि शरोरेषु च तिष्ठति, 
अकतानभिन्ञेस्तु कत्वासे विभाव्यते ।॥ ९८५ ॥ 
वेद्ानामुत्तर भागे इत्यादि ग्रन्यवर्णित। 

आत्मनो वास्तवं रूपं कटं नास्य विद्यते ॥ ९५६ ॥ 


२२२ अनभदिप्रकाश्रः | 


म सवापनिषद्सिद्ध एष इदुपलभ्यते। 

प्रमद्धः स्थिरोऽचलेा नास्य कमलेपेाऽस्ति कश्चन ९ ७9 
्रव्यग्रा निस्पदस्हष्णोमदासोन दव खितः। 

स्वस्था विदेपरारित्यादित्यात्मानं प्रपश्चत। <स) 
ईदगाऽपनज्ञदृच्चाऽोा सच्चादिगणधारिणण। 

मायापरेन सञ्छन्ना सुद्ान दव लच्छते।। ८९), 
दूत्थं वोाधितवानष वालखिल्यान प्रजापति 

तत्वं बद्धाय पग्रच्छः कः संसारोतिते गर्‌ । ९०० ॥ 
यतां परमात्माक्तस्तसम्ादन्याऽस्ति कश्चन । 
च्धतात्मास्या निरु्टाऽयं पुष्छपापफलंयुतः ॥ ९०१॥ 
विप्रचचादरिमद्धानिं खवरादादिकामपि। 
असद्योनिमवाप्नोति श्लाके जन्म चेत्‌ तदा ।९०२॥ 
न्यच जन्म चेत्‌ तदि पष्येन खगम्यत। 

पापेन नरकं दद्धरमिभ्तः परिभ्रमेत्‌।॥१०२॥ 
मानावमाने शीताष्यो दन्दानोत्यादिकानि दि, 

सा भ्रतात्मादितः साऽय विस्पष्टमभिधघीयते। १०४ 
छपञ्चीछतम्डतेयव्जातं खच्मवपद्दिं तत्‌। 

श्रतैः पञ्चीहृतेजातं यत्‌ तत्‌ स्धूलमिदं वपः ॥ ९०५ ॥ 
ज्ञानात्ताणणं क्रियात्ताणणं वायूनां पञ्चकचयं । 
मनोाऽदद्धार इत्येवं लिङ्ग सप्रदशात्मक। ९०६ ॥ 
अदद्धार तिके यदतन्ये प्रतिर्विखितं। 

सं भतात्याऽय बिद्धिम्बं निलपं ब्रह्य कश्यते। १६०७॥ 


अन्‌भतिप्रकाशः। २३३ 


क ५ 


भूतात्मा प्ररतेजारेगलेरषाऽभिग्धयते। 

तमे गृणाभिश्रतवात्‌ खात्मस्यं ब्रह्म नेषते ॥९०य्॥। 
श्रधि्टानतया ब्रह्य श्तात्यन्यपि तषएटति। 

पद्मप नोर विन्दरुरधिष्ा वतेते यथा ९०८ ॥ 
ईैदुशाऽपोश्वरो मायाय॒क्तः सन्‌ प्रेरयत्यमुं । 
भ्रतात्यानं स श्तात्ा अिविनक्रौश्रर न तं॥१९८॥ 
सद$षयिकैः सत्चगगोदरूतैः प्रटपनि । 

उद्रकं रजम. साऽय कलपोक्रियते उष्टं ॥ ९१९॥ 
तदानीं मतिचाञ्चन्छात्‌ लृयत दयसिलाते फलात्‌ । 
रषिं प्रक्रम्य तां त्यक्ता तपः कुवंस्यजद्‌ द्‌: ॥ ९९२ ॥ 
तत्तत्पाले सस्यहत्ाद्‌ व्यया नाप्रेत्यमेा फलं । 
श्रदङ्धारेण बद्धः स्यात्‌ जालेन विदगा यथया ॥ १९३॥ 
संसारभ्रमण तस्य प्राक्त शाखान्तरेष्ठपि। 
करणएव्रेरकः कताभ्रतात्मा संमरल्ययं॥ ९१४ ॥ 
चेतन्येन दि पृणन मेाऽन्तव्याप्ररूतञ्चिति। 
भ्ान्यारपेण संसारस्तचासान तु तास्तवः॥११५ ॥ 
दृ्टान्ताऽनाच्िना वाप्ना स्ादपिण्डाऽभिधीयते। 
तक्नलोादं मुदरेण तं वद्धविधं भवेत्‌ ॥ ९२६ ॥ 
दद्र चिदाभासो श्वतात्मा साल्तिभासितः, 
दन्यमानो गुणः स्वादिभिर्वविधे भवेत्‌ ॥ ९९७॥ 
यज्जन्म यानिलच्ताणं भवेत्‌ चदुरशोतिषु। 

माऽयं बद्विधा भावे सेदं दाचकुटारवत्‌॥९९९८ ॥ 


+} 


क. 


सनम्तिधरकःष. | 


कुलालेन या चक्रं तथा मायाविना गृणा: 
सत्वादयः प्रेरिताः स्वस्ते जन्रान्यनेकधा ॥ ९१९ । 
लेादेग्द्ररघात्न नाग्रवाघस्तया गुणः। 

ग्तात्मपद्र वणप मालिण नास्त्युषद्रवः॥ ९२० ॥ 
एकेकद्‌ द नरका भवेत्‌ श्टतात्मना मदान्‌ 
म्यनाद्भूत्यादिदाषाः प्रसिद्धा एव दद्िनां॥१२९॥ 
दद देषा यथा चित्ते दाषास्तददनेकशः। 
सन्मोादाद्यास्ताममाः स्यस्तष्णाद्या राजसा मताः ॥ ९२२॥ 
श्रतात्मा तै: एरितः सस्लेल्तेस्लताससराजमेः। 
कम॑भिबंङ्घा देदानवाप्नोति पुनःपनः ॥ ष्र्‌ ॥ 

श्रवा संसारिणं वालखिच्या विस्मयमाययुः । 

संसारस्य प्रतीकारं पप्रच्छमुनयः पुनः॥१५९४॥ 
फाम्रद्भूतात्मता येन वचिद्‌त्मलं तु गव्यते 
तमृपायंगृरोा ्रहीत्युक्तः सन्‌ गृरूर्कतवान्‌ ॥ ९२५ ॥ 
नदुम्धादिकदृष्टान्तैः संसारस्याप्यनिष्ठतां | 

मिथ्यात्वं च विनिखित्य ब्रजेत्‌ ज्ञानाधिकारितां ॥९९६॥ 
या वदनारिता विद्यासा शता््मप्रतिक्रिया। 

तप! यागः स्तुतिवेघधसखोक्तं वद्‌ चतुष्टयं ॥९१२७॥ 
खाश्रमाचितधमायः म एवास्य तपो भवेत्‌ । 
शान्ताः स्वभा ददर ष्णा द्ास्तेन तामसराजसाः॥ ९२८ ॥ 
तच्छान्ता सत्वः स्यात्‌ सत््ेनैकाग्रता धियः । 
नयाऽऽत्मतक्व नुभवस्तता मुक्तो न संसरेत्‌ | ९२९ ॥ 


अनुभूतिप्रकाश्रः। २२५ 


निरिन्धनाश्चिवत्‌ चित्तं शास्येद्योगेन कारणे। 
मंस्कारभाचयेयलात्‌ न धोः संसतुमदति॥९२० ॥ 
तदानीं जो वदेतन्यं ब्रह्मण्छेको भवेद्या । 

जले जलं व्हिर्चै व्यानि व्योम सितं तथा ॥९२९॥ 
श्रदैतमनश्चयासिन्‌ समाध व्युल्यितः पुनः । 

स्तुवन्‌ सवात्मतां तस्य न्रह्मणेाऽनुसहारत्‌ सद्‌ा ॥९३२ ॥ 
कत्म मुनिय॑यारस्तोषोत्‌ वं न्र्ेत्यादिना तथा । 
स्तुवन्नपनदद्रेततासनां 'चरमाञ्चितां॥९२३॥ 

योगाद्‌ द्वैतविज्ञाने वासनायां सङ्खये। 

सन्त्यज् जोवताभ्नान्तिं परमात्मलमाध्रुयात्‌॥ ९२४ ॥ 
सा भ्रान्तिस्तमसा जन्या तमस्वासितनात्मनि। 
पगरमात्मलमाद्रत्य कल्पयेत्‌ जोवताभ्रमं॥ ९२१ ॥ 
यद्‌ावरकमज्ञानमात्माऽम्मिन्‌ प्रतिविम्बति। 

दैश्रः प्रतिविम्बाऽमेा ख्च्यादीनां प्रवलकः।॥ ९३९ ।। 
यदज्ञानं विक्रियते भवत्येष तमोागष्एः। 

दृ-्थमानं जगदिदं तम एवाभवत्‌ पुरा ।। १३७ ॥, 
दगोन प्रेरितं तत्‌ स्थाद्रजा जलतरङ्गवत्‌। 

रजेप्ऽपि प्रेरितं तद्त्‌ सत्वमवं गदःत्य*।९२८॥ 
समष्िरूपोाऽदङ्धारः सत्वात्‌ सारः समृद्धूतः, 
चिद्धिम्बप्रतिविम्बाभ्यां यक्ताऽमे चेतने भवेत्‌ ९२८ ॥ 
प्रतिदेदं व्य्िरूपः क्तेचज्ञत्ेन तिष्ठति ¦ 
स ग्‌ गच्यमि{ति पाठान्तरं : 
(4. 


२२६ अनभरतिप्रकाशः | 


सदुः न्याऽध्यवसायश्च देदे तत्सत्चसाघकः।।\४०॥ 

दिरष्यगभा वेदेषु समशटिव्यषटिरूपधुक्‌। 

श्रयते यः ष खजत्मा प्रजापतिरिद्ादितः। १४१९ ॥ 

तस्य ष्टास्या देदाः ष्टयन्तस्थितिदतवः । 

ब्रह्मा रुद्रो चिष्णरिति गणचयसमङ्गताः ॥ ९४२ ॥ 

या यत्‌ जति लोकेऽस्मिन्‌ ब्रह्मा तत्राभिमन्यते। 

नाशाभिमानी रुद्राऽयं विष्णः स्थित्यभिमानवान्‌ ।॥ ९४६॥) 

प्रजापतिस्तिधा शला स्याऽपि बहधाऽभवत्‌। 

वसुरद्रादित्यमेरैगिरिनद्यादिमेदतः।॥१४४॥ 

्रात्मन्यध्याराप एवं प्राक्ता मादयाविनिर्भितः। 

श्रात्माऽधिष्ठानषूपेण प्रविष्टः सवेवस्तुषु | ९४१५ ॥ 

द्त्यं विवेचितश्वात्या मात्याधिक्येन पालकः, 

नाधिष्टानं विना किञ्चिदारोष्यं वाध्यते कचित्‌ ।९४६ ॥ 

श्रारापितख सवस्याधिष्टानं तन्वम च्यते | 

तस्मादन्तयडिश्चात्मा स्वितः सवेषु वसषु | ९४७॥ 

प्रजापतिदालखिल्यान्‌ मुनोनेवमवृबुधत्‌ । 

ग्रकायन्यः कथामेतां राज्ञ प्रावाच घौमते। ९४८॥, 

वैराग्य परमात्याऽच जीवात्मा माघनानिच। 

तपा यागः स्तुति्वौध दति सवै अवसितं ।। १४९ ॥ 

शाकायन्याय भगवान्‌ मताऽखिलमुवाच द। 

तत्‌ सवमनुग्हातु विद्यातोयमदेश्धरः ॥ ९५० ॥ 
दत्यनभ्रतिप्रकागे मैचरायणीयोपनिषदधिवरणं द्‌ग्रमेऽष्यायः) 


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प्त1९, 016, [्ट्हपा, पाद्धकछर+ ४, ०], वणत्‌ 9] ऋ्णत्‌8 ग १1868868 
06७प९७, 98 8 प्रट्णऽप्ा'€-10 प86 फा फलम, (4) 

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धाऽ, 16&्ा०ा71€68, फक, काला, 1द्पगाक्षा९6, लार, गालशला९88- 
1688, 1011, श्ा161688116889 11768गुप्रमा, = 19817116889 01616889 
{11686 216 6 €8#8 ° (€ वपाक ग ) वक्चषत्ा688.# = [ऋन्लिाभ्‌ 
{¶11187, णि7त्‌76889 10०वा12६6 शिद्कणा, (0रला0पऽ688, 11216066166, 
10९९, 18्6त्‌, काड्डाापाक््ग), 6ममपऽङ, एपाध688 16€8116881688, 0801166, 
दडल{लफाला+, लोपो, [पाइप ग कल्क, दग्ालााश््नाौो ग प्ि्ात्‌8, 
५९९०१७९९ 0 00618 शि], कण्लाभ०४ ६0 प्त68716त इलऽपधथ््‌ 
०ए76न8, {भल्ला ४0 0086 १७७6, 08वप नत्र, 190688-8९ धशा 
110--प्1€8€ 9€ (€ ६८8 9 (16 वभा 9) [9डडना. ४1४ (1686 
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80] &ञ8प्रा168 ०८8 गि78---98ऽप्रा)€8 ४8108 01108." ” (5) 


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17 प्र्लिः कषफोकटलााला श)]109९06त [रा क्त्‌ 8210, 6) 24012016 016, 
` 0] ४0 66} ५१० पाण चचदोा पः परिल ; ताल6 18 706 कलः 


# 77 &. 4 € ल्श 1एष्लृध्ाधाङ्‌ 6०णा९८६6त्‌ ज# +€ हा ०88 0 मशाः९ लाप्ा०€- 
79160 ; 0ल€ € 1856 11086 ९०००९6४९ पाधा € पत्री ए०कङ्. 
` #¶ ए € कृल्काण्णड लवोशुलः 1८ 088 एत्य शल्या प 06€ गाल उकण, वल्ल 
ध [पा ऋणष्धाद्क८७ भएल्काह ४0 06 प0वक्ष16 प्ोतणपषठप प प०ा-कष्यताफण- 
प्रिमा ग 1४8 काश््पाऽ€, ४€ लल्ला हणप, वत्‌ 7 (ज्ण्त्वृप्रलणतङ 968 0 € 


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71606 णिः 5. प्र 18 पल प्क्मोलाः 0४ कला च बलारलाभू इ], 
708४९778 68९१6 पणि प्5 (लणावाध्रम) कौक्षिफऽ #0 (नपुप्पाठप्रम ऋता 
{11€ 80पा ?'” वप्ऽ 116 शृष्€ ४ पाल्या; (1) 

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1778 18 18 ]20४-लात्‌०कस्व्‌ जिता ; एक्पा0091, रप्ता-9, पए्रशप्ा,-- 078 
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८८४८ 0१९९-8 18 105 00 -6040 कलत {00 ; 16 160, {06 
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९/०८5, 5000-8 18 1४8 फ०]त-लात्‌०कत्व्‌ प ; ॥6 1088, +€ 
76४, धल पि््ा०--प18 18 168 प्रा06-लातठम€त्‌ लला ; ल्क, 71९, 
16 8घ्ा,--118 18 1४8 [068-60त0९व 0) ; 004, 16 8 1€8, 116 
11000,--118 18 1४8 111.6986-6140९व्‌ {00 ; 10ल्वाद८, कात्‌, (णा- 
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०४411098 18 118 7472-लात्‌०क९त णा. व 0नटणि€ $ € णि6९- 
8210 71 6 {17686 णि्08 986, जणा] €व, ४8८7064. § (118 
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@, ४८, 2, 85 कक्ा+8 0 तक, कत्‌ पऽ व€ नह की एल्ल्णण€ह ववहणफत्व प्णप् 
©8<11 ता ५ 6४01000," ९. ; 876, 06066, 6६८17 9 ४०686 णिध08 28 10 € 19607. 
1६९ ना ४5 ६ ताऽणद्ुपशाण वपन्याप् ग ४०८ ए0९-4 वाक्त ऽण्‌. 2. 

§ 8५. ध्भाऽलि6व 0 ४€ ९११६-4. ता्ठ 2 90] &8 108 क्प एपा€8 

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उ्भद्षाण४, (िक08 सपूक्ष0ऽ नण व््डप्णा ४8 प्रलद्हु करभार भणतु 


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09.17 17वान्वे 778 शला (०पऽलंठपशा€88, पर््लिःहत्‌ ऋ गतलः 116 
पए०1प्‌३, 6/5, 6५८०8, 5९०८, 0686 96 रि ुकष0918 1088686 107, 
116 ०14-लशात००९५. 6५८ 18 11€ 11९8त्‌ पलल, ९4४८१116 78, 
605 {116 ६्&† #€ इण) ध्ो6 @€. 06 ात6 ०6 ग 06 8०ण। १८ 
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४110 १681768 1116 8प्र,--80 श्च पलक 10 त6ल्लुक्ष© शपथ तारण 
1600९. ^ दभा, ९070० ९९८८&न 04000402, --^ [ला© ,500207 18 176 
पलापः (९८), कलटा0ि6 [ प6व्‌ा806 01 181 [760 28 ८शाल्व्‌ 1४8 
0404209 -80 ल धकृ ए]9 वृल्लुक्नाट शृपक$पश्च [ताठश्‌न््‌९९. + छना, 
८40 &० १48 774८10दबक‰ुदक+--; 1616 क0द/40 = प९द्षा8 = णप्रदठो08,-- 


(7) 18 116 रलााला८ ग पो€ गड 9०त्‌ [0/ा16वक्€ ग 176 इपुलागः 90 [लिंग 
क्प. 

*# (176 §6ाण्‌. षत 5 उव्वा -तदरकययू ४8 8 इलशुधि 26 लृ8७९,--५ 16 
190४४ #€ शशभ पाती काः ९88९6 त 106 फणःात्‌ (स प प४{ा€त्‌)."१ 

† {४6 €€ ण € णात 38 ४6 इपा. (06 इतण, ताछकड कपा 2 जि फप 
णाप #1€86 [1168 ;--17€ €€ (8९. ध्6 प्ण) == प्रप, कपौ शि धपा (866 
10६6 # &10९€), .". प्6€ ऽप्रा == लभ धृध्््‌. 

{ 06 णत्‌ 18 2080ा१6्त्‌ ऋ € पा तिमा 1४8 [0६ पफारलऽणा ९०ण्यताह 3६; 
116 शपा 28 8080 ए6वे 7 पल णात्‌ एल्लमा86 कण्ण ल त० पर वाड्‌) ४९- 
लल) ४116 117६ भत € 0१८8 कोठो 7 आणपपर९8 [7 शम्‌? फ 0४1९्‌7"8 
1.71, एङ़ 78 तशा, ए०्‌. 7.) ए. 321, 829] ० ९८४३6, 98 [9 2६ [6१४१९६४ 
811 भूण18. 1. । 

§ 116 (दद्क्षा भ €ा०6त्‌ 77 §. ‰, 11 78 6.८ दणुाक्नाणलत्‌ 88 11601111; 
^ 6 (80. 1) 7161186 न 119६ त€्ला्]€ शृादातजपाः (86, € 80) ग धाह वलाष्फ 
४6 श } षक 06 707९ छपा ॥गद्टो४8. = वक हटणाप९७३ 8४2८1८7 &11त वट४०९$/द्‌ 
४76 1101 8९ [66 {0 €तवा€88 {76 कलापक ग डद भात्‌ करदा (षष). 2, 3, 50), 
णि ९4 10168 108 अप्र] €०,6 एल €886166 कषात्‌ 101 105 पाए, -एषवाद्प्णै 
16 0६ 28, कपा द. 


41111 261 


५ 
प्र0 गाकु 7096 छपा, प्रणाशो8,*--80 8 प्रर र10 वृतल्वृभ्ठ शुभे त्पभ्‌ 
कण्1९त९९. = 45 छि 20420, 16 5 एन्व्‌ 66414 क0 15 [1४८6 
प कणातला इपा ` छः 28 {6 कृप] 70 पध6 द "प्रऽ दगणडु ण 
(८2#) 18 [क़ 1धक8 ' (21460 ),--€1668 16 18 ९6047440 ; 0" ^ 16 
10210168 › (९0012442), पला७९ 18 16 6/0742‰ 0 प्विप्त्‌9, © 8268. 
07 {€ ९८ उपणु]1<इ 9“ 16 लादाप्ला$ (6245) 21] 11686 ऋणयवह ; 
116 ८ {1096 16 @ाकष्ववला8 (म) 91 686 एला18 ; ४06 &८ त्र भा 
{1686 लापा 20 (कक) 10 [ण त्‌ (0 फणा ]प70,* {11066 
18 16 6020४, = शि णा1 {6 इना एलंपद्ठ दण्ापश्चाक सप016886त (५) 
16 18 ७8]]९6त्‌ 5४2 5 गिता [नाद्वा गि (उ) कछ, नि {पप 
(44) 4५४८, शिण) [प्प रि17& (४) 241479८ (6) ; 7010 @1910@ 17- 
"68.86 (4८४) 0104१ (फला) ; प्पड इर (106 +९दला€ः.) 76 §इ०प, 
11086 7191116 18 [जाश वुं 18 16 1पथाल ग ५06 00वृङक, 16 
{रला 176 कलाललेर्ल, 6 @ण्ल, ल= लण्लाध्ता, {€ वनोदय, € 
0९, {116 8€वला', 1116 {वरडालि", {116 शालुालः, 6 8९, (€ [€द्ाला, शात्‌ 
1116 {0प्रलाल, -- 116 €'९०५९8, 087 साल्व [0 {06 0 ; नीप 
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* ^ प्रक्ष आ भ पिश धल कशह प९8लाए6्त्‌ धल कणश ० ४06 इन्णा 
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ग {106 ; भरात्‌ {176 फश्रपा€ ण प्रप€ 18 ८246 पु) ग 6 80866 ग 00- 
70618, &९..--(म0]0०86त्‌ 0 {क्रल]रट 11011115, 14641८9] शा] 116 टका, 
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(9 जक्षत €्8ध्लय ८९) 81६6, ४2 इ0पात्‌ शल्लु)), 0 1४867 1४ प्€ एप्प 8ौक्ट ज 
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770 पपा पलाल ए ८8० 1६ ४0 ए6्ल्०€ [वलाध्टछ्‌ 7 णि, 
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(18 जातो 16 €नाल्त्‌ एकच, 1.6. ४४८ पआऋतारवप्थ्‌ इ०प्रा ४8 दाभ्क्८ल)86व 0 ८०८ 
इपर] १00, कप पिठ 70 [णाल भृत्यः 7 166 इदृक्ष्6 ऋवारतवाभाक्ति तिणण ४०6 
8708€ा९€ ० क्ष ९0860 इप]त्ला $ ०7 धऽ पकप एतत एन्कप्ण् ४6€ ४४१८६ ग 
लाल (णी धाणड एष्ट्मछ€ ए्मत म भ्रा गोद्न््ड, 

|| 11018 10८688 18 ९9116त्‌ द्वकफतीरद्णक भाते 1४8 एल्डप्रोपभा( 8६४१९ 4... 1. 

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एश); षात्‌ ॥16 ककुलप्तमा म (भाल फङऽप्ठ इको) 07, 1 
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2086166 गागा क्ष्णा उ४5न^ं॑ वाला 16 भ्भऽ (16 
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(© €) ; ४ 

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7216), 1189110 ९०8७९व्‌ {116 81816 ० [्ाद्0ा, 16/ [ष0, 11 116 लाठी 
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10 € व्णगफ॑लाुक्प€व्‌, §0प्ात्‌ ऋत्‌ प्रनान्०पात्‌, 1 §0पात्‌ 18 11€ 
70ा-ऽ०प्ात्‌ 11971886. = > (686 {क को) 18 17€ एउ 9्ा9 ९916९त्‌ 
७0प्रा1त. ए 1618 9 (18 (070), एंड 200९6 (9्‌] पऽ) || ४1091 
0९९०068 71616त्‌ 70 116 (इप्ुणल0© एकाक्ष ९शराल्त्‌) 7गा-§ऽ०पात्‌. 
118 18 ४16 लात्‌, #8 18 कणषगथा क्ति, 8 28 8080० कणत ए९य्ा- 
४१९. 48 "6 शृगतला) पश्च प? ए 108 पः९वत्‌, 1€धलृा€ह ४ ९6 
8०9०९, 80 {1118 व्राणा", 1187702 प) एग 1716818 ग 071, 762९1168 8080 
[प।€ न्त्व. एप गा्याह 0 ऋक्चपक्ना {76 काक्या ९वा6त्‌ 
७०प्त्‌, 70व नालक्186, ए श पला पापा08 ० पालाः दत्रा8, 
प्राह [8घ्लिा ६0 € इतप्पत्‌ 7 {76 €तालः ऋपा (6 1601. [४ [की 9 


# ङ लाला 10 € [66€ गा ल्श कला [्र्5 [€ ४ 0168851 270९९ ४1€ 
70४1४६6, &. ^ ला४ प. 1. 6. 1; ६9108 भ्रा. र]. 16; 21888 भा. 11. 6. 
176 तणाव कदा (इप्भोाप्ा0118) 18 8ध्ात्‌ ४0 प्ल णा०६॥6€ क 7166 [€ 10015 ग ध€ 
08 &7€ 1९16 ० 018 एपा€त. 

¶ ¶10€ (नपा. 16४8 €ा€ ऽव्णकु४/द, एप( 70668 ४6 गल्न्तवा०& ० € उक्षा. 
पल वरवरद) 1.6, 07880197 ६06 ल्णापल्लप्रण ग € एतवा 9६8 07 {0& 86868 
110 ४€ 7070 त 978. 

‡ ७८. ^ [6६ का, ४08 लाल्‌ पित्व प्ण [प्पाक्त्िगा (०््ल1॥6, 0' ४९ 
6०8द०गा§ 0, ४6 208९८ ग व णा््त्रगा8, 1. 6. {76 पा प्फाफा६6व्‌ [एलत्न्णण ग 
€ फणात ग एउष्भााक्षा.' 

6 {16 (ला, लन्लफ्‌] गह्क्चा8, अत्‌ ध्ा6 उदा गहा) १021146. 

| 48 0110 € ९४१68 811 80प्र1त5 €ग€887 91] ०९८४७, 1€ 11368 $ 06818 0 
1४8 7कु€प्रप्षठ, एद्ुणणत क्रा ०४१८८४6 ग (णड्णाप्रम), क 060ला पोल ०6 ७०05 क 110 
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